पाकिस्तानी सेना जिनसे खौफ खाती थी, एक के बाद एक और जीत था जिनका लक्ष्य, नेतृत्व ऐसा जो पहले कभी देखा नहीं गया। जिनके शब्द थे- तिरंगा लहराकर आऊंगा या उसमें लिपटकर, लेकिन आऊंगा जरूर। वह परमवीर थे कैप्टन विक्रम बत्रा। पाकिस्तानी दुश्मन उन्हें शेरशाह (शेरों के राजा) कहकर बुलाती थी। महज 24 साल की उम्र में देश के लिए जान न्यौछावर कर देने वाले भारत माता के इस अमर सपूत को भारत सरकार ने परमवीर चक्र से अलंकृत किया था।
विक्रम के पिता गिरधारी लाल बत्रा जी उन्हें बचपन से प्रेरणास्पद कहानियां सुनाते थे। चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी महाराज की कहानियां सुनकर वे बड़े हुए। विक्रम बत्रा हृदय में बचपन से ही देशप्रेम की हिलोर उठ रही थी। उनकी स्कूली शिक्षा केंद्रीय विद्यालय पालमपुर (हिमाचल प्रदेश) से हुई। आगे की पढ़ाई डीएवी कॉलेज, चंडीगढ़ से हुई। एनसीसी में नार्थ में बेस्ट कैडेट चुने गए।
विक्रम बत्रा ने 1994 में गणतंत्र दिवस परेड में भी हिस्सा लिया था। उन्हें टेबल टेनिस खेलना पसंद था। मर्चेंट नेवी में भी उनका चयन हुआ था। एग्जाम देने मुंबई भी गए और आखिरी क्षण में इसे ठुकरा दिया। मां ने पूछा कि ऐसा क्यों किया तो उनका जवाब था कि पैसा ही सबकुछ नहीं होता है, मुझे कुछ करना है। उन्हें 13 जम्मू- कश्मीर राइफल यूनिट, श्योपुर में लेफ्टिनेंट नियुक्त किया गया। कुछ समय बाद कैप्टन रैंक दिया गया।
विक्रम बत्रा समाज से भटके हुए लोगों को समाज की मुख्य धारा से भी जोड़ते थे। जम्मू-कश्मीर में तैनात रहने के दौरान उन्होंने एक-दो आतंकियों को वापस समाज की मुख्य धारा में लेकर आए। कश्मीर में चोटी 5140 पर तिरंगा फहराने के बाद जब कमांडर ने पूछा तो उन्होंने कहा- ये दिल मांगे मोर। यानी हम और आगे बढ़ना चाहते हैं। प्वाइंट 4875 पर युद्ध के दौरान उनके सीने में दर्द था, बुखार भी था, इसके बावजूद वह मोर्चे पर डटे रहे। कमांडर जानते थे कि विक्रम रणभूमि से पैर पीछे नहीं हटाएंगे। यूनिट के साथी भी चाहते थे कि उनका नेतृत्व विक्रम बत्रा ही करें। प्वाइंट 4875 पर उनके जूनियर नवीन के पैर में हैंड ग्रेनेड लगा था। चीखने की आवाज सुनकर बंकर से निकलकर विक्रम वहां जाने लगे तो साथियों ने रोका। कहा कि अभी रात है सुबह चलेंगे, लेकिन विक्रम बत्रा कहां मानने वाले थे। बंकर में अपने साथियों को पीछे कर वह रणभूमि में कूद पड़े। मौके पर पहुंचकर पांच घुसपैठियों को मार गिराया। कुछ से हाथ से भी भिड़े। नवीन को सुरक्षित बंकर तक पहुंचाया, लेकिन इसी बीच दुश्मनों की गोली उनके सीने पर लगी और वह जय माता दी कहते हुए बलिदान हो गए।
रणभूमि में भी मुस्कराहट
विक्रम बत्रा के चेहरे पर हमेशा मुस्कान रहती थी। जंग के मैदान में भी यह मुस्कराहट थी। एक तरफ गोलियां चल रही हों और वहीं एक वीर ऐसा हो जिसके चेहरे पर मुस्कान हो तो डर अपने आप भाग जाएगा। इसका असर टीम पर भी पड़ा। साथियों को हौसला मिलता था।
जब पूरे देश में भर दिया था जोश
कारगिल में विक्रम बत्रा का पहला लक्ष्य प्वाइंट 5140 पर विजय हासिल करना था। यहां उन्होंने अकेले ही तीन घुसपैठियों को मार गिराया। जब इस चोटी से रेडियो के जरिये अपना विजय उद्घोष ‘ये दिल मांगे मोर’ कहा तो पूरे भारत में जोश भर गया। इस प्वाइंट पर विजय दिलाने के बाद विक्रम बत्रा के लिए यूनिट की तरफ से महावीर चक्र के लिए सिफारिश की गई थी। लेकिन यह परमवीर कहां रुकने वाला था। बीमार होने के बावजूद प्वाइंट 4875 पर घुसपैठियों को मार गिराया। भारत सरकार ने कैप्टन विक्रम बत्रा को परमवीर चक्र से अलंकृत किया।
परमवीर चक्र सीरियल था पसंद
विक्रम के जुड़वा भाई हैं विशाल। दोनों की जीवनशैली एक जैसी थी। सारी बाते साझा करते थे। बचपन में परमवीर चक्र धारावाहिक बहुत अच्छा लगता था। दोनों भाई पड़ोसी के यहां यह सीरियल देखने जाते थे। प्रहार मूवी फेवरेट थी। विक्रम बत्रा को ड्राइविंग का शौक था। जम्मू-कश्मीर के सोपोर में तैनाती के दौरान उनके एक हाथ में जीप की स्टेयरिंग और दूसरे हाथ में एके-47 होती थी। विक्रम में नेतृत्व क्षमता गजब की थी। युद्ध में सबसे आगे चलते थे। अपने सहयोगियों का बाल भी बांका नहीं होने देते थे। सैनिक भी उनके साथ इसलिए जाने को तैयार हो जाते थे क्योंकि उन्हें मालूम था कि यह रणभूमि में सबसे आगे चलेगा। युद्ध का डर किसी के अंदर आने नहीं देगा। वह चुनौती को स्वीकार करते थे। युद्ध के दौरान एक घुसपैठिए ने उनसे कहा कि मुझे माधुरी दीक्षित दे दो, मैं कश्मीर दे दूंगा। यह सुनकर उनका खून खौल उठा। उन्होंने घुपैठिए को वहीं ढेर कर दिया।
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