हाल ही में, भारत के सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए कोटा के भीतर कोटा को मान्यता दी है। यह निर्णय 2004 में किए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विपरीत है, जिसमें एससी-एसटी के लिए अलग-अलग उप-श्रेणियों को बनाने की अनुमति नहीं दी गई थी। नए फैसले ने इस मुद्दे पर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, जो समाज के विभिन्न वर्गों के बीच समानता और न्याय की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाता है।
सुप्रीम कोर्ट का नया निर्णय
सुप्रीम कोर्ट के नए निर्णय ने स्पष्ट किया है कि राज्यों को एससी (अनुसूचित जाति) और एसटी (अनुसूचित जनजाति) के भीतर उप-श्रेणियां बनाने का अधिकार है। यह निर्णय एक महत्वपूर्ण कदम है, जो यह मान्यता देता है कि समाज में विभिन्न वर्गों के बीच समुचित प्रतिनिधित्व और अवसर प्रदान करने के लिए विशेष कोटा की आवश्यकता हो सकती है। इससे विभिन्न उप-श्रेणियों के अधिकारों और अवसरों की रक्षा सुनिश्चित की जाएगी, जो पहले केवल एक समान कोटा के तहत आते थे।
2004 का पूर्व निर्णय और उसकी सीमाएं
2004 में, सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्णय दिया था जिसमें एससी और एसटी के लिए उप-श्रेणियों को मान्यता नहीं दी गई थी। इस निर्णय ने राज्य सरकारों को केवल एक ही कोटा लागू करने की अनुमति दी थी, जिससे कि विभिन्न जातियों और उप-जातियों के बीच भेदभाव की संभावना बनी रही। इस फैसले के कारण, कुछ वर्गों को आवश्यक प्रतिनिधित्व और अवसरों से वंचित रहना पड़ा।
पूरा मामला इस प्रकार है-
1975 में, पंजाब सरकार ने अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण नीति शुरू की थी, जिसमें आरक्षित सीटों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था। यह नियम 30 वर्षों तक लागू रहा। इसमें एक श्रेणी बाल्मीकि और मजहबी सिखों के लिए तथा दूसरी श्रेणी अनुसूचित जाति वर्ग के बाकी लोगों के लिए थी।
2006 में, यह मामला पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय में पहुंचा, जहाँ ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के 2004 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला दिया गया। इस फैसले में कहा गया था कि अनुसूचित जाति श्रेणी के भीतर उप-श्रेणियां स्वीकार्य नहीं हैं क्योंकि यह समानता के अधिकार का उल्लंघन करती हैं। परिणामस्वरूप, पंजाब सरकार की नीति रद्द कर दी गई।
बाद में, 2006 में पंजाब सरकार ने बाल्मीकि और मजहबी सिखों को फिर से कोटा देने के लिए एक नया कानून बनाया। इस कानून को 2010 में पुनः उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और उच्च न्यायालय ने भी इसे खारिज कर दिया, मामला उच्चतम न्यायालय पहुंचा।
पंजाब सरकार ने तर्क दिया कि यह इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के तहत अनुमेय था, जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के भीतर उप-श्रेणियों की अनुमति दी गई थी। सरकार का कहना था कि अनुसूचित जातियों में भी उप-श्रेणियों की अनुमति होनी चाहिए।
2020 में, सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने पाया कि ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य के फैसले पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए। इसके लिए एक बड़ी पीठ बनाई गई। जनवरी 2024 में, सीजेआई के नेतृत्व में सात जजों की बेंच ने मामले में तीन दिनों तक दलीलें सुनीं और फिर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया।
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