वामपंथ का वैचारिक वध जरूरी
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वामपंथ का वैचारिक वध जरूरी

हमारे देश में आतंकवाद से ज्यादा नक्सली हिंसा में लोगों की मौत हुई है। लेकिन हैरानी की बात है कि इसके बाद भी नक्सलवाद के खूनी खेल और उसके खूनी अदृश्य खिलाड़ियों पर उतनी चर्चा नहीं होती है जितनी होनी चाहिए।

by WEB DESK
Jul 23, 2024, 05:14 pm IST
in विश्लेषण, छत्तीसगढ़
प्रखर श्रीवास्तव,हर्षवर्धन त्रिपाठी

प्रखर श्रीवास्तव,हर्षवर्धन त्रिपाठी

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प्रखर श्रीवास्तव

इस देश में जब आतंकवाद ठीक से पनपा भी नहीं था, उससे कहीं पहले भारत के कई इलाकों में नक्सलवाद के खूनी राक्षस ने सिर उठा लिया था। आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि हमारे देश में आतंकवाद से ज्यादा नक्सली हिंसा में लोगों की मौत हुई है। लेकिन हैरानी की बात है कि इसके बाद भी नक्सलवाद के खूनी खेल और उसके खूनी अदृश्य खिलाड़ियों पर उतनी चर्चा नहीं होती है जितनी होनी चाहिए। दरअसल इस देश में विचार-विमर्श का सारा स्वयंभू ठेका वामपंथी विचारकों ने ले रखा है और वो नहीं चाहते कि इस देश में खुलकर नक्सलवाद की समस्या पर बात हो, क्योंकि बात होगी तो उनकी खूनी वामपंथी विचारधारा कटघरे में खड़ी होगी।

एक कथित मॉब लिंचिग की घटना इस देश में हफ्तों तक सुर्खियों में रहती है, लेकिन नक्सली हमले में बलिदान हुए सुरक्षाबलों के जवानों की खबरों को प्रमुखता नहीं दी जाती है। अबूझमाड़ के हरे जंगल हों या दिल्ली-मुंबई के कंक्रीट के जंगल, दोनों ही नक्सलियों के एजेंडे में हैं। नक्सलियों की सोच को माओ-त्से-तुंग के इस विचार से समझा जा सकता है, माओ ने कहा था कि ‘‘क्रांति का अंतिम लक्ष्य शहरों पर कब्जा करना है जो दुश्मन का मुख्य आधार होते हैं और इस लक्ष्य को तब तक प्राप्त नहीं किया जा सकता जबतक कि शहरों में पर्याप्त काम न हो’’। …इसलिए अगर नक्सलवाद के दस सिरों वाले रावण को खत्म करना है तो उसके उन नौ सिरों का भी वैचारिक वध करना होगा, जो शहरों में बैठे हुए हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और चर्चित पुस्तक ‘हे राम’ के रचयिता हैं)

नक्सलवाद पर हो आखिरी चोट

हर्षवर्धन त्रिपाठी
कांग्रेस की सरकारों में नक्सलवाद को एक वैचारिक सरोकारी आंदोलन से निकले कुछ अतिवादियों का भटका जाना मानकर लंबे समय तक नीति बनाई जाती रही। इसका परिणाम यह रहा कि देश के लगभग 40 प्रतिशत भूभाग पर कांग्रेस की सरकारों में यूपीए-1 और यूपीए-2 तक नक्सलवादी भारत के जनजातीय समाज का जीवन तबाह करते रहे। यूपीए-1 और यूपीए-2, दोनों सरकारों में यही द्वंद्व रहा कि, नक्सलवाद को आतंकवाद मानना है या नहीं।

सरकारी शब्दावली में भी हमेशा ‘लेफ्ट विंग एक्स्ट्रीमिज्म’ कहा गया। इसका दुष्परिणाम यह रहा कि, देश के लगभग एक लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में जनजातीय इलाकों और उससे सटे शहरी क्षेत्रों तक नक्सलवाद का नासूर बढ़ता चला गया। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य नक्सलवाद के नासूर के की वजह से कभी अपना सही हिस्सा हासिल ही नहीं कर सके। हालांकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सदन में देश को विश्वास दिलाया है कि, अगले दो से तीन वर्ष में नक्सलवाद को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाएगा। राज्य में भाजपा की सरकार आने के बाद अब तक डेढ़ सौ से अधिक नक्सलवादी मारे जा चुके हैं और हजारों जनजाति समुदाय के लोग नक्सलवाद के चंगुल से मुक्त होकर मुख्य धारा में आकर आत्मसमर्पण भी कर चुके हैं।

नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद लगातार नक्सल आतंक प्रभावित क्षेत्रों में सड़क,अस्पताल के साथ ही दूरसंचार सुविधाएं बेहतर करने के कार्य हो रहे हैं। उसका परिणाम भी अब दिखने लगा है। सुकमा के चितलनार क्षेत्र में लगभग दशक बाद भगवान राम का मंदिर श्रद्धालुओं के लिए खुला है। यह मंदिर नक्सलियों ने दो दशक पहले बंद कर दिया था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, टिप्पणीकार और राजनीतिक विश्लेषक हैंं)

Topics: लेफ्ट विंग एक्स्ट्रीमिज्मक्सलवादी भारत के जनजातीय समाजNarendra Modi's governmentLeft wing extremismExtremist tribal society of Indiaनरेंद्र मोदी की सरकार
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