कारगिल युद्ध के हीरो कैप्टन मनोज पांडेय का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के कमलापुर के रूढ़ा गांव में हुआ था। वह बचपन से ही दृढ़संकल्प थे। एनडीए में चयन हुआ। उन्होंने फार्म में ही लिख दिया था कि उनका लक्ष्य परमवीर चक्र है। उन्होंने डायरी में लिखा था कि स्वयं को सिद्ध करने से पहले यदि मेरे कर्तव्य मार्ग पर मौत भी आती है तो मैं शपथ लेता हूं कि उसे भी मार दूंगा। कारगिल के खालूबार में पाकिस्तानी दुश्मनों की गोली उनके सिर पर लगी, इसके बावजूद उन्होंने ग्रेनेड से पाकिस्तानी घुसपैठियों के बंकर को तबाह कर दिया था। रणभूमि में इस अदम्य वीरता के लिए भारत सरकार ने उन्हें परमवीर चक्र से अलंकृत किया।
वह अपने परिवार का भी बड़ा ख्याल रखते थे। उन्होंने अपने परिवार को आखिरी खत में लिखा था कि लड़ाई के मैदान में बीच में चिट्ठी पढ़ना कैसा लगता है शायद आप लोग इसका अनुभव नहीं कर सकते। मनोज पांडेय ने देश के लिए बलिदान किया। उन्हें घर में रहने को मिला ही नहीं। सैनिक स्कूल में पांच साल रहे, तीन साल एनडीए में और एक साल देहरादून में। 24 साल की उम्र में बलिदान हो गए।
मनोज पांडेय का वह आखिरी खत
आदरणीय पिता जी सादर चरण स्पर्श मैं यहां प्रसन्न पूर्वक रहकर आप लोगों के मंगल की कामना करता हूं। कल ही सोनू का पत्र मिला, जानकर प्रसन्नता हुई कि वह ठीक है। यहां के हालात आप लोगों को पता ही हैं। आप लोग ज्यादा चिंता न करें कयोंकि हमारी पोजीशन उनसे अच्छी है। लेकिन दुश्मनों को हराने में कम से कम एक महीने का समय अवश्य लगेगा तब तक कुछ नहीं कहा जा सकता है। बस भगवान पर भरोसा रखना और प्रार्थना करना कि हम अपने मकसद में कामयाब हों।
सोनू से कहना कि वह पीसीएम की कोचिंग करना चाहे तो अच्छी बात है। पर उसके साथ लखनऊ विश्वविद्यालय में बीएससी में एडमिशन की भी कोशिश करे। एनडीए में हो जाता है तो बहुत अच्छा। अपना ख्याल रखना। कोई सामान की जरूरत हो तो बाजार से खरीद लेना। यहां काफी ठंड है, पर दिन में बर्फ न पड़ने से मौसम ठीक रहता है। आप लोग चिट्ठी अवश्य डालना, क्योंकि लड़ाई के मैदान में बीच में चिट्ठी पढ़ना कैसा लगता है शायद आप लोग इसका अनुभव नहीं कर सकते। मेरी चिंता मत करना।
– आपका बेटा मनोज
अवकाश की जगह युद्ध चुना
मनोज पांडेय की पहली तैनाती कश्मीर घाटी में हुई। कारगिल युद्ध से पहले उन्हें सियाचिन भेजा गया। उनके और उनकी बटालियन के पास विकल्प था कि अवकाश ले सकते थे, लेकिन उन्होंने छुट्टी लेने से मना कर दिया था। उन्होंने छुट्टी की जगह युद्ध को चुना। मनोज पांडेय को कारगिल में निर्णायक युद्ध के लिए 2-3 जुलाई को भेजा गया। खालूबार जीतने की जिम्मेदारी दी गई। देखते ही देखते उन्होंने तीन बंकर ध्वस्त किए। इसी दौरान दुश्मनों की गोली उनके माथे पर लगी, लेकिन मृत्यु का वरण करने से पूर्व उन्होंने चौथे बंकर को भी तबाह कर दिया था।
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