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संविधान के हत्यारों की बौखलाहट

आपातकाल के दौर में उभरी तानाशाही प्रवृत्ति के अनुभव को राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक अवसाद एवं संवैधानिक अस्तित्व के संकटपूर्ण कालखंड के रूप में प्रतिवर्ष याद करने से नई पीढ़ी को शिक्षित एवं जागरूक किया जा सकेगा। लेकिन ‘संविधान हत्या दिवस’ मनाने की घोषणा के बाद से डरी हुई वंशवादी कांंग्रेस की रातों की नींद हराम हो गई है

by शिवेन्द्र राणा
Jul 25, 2024, 11:46 am IST
in भारत, विश्लेषण
संविधान को सूली पर चढ़ाकर नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कुचल दिया था तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने

संविधान को सूली पर चढ़ाकर नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कुचल दिया था तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने

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एक लोकतांत्रिक राष्ट्र की सम्पूर्ण जीवन-चर्या में संविधान आस्था का केन्द्र होता है। संविधान वह नियमावली है जिस पर राष्ट्र का सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक जीवन आधारित होता है। इसलिए संविधान का निरंतर राष्ट्रीय विमर्श के केन्द्र में होना, उचित भी है और आवश्यक भी। लेकिन भारतीय राजनीति में स्थिति विषम है। पिछले कुछ महीनों में देश के विपक्ष द्वारा संविधान को लेकर हौव्वा खड़ा किया गया है, जिसके आधार में सिर्फ नकारात्मकता है। यह नकारात्मकता भावनाओं की अस्थिरता से पैदा हुई है।

पिछले दो वर्ष में, विशेषकर लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान, पूरे समय कांग्रेस नेतृत्व में विपक्ष संविधान की सुरक्षा के नारे और भाजपा द्वारा उसे परिवर्तित करने का भय दिखता रहा। अब उसकी व्यग्रता ‘25 जून’ को ‘संविधान हत्या दिवस’ के तौर पर मनाने की घोषणा पर आधारित है। बता दें कि पिछले दिनों एनडीए सरकार ने आपातकाल के दौरान हुई संविधान की अवमानना एवं अपमान के मद्देनजर इस राष्ट्रीय दिवस की घोषणा की है, लेकिन कल तक संविधान के सम्मान के लिए सड़क से संसद तक हंगामे को आतुर विपक्ष अब इसके विरोध में उपद्रवी हो रहा है।

अंधकार युग

आपातकाल भारतीय संविधान की लोकतान्त्रिक यात्रा का सबसे दु:खद एवं क्षोभजनक पहलू है, इस तथ्य से देश के किसी भी नागरिक को कोई आपत्ति नहीं है। फिर उस दिवस के अशुभ पहलुओं से नई पीढ़ी को परिचित कराने से किसी को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए, लेकिन कांग्रेस को है। आखिर क्यों?

इस देश की राजनीतिक वैचारिकी बड़ी अजीब है। जवाहरलाल नेहरू को ‘राष्ट्रीय चचा’ बनाकर उनके जन्मदिन (14 नवम्बर) को बाल दिवस के नाते मनाया जा सकता है। गांधी जी के जन्मदिन (2 अक्तूूबर) को अहिंसा दिवस घोषित किया जा सकता है। 26 नवम्बर को संविधान दिवस मनाया जा सकता है, तो फिर 25 जून को लोकतंत्र हत्या दिवस घोषित करने में आखिर क्या आपत्ति हो सकती है, जिस तिथि को इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने जनता को अपमानित करने हुए भारत में आपातकाल की तानाशाही थोपी थी?
25 जून, 1975 से 23 मार्च, 1977 तक के कालखंड को भारतीय जनतंत्र का संवैधानिक दृष्टि से अंधकार युग कहा जाता है, जो मूलत: लोकतान्त्रिक मर्यादा के समक्ष वंशवाद को तरजीह देते हुए सर्वसत्तावाद में परिवर्तित करने की व्यथा कथा है।

इंदिरा गांधी ने एक बार भारत के पूर्व राजा-महाराजाओं को जन्म के बजाय कर्म आधारित प्रतिष्ठा पाने की नसीहत दे डाली थी, लेकिन वे खुद उसी कुलीनतंत्रीय जन्मना सत्ता प्राप्ति के बूते आपातकाल में अधिनायकवादी व्यवस्था स्थापित करके अपने बेटे संजय को ‘राजशाही’ सौंपने के फेर में पड़ी थीं। वंश परंपरा के आधार पर कांग्रेस और सरकार पर कब्जा करने वाली इंदिरा गांधी अपने पिता जवाहरलाल नेहरू की भांति वामपंथी अधिनायकवाद की अवधारणा से प्रभावित थीं। आपातकाल के दौरान सिडनी मार्निंग हेराल्ड ने भी टिप्पणी की थी, ‘समाजवाद को कामयाब बनाने के लिए नेहरू की बेटी ने सोवियत संघ की तरह राजनीतिक तानाशाही थोप दी है।’

आपातकाल के दौर में संविधान की धारा 19 को स्थगित कर धारा 14, 21 और 22 के तहत प्राप्त आम भारतीयों के अधिकारों को निरस्त कर दिया गया। सरकार के एक लाख से अधिक आलोचकों को मीसा एक्ट के तहत जेल में डाल दिया गया और उनका पुलिसिया-प्रशासनिक उत्पीड़न हुआ। 25,000 सरकारी कर्मचारियों को जबरन सेवामुक्त किया गया। नगरों के सौंदर्यीकरण के नाम पर 4000 गरीब बस्तियां उजाड़ दी गईं। जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 को संविधान के 39वें संशोधन के नाम पर बदल दिया गया। गुजरात एवं तमिलनाडु की गैरकांग्रेसी सरकारों को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों के आधार पर 42वें संविधान संशोधन के जरिये 59 प्रावधानों को परिवर्तित करने के साथ ही इन्हें न्यायपालिका की समीक्षात्मक शक्ति के बाहर रखा गया।

प्रख्यात संविधानविद् आचार्य डी. डी. बसु कहते हैं, ‘‘यहां 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा कांग्रेस सरकार ने संघ और राज्य के विधान मंडलों में अपने एकाधिकारी नियंत्रण का लाभ उठाकर संविधान में विस्तृत परिवर्तन किए लेकिन कुछ परिवर्तनों से उसकी नींव ही डगमगा गई। इस संशोधन अधिनियम का प्रभाव इतना विस्तृत और प्रचण्ड था कि उसे संशोधन के स्थान पर पुनरीक्षण कहना अधिक सही होगा।’’ साथ ही न्यायपालिका की आंतरिक संरचना में राजनीतिक हस्ताक्षेप की कुत्सित परंपरा प्रारम्भ की गई और ‘अपने अनुकूल’ न्यायाधीशों को आगे कर कांग्रेस सत्ता के प्रति समर्पित न्यायपालिका की मांग की गई। और ऐसे ना जाने कितने दुष्कर्म संविधान की मर्यादा के विरुद्ध किये गये।

भावी पीढ़ियां होंगी जागरूक

यह सब हुआ तो इसकी एवज में एक प्रतीकात्मक दिवस की घोषणा किया जाना, जो कि इन कुकृत्यों का प्रतीक बनकर वर्तमान एवं भावी पीढ़ियों को व्यक्ति पूजन की परम्परा, वंशवाद को स्वीकारने जैसे अलोकतान्त्रिक तरीकों को प्रश्रय देने के दुष्परिणामों से परिचित कराए, उससे सीख ले तो इससे पक्ष या विपक्ष, किसी को भी समस्या क्यों होनी चाहिए?

यह दिन भारतीयों को उनके संवैधानिक अधिकारों की महत्ता से परिचित कराएगा, ताकि भावी पीढ़ियां यह जान सकें कि उन्हें इस लोकतंत्र के स्वतंत्र-उन्मुक्त वातावरण में निर्द्वन्द्व जीने, श्वास लेने का अधिकार दिलाने के लिए उनके पूर्वजों ने कितनी तकलीफें सहीं, कितनी यातनाएं झेलीं, कितने प्रताड़ित और अपमानित हुए। संभवत: संविधान हत्या दिवस की प्रतिवर्ष प्रतीकात्मक बरसी भविष्य में संविधान संरक्षण का आधार बनेगी। इस दृष्टिकोण से तो यह दिवस बहुत पहले घोषित हो जाना चाहिए था।

लेकिन संविधान हत्या दिवस की घोषणा के विरोध में विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस उत्तेजित है, क्रोधित है। इसका विरोध करने वालों, इसे ‘पश्चिमी अवधारणा’, ‘दकियानुसी’ और ‘रूढ़िवादी’ कहकर कोसने वालों, सनातन संस्कृति विरोधी और तथाकथित आधुनिकता की उपासक जमात को संविधान हत्या दिवस का तो नैतिक रूप से स्वागत करना चाहिए। साथ ही विपक्ष को इस ‘पश्चिमी परंपरा’ से इसलिए भी परेशानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि विपक्ष के वर्तमान सदन के नेता जैविक रूप से ‘अर्ध विदेशी’ (आधे भारतीय और आधे इतालवी) हैं और उनकी जन्मदात्री, कांग्रेसियों की ‘आलाकमान’ सम्पूर्ण रूप से विदेशी (इतालवी) हैं। फिर दिक्कत कहां है?

इंदिरा गांधी के अधिनायकवादी कालखंड में संविधान कमजोर था, कमोबेश उसकी हत्या ना हुई हो, लेकिन नेहरू की बेटी ने उसे मरणासन्न अवस्था में तो पहुंचा ही दिया था। इस विरोध के पीछे कांग्रेस की कई और समस्याएं हैं। आजाद भारत के नागरिकों को शिक्षण संस्थानों से लेकर अन्य संस्थाओं के माध्यम से ‘नेहरू महान, इंदिरा गांधी देवी का अवतार, पूरा वंश देवतुल्य’ जैसे भ्रामक नारों के ‘यूटोपिया’ के बौद्धिक परिवेश का बन्दी बनाए रखा गया। इस भ्रम प्रसार की निकृष्टता इस स्तर की है कि नेहरू के कुंठित एवं खंडित व्यक्तित्व को ‘लाइट आफ एशिया’ सिद्ध करने के लिए वामपंथ एवं छद्म गांधीवादी शीर्ष दर्जे के बौद्धिक छिछोरेपन केस्तर पर उतर आए ताकि पारितोषिक के रूप में विश्वविद्यालयों, साहित्यिक संस्थानों में पद तथा सरकारी फेलोशिप के माध्यम से विदेश प्रवास जैसे सुविधाएं प्राप्त की जा सकें। इन बिकाऊ ‘बौद्धिक जीवों’ और चरण चाटुकारों को वैचारिक सुविधा बाद में इंदिरा से राहुल गांधी तक वंशवादी भक्ति के रूप में हासिल रही है। इंदिरा गांधी के आपातकालीन कुकृत्यों को ‘अनुशासन पर्व’ एवं ‘जेपी की अव्यवस्था के प्रयास का प्रतिकार’ बताने से लेकर एंटोनियो माईनो (परिवर्तित नाम सोनिया गांधी) को ‘त्यागी नारी’ और राहुल गांधी जैसे वैचारिक रूप से अपरिपक्व व्यक्ति में ‘राष्ट्रीय नायक’ तलाशने के बौद्धिक षड्यंत्र इसी के उदाहरण हैं।

यही कारण है कि देश के सार्वजनिक वैचारिक वातावरण में नेहरू-गांधी परिवार की आलोचना को बौद्धिक पाप समझा जाता रहा। लेकिन 2014 में जनता के राजनीतिक नवोन्मेष ने इस बौद्धिक अन्याय का भ्रम भी तोड़ दिया। इस अधिनायकवादी, सनातन धर्म विरोधी, छद्म पंथनिरपेक्ष एवं राजनीतिक षड्यंत्रों के रचयिता परिवार के कुकर्मों की ना सिर्फ कलई खुलने लगी बल्कि जनता की लानत-मलामत भी मिलने लगी। पिछले एक दशक में ‘महानता’ के छद्म आभामण्डल के ढहने के पश्चात अब यह परिवार अपनी प्रतिभाहीन पीढ़ी के राहुल गांधी, प्रियंका वाड्रा के माध्यम से अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता को कायम रखने की अनवरत कोशिशों में लगा है। जातिगत जनगणना, पीडीए फार्मूला और संविधान की रक्षा जैसी नारेबाजी उसी की आपाधापी का परिणाम है।

आपातकाल से ठीक पहले जयप्रकाश नारायण की एक सभा पर लाठीचार्ज करती इंदिरा की पुलिस (फाइल चित्र)

प्रेमचंद लिखते हैं, ‘कोई अन्याय केवल इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि लोग उसे परंपरा से सहते आये हैं।’ क्या इसी के अनुरूप पिछले सात दशक से गढ़ी गई नेहरू वंश की ‘महानता’ पर केवल इसलिए प्रश्नचिन्ह नहीं लगाना चाहिए कि इनके पास परम्परागत या कहें जन्मजात विशिष्टता का आवरण है? इस तथ्य का निर्धारण अब आम जन की विश्लेषण क्षमता के हवाले कर देना चाहिए ताकि वह इतिहास के तर्क के बूते अपना दृष्टिकोण सुनिश्चित कर सके। सुखद बात है कि वर्तमान में ऐसा हो भी रहा है। अब कांग्रेस के अन्य आरोपों की भी बात कर लेते हैं। जैसे, सरकार का यह निर्णय राजनीति से प्रेरित है। अगर ऐसा है तो, कहना पड़ेगा कि राजनीति तो सर्वत्र है।

कांग्रेस का संविधान की रक्षा और भाजपा द्वारा संविधान को बदलने और मिटाने का आरोप भी तो राजनीति से ही प्रेरित है। तब यदि कांग्रेस भाजपानीत सरकार पर अनर्गल आरोपों के साथ राजनीतिक घात कर सकती है तो फिर भाजपा भी उसके आरोपों पर प्रतिघात कर सकती है। यानी पिछले दो साल के दौरान चुनाव तक कांग्रेस जो विपक्ष की भूमिका में कर रही थी अब वही सत्ता पक्ष वाले कर रहे हैं। फिर राजनीतिक प्रत्युत्तर पर कांग्रेस को इतनी बेचैनी क्यों हो रही है। दूसरे, कांग्रेस भाजपानीत सरकार के इस निर्णय को ‘हिपोक्रेसी’ कह रही है। उसका आक्षेप है कि आज भाजपानीत सरकार में तानाशाही है वगैरह-वगैरह। दरअसल इस आरोप को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए, क्योंकि उसके आरोप में ही इसका उत्तर भी है। यदि वर्तमान भाजपानीत सरकार इंदिरा गांधी की भांति सर्वसत्तावादी होती तो ये सारे विपक्षी अब तक जेलों में होते, न कि अपने वातानुकूलित घर-दफ़्तरों से बैठकर सरकार के लिए ऊलजलूल बोल रहे होते।

सच सामने आने का भय

कांग्रेस संविधान हत्या दिवस मनाने की उद्घोषणा का विरोध कर रही है क्योंकि यह उसके संविधान संरक्षण के फर्जी दावों के नग्न यथार्थ के प्रकटीकरण का माध्यम बनने के साथ ही उसके झूठे और भ्रामक प्रचार की भित्ति के ढह रहे महानता के आवरण पर एक करारी चोट होगी। लेकिन सपा, राजद जैसे अन्य दलों के विरोध को समझना कठिन है, क्योंकि उनका राजनीतिक अस्तित्व ही आपातकालीन संघर्ष की विभीषिकापूर्ण वेदी पर निर्मित है। इनकी वैचारिकी का धरातल गैर-कांग्रेसवाद रहा है जिसका ध्येय लोकतंत्र को कांग्रेस के एकाधिकार से संरक्षित करना था।

परन्तु इस देश की राजनीति में वैचारिकहीनता एक बड़ा संकट बन गई है जहां समर्थन और विरोध की मर्यादा ही निर्धारित नहीं है। इतिहास के प्रवाह का व्यक्ति या घटना को केंद्र में रखकर मूल्यांकन करने का प्रयास एक सामान्य प्रवृत्ति है। लेकिन इसके बीच जिस मूल तर्क को केन्द्र में रखना चाहिए, वह अकसर दोयम दर्जे का मसला हो जाता है। उसके पार्श्व में स्थित इस वैचारिक प्रवाह को अनदेखा कर दिया जाता है। अगर आपातकाल विरोधी दिवस की घोषणा अराजकतावाद है, जैसा कि विपक्ष का आरोप है, तो अखिलेश, तेजस्वी यादव जैसे वंशवादी नेताओं को यह बताना चाहिए कि क्या मुलायम सिंह और लालू यादव अराजकतावादी रहे हैं?

खैर, जरूरी नहीं है कि जनसाधारण इतिहास को ग्रंथों से जाने। अतीत के संबंध में आम जनता के मस्तिष्क में एक अवधारणा निरूपित रहती है और यह अवधारणा सत्य हो अथवा मिथ्या, उसके राजनीतिक-सामाजिक विचारों को निर्धारित करती है। असल में संविधान हत्या दिवस एक राजनीतिक परजीवी परिवार के वास्तविक चरित्र से परिचित कराएगा, यह आने वाली पीढ़ियों को बताएगा कि व्यक्ति पूजन की मानसिक विकृति किस प्रकार उनकी स्वतंत्रता, नैसर्गिक अधिकारों एवं मानवीय गरिमा को आघात पहुंचा सकती है।

डेवि के अनुसार, ‘अतीत पर निष्ठा अतीत के लिए नहीं, अपितु सुरक्षित एवं सुसम्पन्न वर्तमान के लिए इस उद्देश्य से की जाती है कि यह सुखद एवं सुन्दर भविष्य का निर्माण करेगा।’ आपातकाल के दौर में उभरी तानाशाही प्रवृत्ति के अनुभव को राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक अवसाद एवं संवैधानिक अस्तित्व के संकटपूर्ण कालखंड के रूप में प्रतिवर्ष याद करने से नई पीढ़ी को शिक्षित एवं जागरूक किया जा सकेगा। 25 जून का दिन संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाने की घोषणा अभिनन्दनीय है। विपक्ष को इसका स्वागत कर आम जनता को यह संदेश देना चाहिए कि वह सकारात्मक राजनीति करना चाहता है न कि हर बात का विरोध करने वाली नकारात्मक राजनीति।

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