23 जुलाई 1856 को जन्मे बाल गंगाधर तिलक उन शुरुआती राष्ट्रवादी नेताओं में से एक थे, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में आधुनिक विचारधाराओं और रणनीतियों को शामिल करके स्वतंत्रता संग्राम की दिशा बदल दी। तिलक का जन्म तो एक सुसंस्कृत मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में महाराष्ट्र के बॉम्बे (मुम्बई) में हुआ था लेकिन उनका पालन-पोषण अरब सागर के तट पर चिक्कन नामक एक गांव में हुआ था, जो अब महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले में है। बाल गंगाधर तिलक का पूरा नाम केशव गंगाधर तिलक था, जो एक विद्वान, गणितज्ञ, दार्शनिक, उत्साही राष्ट्रवादी, स्वदेशी एवं स्वराज के परम उपासक, शिक्षक और पत्रकार होने के साथ-साथ एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी भी थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी स्वयं की चुनौती को राष्ट्रीय आंदोलन में परिवर्तित कर भारत की स्वतंत्रता की नींव रखने में बड़ी मदद की थी।
हिंदू प्रतीकवाद और मराठा इतिहास को आकर्षित करने वाली उनकी सक्रियता ने लाखों लोगों को उत्साहित किया, जिसके कारण वे जीवन पर्यन्त ब्रिटिश सरकार की आंखों में खटकते रहे। राजद्रोह के लिए उनके खिलाफ मुकद्दमा भी चलाया गया, जिससे उनकी लोकप्रियता कई गुना बढ़ गई और उन्हें ‘लोकमान्य’ (लोगों द्वारा स्वीकार्य) की उपाधि मिली। स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण योगदान के कारण महात्मा गांधी द्वारा उन्हें ‘आधुनिक भारत के निर्माता’ और जवाहरलाल नेहरू द्वारा ‘भारतीय क्रांति के जनक’ की उपाधि भी दी गई। भारतीय संस्कृति और सभ्यता को कमतर समझने के लिए तिलक ब्रिटिश सरकार को प्रायः कोसा करते थे। उन्होंने 20 अक्तूबर 1893 को पुणे स्थित अपने केसरीवाड़ा नामक निवास से दसदिवसीय गणेशोत्सव का शुभारभ किया था, जो बहुत जल्द राष्ट्रीय एकता का पर्व बन गया।
बाल गंगाधर तिलक की शिक्षा पूना के डेक्कन कॉलेज में हुई थी, जहां उन्होंने 1876 में गणित और संस्कृत में स्नातक की डिग्री हासिल की थी। उसके बाद उन्होंने कानून की पढ़ाई की और 1879 में बॉम्बे विश्वविद्यालय से अपनी डिग्री प्राप्त की। कानून की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने पूना के एक निजी स्कूल में गणित पढ़ाने का निर्णय लिया और यही स्कूल उनके राजनीतिक जीवन का प्रमुख आधार बना। कुछ समय बाद उन्होंने एक संस्था (डेक्कन एजुकेशन सोसायटी) की स्थापना की और आम जनता को विशेष रूप से अंग्रेजी भाषा में शिक्षित करने के उद्देश्य से 1884 में उसे एक विश्वविद्यालय कॉलेज में विकसित किया।
दरअसल उदारवादी और लोकतांत्रिक आदर्शों के प्रसार के लिए वह और उनके सहयोगी अंग्रेजी भाषा को एक मजबूत ताकत मानते थे। तिलक संस्था के आजीवन सदस्यों से निस्वार्थ सेवा के आदर्शों का पालन करने की अपेक्षा रखते थे लेकिन जब उन्हें पता चला कि संस्था के कुछ आजीवन सदस्य बाहरी कमाई को अपने पास रख रहे हैं तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया और उसके बाद लोगों की राजनीतिक चेतना को जगाने के लिए दो साप्ताहिक समाचारपत्रों (मराठी में ‘केसरी’ और अंग्रेजी में ‘द मराठा’) का प्रकाशन शुरू कर दिया। इन समाचारपत्रों का संपादन वे स्वयं किया करते थे। बाल गंगाधर तिलक अपने उन दोनों समाचारपत्रों के माध्यम से ब्रिटिश शासन और उन उदारवादी राष्ट्रवादियों की कटु आलोचनाओं के लिए व्यापक रूप से विख्यात हुए, जो पश्चिमी तर्ज पर सामाजिक सुधारों और संवैधानिक तर्ज पर राजनीतिक सुधारों की वकालत करते थे।
तिलक की गतिविधियों ने भारतीय जनमानस को जागृत करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई और इसी कारण वे सीधे-सीधे ब्रिटिश सरकार के साथ टकराव में सामने आ गए। यही कारण था कि ब्रिटिश सरकार ने उन पर राजद्रोह का मुकद्दमा चलाया और 1897 में उन्हें जेल भेज दिया गया। राजद्रोह के मुकद्दमे और सजा के बाद ही वे लोगों के बीच और ज्यादा लोकप्रिय हो गए और उसी मुकद्दमे तथा सजा के चलते उन्हें ‘लोकमान्य’ की उपाधि मिली। करीब 18 महीने की सजा काटने के बाद उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया।
1905 में जब भारत के वायसराय लॉर्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन किया तो तिलक ने विभाजन को रद्द करने की बंगाली मांग का पुरजोर समर्थन किया और ब्रिटिश सामानों के बहिष्कार की वकालत की। बहुत ही कम समय में यह आंदोलन पूरे देश में फैल गया। तिलक को ब्रिटिश सामा्रज्यवादी ‘भारतीय अशांति का जनक’ कहते थे जबकि भारतवासी उन्हें अपने स्वतंत्रता संग्राम का जनक मानते थे, जो भारत में स्वराज अथवा स्व-शासन के लिए खड़े होने वाले पहले नेताओं में से एक थे। उनके राजनीतिक जीवन में एक बार ब्रिटिश लेखक सर वैलेंटाइन चिरोल ने उन्हें ‘भारतीय अशांति का जनक’ कहा था।
उदारवादी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए तिलक का दृष्टिकोण एक मजबूत चुनौती था, जो छोटे सुधारों के लिए सरकार के समक्ष ‘वफादार’ प्रतिनिधित्व करने में विश्वास करती थी जबकि तिलक का मानना था कि सामाजिक सुधार केवल स्वतंत्रता के लिए राजनीतिक संघर्ष से ऊर्जा को हटा देगा। तिलक का लक्ष्य स्वराज्य अथवा स्वतंत्रता था, न कि छोटे-छोटे सुधार, इसीलिए उन्होंने कांग्रेस पार्टी को अपने उग्रवादी कार्यक्रम को अपनाने के लिए मनाने का प्रयास किया।
1907 में सूरत में पार्टी की एक बैठक के दौरान पार्टी के कुछ प्रमुख उदारवादी नेताओं से उनका इस मुद्दे पर टकराव हुआ, जिसके चलते पार्टी में विभाजन हो गया। राष्ट्रवादी ताकतों में विभाजन का लाभ उठाते हुए ब्रिटिश सरकार ने तिलक पर एक फिर राजद्रोह और आतंकवाद को भड़काने के आरोप में मुकद्दमा चलाया और इस बार 6 वर्ष की जेल की सजा काटने के लिए उन्हें मांडले, बर्मा (म्यांमार) भेज दिया गया। मांडले जेल में रहते हुए ही उन्होंने अपनी महान कृति ‘द ग्रेट इंडियन’ लिखने का कार्य शुरू कर दिया। तिलक ने वेदों पर ‘गीता रहस्य’ और ‘आर्कटिक होम’ जैसी चर्चित पुस्तकें भी लिखी।
1914 में प्रथम विश्व युद्ध की पूर्व संध्या पर जेल से रिहा होने के बाद तिलक फिर से राजनीति में सक्रिय हो गए। उन्होंने 28 अप्रैल 1916 को बेलगाम (पूना) में ‘होमरूल लीग’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य स्वयं की सरकार को प्राप्त करना और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी के साथ सम्मिलित करना था। होम रूल आंदोलन का उद्देश्य कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की तर्ज पर ब्रिटिश साम्राज्य के तहत भारत में गृह शासन या भारत के प्रभुत्व का दर्जा हासिल कराना था। होम रूल आंदोलन के दौरान ही लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने लोकप्रिय नारा दिया ‘‘स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा।’
यह आंदोलन 1916 से 1918 के बीच करीब दो वर्ष तक चला और माना जाता है कि इसने अंग्रेजी बोलने वाले शिक्षित उच्च वर्ग के भारतीयों के लिए एनी बेसेंट और बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन के लिए मंच तैयार किया। 1920 में ऑल इंडिया होम रूल लीग ने अपना नाम बदलकर ‘स्वराज्य सभा’ कर लिया। तिलक उन पहले लोगों में से एक थे, जिन्होंने कहा था कि भारतीयों को विदेशी शासन के साथ सहयोग करना बंद कर देना चाहिए लेकिन उन्होंने सदैव इस बात से इन्कार किया कि उन्होंने कभी भी हिंसा के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया था। 1 अगस्त 1920 को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले बाल गंगाधर तिलक का निधन हो गया।
(लेखिका शिक्षिका हैं)
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