दुनिया के सबसे ऊंचे युद्ध क्षेत्र कारगिल में भारत के जांबाजों ने पाकिस्तानी सेना के खतरनाक मंसूबों को मिट्टी में मिला दिया था। आतंकियों के आड़ में पाकिस्तानी सेना की घुसपैठ को नेस्तनाबूद कर दिया था। इस युद्ध में देश के रणबांकुरों ने अपने जीवन की परवाह नहीं की और भारत के मुकुट को थामे रखा। चोटी फतह करने पर कैप्टन विक्रम बत्रा का यह संदेश- ये दिल मांगे मोर, कभी भुलाया नहीं जा सकता। देश की रक्षा के लिए अपनी जान न्यौछावर करने वाले अपने इस सपूत को भारत ने परमवीर चक्र से अलंकृत किया था।
हमेशा जीत का तिलक लगाने वाले कैप्टन विजयंत थापर ने कारगिल में सेना को पहली जीत दिलाई थी। चांदनी रात में नॉल पहाड़ी पर तोलोलिंग की चोटी पर पाक सेना को खदेड़कर तिरंगा फहराया था। भारत ने अपने इस वीर बेटे को वीर चक्र से सम्मानित किया था। अमर बलिदानी विजयंत थापर का हौसला फौलादी था तो दिल में प्रेम और करुणा भी थी। कश्मीर में छोटी से लड़की रुखसाना की उन्होंने मदद की थी। उन्होंने कारगिल से जो खत घर भेजा था उसमें भी रुखसाना का ख्याल रखने की बात कही थी।
कैप्टन विक्रम बत्रा और कैप्टन विजयंत थापर में एक समानता भी थी। यह बात बहुत कम लोगों को पता है कि दोनों ने एक ही स्कूल से पढ़ाई की थी। विजयंत थापर ने बारहवीं चंडीगढ़ के उसी डीएवी स्कूल से की थी, जहां से विक्रम बत्रा ने पढ़ाई की थी। विक्रम बत्रा उनसे दो साल सीनियर थे। विजयंत ने स्नातक (बीकॉम) दिल्ली विश्वविद्यालय के खालसा कॉलेज से किया।
विजयंत थापर का नाम भारतीय सेना के गौरवशाली टैंक विजयंत के नाम पर रखा गया था। नोएडा सेक्टर-29 में रह रहे पिता कर्नल (रिटायर्ड) वीएन थापर कहते हैं कि जब विजयंत लड़ाई के आखिरी पड़ाव में नॉल पहाड़ी पर गए तो वहां बहुत ज्यादा बमबारी हो रही थी। 120 तोपें भारत की ओर से गरज रहीं थीं तो इतनी ही तोपें पाकिस्तान की तरफ से भी। एक छोटे से क्षेत्र में इतनी ज्यादा गोलाबारी तो दुनिया में किसी युद्ध में नहीं हुई होगी। तोप का एक गोला विजयंत की टुकड़ी पर गिरा। कुछ जांबाज बलिदान हुए। विजयंत अपनी टुकड़ी और घायलों को लेकर सुरक्षित जगह पर पहुंचे। 19 लोगों के साथ तोलोलिंग नाले की तरफ से दुश्मनों के पीछे गए और फिर उनके बीच से निकलकर अपनी कंपनी से मिले। इसी दौरान सूबेदार मानसिंह को एक गोले का हिस्सा लगा। वह गंभीर रूप से घायल हो गए। इससे नॉल पहाड़ी पर नेतृत्व का पूरा जिम्मा विजयंत के कंधों पर आ गया। उन्होंने यह जिम्मेदारी अच्छे से निभाई। विजयंत ने 28-29 जून 1999 की दरम्यानी रात में नॉल पहाड़ी पर तिरंगा लहराया। इसके बाद थोड़ा आगे बढ़े तो दुश्मनों की मशीनगनें गोलियां उगल रहीं थीं। इसी दौरान एक गोली विजयंत के माथे पर लगीं और वह हवलदार तिलक सिंह की बांहों में गिर गए।
विक्रम बत्रा से पाकिस्तानी सेना और आतंकी खौफ खाते थे। जीत के बाद एक और जीत, उनका मकसद था। नेतृत्व ऐसा, जो पहले कभी देखा नहीं। कारगिल के हीरो विक्रम बत्रा की बहादुरी के किस्से अनगिनत हैं। वह सेना में शेरशाह (शेरों के राजा) के नाम से जाने जाते थे। पाकिस्तानी सेना और आतंकी भी उन्हें इसी नाम से जानते थे। यदि ‘शेरशाह’ सामने हैं तो आतंकियों की खैर नहीं होती थी। विक्रम बत्रा के ही शब्द थे- तिरंगा लहरकार आऊंगा या उसमें लिपटकर आऊंगा, लेकिन आऊंगा जरूर।
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