इन दिनों पेरिस में चल रहे ओलंपिक खेलों को लेकर शुरू से ही कोई न कोई विवाद खड़ा हो रहा है। फ्रांस को 100 वर्षों के बाद ओलंपिक खेलों की मेजबानी मिली लेकिन वह संतोषजनक व्यवस्थाएं करने में विफल साबित हो रहा है। इसी कारण पेरिस ओलंपिक शुरू होने के बाद से ही आयोजन समिति को आयोजन स्थलों तथा खेल गांव में बुनियादी सुविधाओं की कमी को लेकर विदेशी खिलाड़ियों और टीम के सदस्यों की कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। उद्घाटन समारोह के दौरान एफिल टॉवर के सामने राष्ट्रों की परेड के अंत में सभी प्रतिनिधियों के सामने ओलंपिक ध्वज को उल्टा फहराया गया था, जिससे आईओसी को भी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी थी। उद्घाटन समारोह से भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) की अध्यक्ष पीटी उषा भी खुश नहीं थी। पेरिस में 26 जुलाई को शुरू हुए ओलंपिक खेलों में शामिल हुए दुनियाभर के 10 हजार से भी ज्यादा खिलाड़ियों के लिए भोजन की व्यवस्था को लेकर शुरूआत से ही सवाल उठते रहे हैं। कई प्रख्यात खिलाड़ी भी आरोप लगा चुके हैं कि वे अपने कार्यक्रमों में भाग लेने के बाद जब खेल गांव में लौटते हैं तो वहां उनके लिए कोई भोजन उपलब्ध नहीं होता और जब इसके बारे में आयोजन समिति के अधिकारियों और वॉलंटियर्स से पूछा जाता है तो उनके पास इसका कोई जवाब नहीं होता।
भारत के ही कुछ खिलाड़ियों का कहना है कि खेल गांव में खिलाड़ियों के सोने की व्यवस्था से लेकर बस और खाने की व्यवस्था तक कोई भी खिलाड़ी संतुष्ट है। पेरिस इन दिनों भीषण गर्मी से जूझ रहा है, इसके बावजूद कार्बन फुटप्रिंट्स कम करने के नाम पर खिलाड़ियों के कमरों से एसी हटा दिए गए और खिलाड़ियों को पसीने से तर-बतर होकर छोटे-छोटे कमरों में रहने को मजबूर होना पड़ रहा है। 10 महिला खिलाड़ियों के लिए केवल दो बाथरूम की व्यवस्था है, खिलाड़ियों को खेल गांव से खेल आयोजन स्थल तक ले जाने के लिए नॉन एसी बसों की व्यवस्था है, खिलाड़ियों के सामान की चोरियां हो रही हैं। एक जापानी खिलाड़ी की करीब 2 लाख 70 हजार रुपये की वेडिंग रिंग और ऑस्ट्रेलियाई हॉकी टीम के कोच का क्रेडिट कार्ड चुराकर उससे 1500 डॉलर का संदिग्ध लेन-देन होने की घटनाएं सामने आने के बाद भारतीय अधिकारियों द्वारा भारतीय एथलीट्स को अपने कमरों के अंदर तिजोरी का इस्तेमाल करने के लिए कहना पड़ा। यही कारण हैं कि सोशल मीडिया पर लोग अब जमकर टिप्पणियां करते हुए कह रहे हैं कि पेरिस ओलंपिक में जो कुछ हो रहा है, यदि यही भारत अथवा किसी अन्य एशियाई देश में हुआ होता तो यूरोप वाले आसमान सिर पर उठा लेते।
पेरिस ओलंपिक में सबसे बड़े विवाद का कारण बना है पुरुष के रूप में स्वयं को महिला कहने वाले अल्जीरिया के बॉक्सर इमान खलीफ को इटली की महिला बॉक्सर के साथ लड़ाया जाना और इटली की महिला बॉक्सर द्वारा कुछ सैंकेंडों में ही मैदान छोड़ देना। इमान खलीफ के शरीर को देखकर वह कहीं से भी महिला जैसा नहीं लगता और इसीलिए 2023 में ही वर्ल्ड बॉक्सिंग चैंपियनशिप के फाइनल मैच से पहले उसे अयोग्य करार दिया गया था। यही कारण है कि दुनियाभर में हैरानी इसी बात को लेकर जताई जा रही है कि अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने कैसे उसे महिला वर्ग में खेलने की अनुमति देते हुए इन मैचों का आयोजन कराया। ओलंपिक समिति के निर्णय को लेकर सवाल यही उठ रहे हैं कि अगर कोई पुरुष स्वयं यह मान लेगा कि वह एक महिला है तो क्या केवल उसके इतना मान लेने या उसके पहचान पत्रों में उसका लिंग महिला के रूप में दर्ज होने के चलते ही उसका मैच किसी दूसरी महिला खिलाड़ी के साथ करवा दिया जाएगा? इस विवाद के जन्म लेने के बाद विश्व बॉक्सिंग फेडरेशन के उपाध्यक्ष का बयान भी सामने आया है, जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से इमान खलीफ को एक पुरूष ही करार दिया है। ओलंपिक में मुकाबला शुरू होते ही महिला खिलाडी एंजेला कैरिनी को केवल 46 सैकेंड में ही मैदान इसीलिए छोड़ना पड़ा क्योंकि उसका स्पष्ट कहना था कि उसकी नाक पर इमान खलीफ का जो मुक्का लगा, वह किसी महिला का नहीं बल्कि पुरूष का ही था और एक पुरूष के साथ मुकाबला लड़कर वह अपनी जान जोखिम में नहीं डाल सकती थी।
हालांकि ऐसा नहीं है कि ओलंपिक खेलों के आयोजन को लेकर विवाद पहली बार ही खड़े हुए हों बल्कि इससे पहले भी कई ओलंपिक खेलों के दौरान किसी न किसी कारण विवाद होते रहे हैं और विभिन्न देशों के खिलाड़ी इन खेलों का बहिष्कार भी करते रहे हैं। 2008 में बीजिंग में हुए 29वें ओलम्पिक खेलों के अवसर पर तो पहली बार मशाल प्रज्वलन के दौरान ही राजनीतिक अथवा कूटनीतिक विरोध प्रदर्शन हुए थे। वैसे इन खेलों के विरोध का सिलसिला पहली बार 1936 से तब शुरू हुआ था, जब जर्मनी में तानाशाह हिटलर द्वारा अपने शासनकाल में अपना विरोध करने वाले लाखों यहूदियों का कत्लेआम किए जाने के विरोधस्वरूप बर्लिन में आयोजित ओलम्पिक खेलों का दर्जनों यहूदी खिलाड़ियों ने बहिष्कार किया था। उसके बाद ब्रिटेन से स्वतंत्रता की मांग को लेकर आयरलैंड ने 1948 में लंदन में आयोजित ओलम्पिक खेलों का बहिष्कार किया था। उसी ओलम्पिक में उद्घाटन समारोह के दौरान अमेरिकी टीम ने किंग एडवर्ड सप्तम को अपना ध्वज देने से इन्कार कर दिया था। 1952 के अगले हेलसिंकी आलेम्पिक में सोवियत खिलाड़ियों ने खेल स्पर्द्धाओं में तो हिस्सा लिया था पर उद्घाटन समारोह का बहिष्कार किया था। हंगरी में सोवियत संघ के दमन के विरोध में हॉलैंड, स्पेन, स्विट्जरलैंड इत्यादि कुछ यूरोपीय देशों ने उस ओलम्पिक का बहिष्कार किया था।
स्वेज नहर विवाद के चलते मिस्र, इराक, लेबनान इत्यादि मध्य-पूर्व के कुछ देशों ने 1956 में आयोजित मेलबर्न ओलम्पिक का बहिष्कार किया था। 1964 के टोक्यो ओलम्पिक में जहां दक्षिण अफ्रीका को उसकी नस्लभेदी नीतियों के कारण ओलम्पिक खेलों में भाग लेने की अनुमति नहीं दी गई, वहीं कुछ विवादों के चलते इंडोनेशिया तथा उत्तरी कोरिया ने इस ओलम्पिक का बहिष्कार किया था। 1968 के मैक्सिको ओलम्पिक पर खून के छींटे भी पड़े, जब इन खेलों से चंद दिनों पहले ओलम्पिक खेलों का विरोध कर रहे छात्रों पर मैक्सिको की सेना ने बर्बरतापूर्वक गोलियां चलाकर सैंकड़ों छात्रों को भून डाला था। 1972 का म्यूनिख ओलम्पिक भी खून से सना रहा, जब फिलिस्तीन समर्थक ‘ब्लैक सैपटेंबर’ के कार्यकर्ताओं ने अचानक खेलगांव पर धावा बोलकर करीब दर्जनभर इजरायली खिलाड़ियों की हत्या कर दी थी। ओलम्पिक खेलों के बहिष्कार की सबसे बड़ी घटना घटी थी 1980 के मॉस्को ओलम्पिक में, जब अफगानिस्तान में सोवियत आक्रमण के खिलाफ अमेरिका के नेतृत्व में दो-चार नहीं बल्कि पूरे 62 देशों ने मॉस्को ओलम्पिक का बहिष्कार किया था और 1984 में रूस तथा पूर्वी ब्लॉक ने लॉस एंजिल्स में आयोजित अगले ओलम्पिक का बहिष्कार कर अमेरिका को उसी की भाषा में जवाब देने का प्रयास किया था। 2008 में बीजिंग में हुए ओलम्पिक खेलों के लिए ओलम्पिया में ओलम्पिक मशाल के प्रज्वलन के दौरान ही जबरदस्त विरोध प्रदर्शन देखे गए और उसके बाद मशाल जिन-जिन देशों से गुजरती गई, तिब्बत में चीनी दमन चक्र के खिलाफ हर जगह ऐसे विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला चलता रहा।
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