बांग्लादेश में इन दिनों हंगामा मचा हुआ है और सरकार एवं आरक्षण विरोधियों के मध्य संग्राम छिड़ा हुआ है। इस संग्राम में सैकड़ों लोग मारे गए हैं और अभी तक बांग्लादेश की सड़कों पर हंगामा जारी है। टैंक सड़कों पर उतरे हुए हैं और विद्यार्थी सड़कों पर हैं। मगर इन सबमें जो सबसे गंभीर बात उभर कर आई है, वह है रजाकारों को लेकर नारे लगाना।
दरअसल बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने एक बात कही थी कि आरक्षण स्वतंत्रता सेनानियों को नहीं तो क्या रजाकारों को मिलेगा? और यह बात कहते ही हँगामों को एक नया रूप मिल गया। और वहाँ पर नारे लगने लगे कि ‘तुई के? अमी के? रजाकार, रजाकार… की बोलचे, की बोलचे, सैराचार, सैराचार’ वहाँ पर शेख हसीना को तानाशाह कहा जा रहा है और उनकी तुलना मे रजाकारों को कहीं न कहीं अच्छा बताया जा रहा है। अब प्रश्न उठता है कि ये रजाकार कौन थे? क्योंकि बांग्लादेश में रजाकार बहुत अपमानजनक शब्द माना जाता रहा है, हाँ, पाकिस्तान के लिए यह शब्द सम्मानजनक है क्योंकि भारत के रजाकार हों या फिर बांग्लादेश के रजाकार, दोनों ही सेनाओं का उद्देश्य पाकिस्तान को समर्थन करना था। फिर उसके लिए कोई भी कदम क्यों न उठाना पड़े, कितनी भी हिंसा क्यों न करनी पड़े? महिलाओं के साथ कितना भी अन्याय क्यों न करना पड़े?
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कौन थे रजाकार और क्या किया था बांग्लादेशी महिलाओं के साथ?
आज जब असंख्य विद्यार्थी ‘अमीके रजाकार’ का नारा लगा रहे हैं, तो यह देखना बहुत ही आवश्यक है कि आखिर रजाकार कौन थे और बांग्लादेश में उन्होनें महिलाओं के साथ क्या किया था या फिर कहें कि बांग्लादेश के साथ क्या किया था?
हर कोई जानता है कि बांग्लादेश पहले पाकिस्तान का ही अंग था और पाकिस्तान ने जिस प्रकार का भेदभाव अपने पूर्वी भाग अर्थात बांग्लादेश के साथ किया था, उसके कारण वहाँ पर असंतोष की लहर उठ खड़ी हुई थी और कैसे भाषाई आधार पर बांग्ला बोलने वालों को नीचा समझा जाता था। जब जिन्ना ने उर्दू को आधिकारिक भाषा घोषित किया था, तभी से भाषाई आधार पर बांग्लादेश में असंतोष उत्पन्न हो गया था। मगर उसके बाद भी लगातार पूर्वी पाकिस्तान अर्थात वर्तमान बांग्लादेश के साथ भेदभाव परक स्वभाव पाकिस्तान की तरफ से होता रहा था, जिसके चलते वहाँ पर असंतोष बढ़ता जा रहा था। वर्ष 1971 में भोला साइक्लोन ने पूर्वी पाकिस्तान में तबाही मचाई थी और कहा जाता है कि इसमें लाखों लोग मारे गए थे। परंतु पाकिस्तान की सरकार ने पूर्वी पाकिस्तान को वह राहत आदि नहीं दी थी, जो मिलनी चाहिए थी और इससे पूर्वी पाकिस्तान में और भी क्रोध भर गया था।
उसके बाद वर्ष 1971 के आम चुनावों में शेख मुजीबुर रहमान की आवामी लीग ने विजय पाई और उसने 160 सीटें जीती थीं और स्वायत्ता की मांग की। मगर ज़ुल्फिकर अली भुट्टो ने इस जीत को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और वहाँ पर पाकिस्तानी सेना दमन के लिए भेजी। पाकिस्तानी सेना का साथ रजाकारों ने दिया था, जो नहीं चाहते थे कि बांग्लादेश अलग देश बने।
पाकिस्तानी सेना का नेतृत्व टिक्का खान ने किया था और टिक्का खान को रावलपिंडी का हीरो कहा जाता था। टिक्का खान ने आजादी के लिए प्रदर्शन कर रहे मुक्ति वाहिनी मोर्चे को नियंत्रण में लाने के लिए तीन तरह की सेना बनाई। अल बद्र, अल शम्स और रजाकार। कहा जाता है कि रजाकारों मे विभाजन के समय बिहार से बांग्लादेश जाने वाले उर्दू भाषी मुस्लिम सम्मिलित थे और जो यह नहीं चाहते थे कि पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान अलग होकर बांग्लादेश बने।
देखते ही देखते हजारों की संख्या में रजाकार जुड़ते गए और फिर उन्होंने जो किया वह किताबों में और बांग्लादेश के इतिहास में दर्ज है। 1971 के इस संग्राम में लगभग 3 मिलियन लोगों की मौत हुई थी और पाकिस्तानी सेना ने लगभग 2 से 4 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार किया था। आँकड़े बताते हैं कि जिन महिलाओं के साथ बलात्कार और हत्या हुई, उनमें हिन्दू महिलाओं की संख्या अधिक थी।
परंतु आँकड़े यह भी बताते हैं कि ऐसा बंगाली मुस्लिम महिलाओं के साथ भी बहुत अधिक संख्या में हुआ था। हजारों की संख्या में जो रजाकार थे उन्होनें पाकिस्तानी सेना का साथ दिया था और बांग्लादेश की मांग कर रहे बंगाली लोगों पर असंख्य अत्याचार किए थे। पहले से ही पाकिस्तानी सोच रखने बंगाल और बिहार के कट्टरपंथी मुस्लिमों से मिलकर बने इस समूह ने पाकिस्तानी सेना की सहायता छापे मारने में, बड़ी संख्या में महिलाओं के साथ बलात्कार करने में और हत्याओं में, लूट में आगजनी में की थी। रजाकारों ने पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर बांग्लादेशी नागरिकों के साथ जो किया, उसे सुनकर आज भी लोग दहल जाएंगे, फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि रजाकारों का नाम लेकर आंदोलन हो रहे हैं?
क्या कोई भी समूह ऐसा कर सकता है कि अपने ही देश के लाखों नागरिकों पर किए गए अत्याचारों को भुला दे और महिलाओं के साथ हुई बर्बरता को भुला दे और खुद को वही समूह बताने लगे? कितना भी रुष्ट क्यों न हो जाए मगर क्या “अमी रजाकर” कहकर नारे लगा सकता है?
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क्या इसकी जड़ उस वाक्य में है, जिसे पश्चिमी पाकिस्तानी अर्थात पाकिस्तानी सेना जब बांग्लादेश छोड़कर गई थी, तब यह कहती हुई गई थी कि “हम जा रहे हैं, लेकिन बीज बोकर जा रहे हैं!” कलकत्ता में एक अखबार में कालम्निस्ट रही अमिता मलिक ने अपनी पुस्तक The Year of the Vulture में यह वाक्य लिखा है। रजाकारों के विषय में उन्होनें लिखा है कि सीमा पर और शरणार्थी शिविरों पर पाकिस्तानी सेना और बंगाल और बिहार के कट्टरपंथी मुस्लिमों रजाकारों की क्रूरता के किस्से होते थे कि कैसे उन्होनें भारत आने वाले लोगों के साथ लूटपाट की, लड़कियों को अलग किया। बच्चों को उनकी माताओं से अलग किया, पत्नियों को उनके पतियों से अलग किया और महिलाओं के साथ उन्होनें जो किया था उसे सुनकर दया और शर्म दोनों से ही वे सुन्न हो गई थीं।
उन्होनें रजाकारों के द्वारा बंगालियों पर किए गए तमाम अत्याचार लिखे हैं, कि कैसे रजाकार पाकिस्तानी सेना को सुंदर लड़कियों के बारे में सारी जानकारियाँ देते थे, और फिर कुछ अधिकारी और आदमी एक जीप मे जाते थे और लड़कियों की मांग करते थे। और कितनी ही बार परिवार को बचाने के लिए लड़कियों की कुर्बानी परिवारों ने दे दी थी।
बांग्लादेश बनाने में स्वतंत्रता सेनानियों की भूमिका और उनका विरोध करते हुए आम बांग्लादेशियों के प्रति रजाकारों की भूमिका पूरी तरह से स्पष्ट है, और आँकड़े उस भयावह स्थिति को बताते हैं, जिनका सामना करके बांग्लादेश ने भाषाई आधार पर अपनी स्वतंत्रता पाई थी, वही स्वतंत्र पहचान जिसका विरोध करने के लिए रजाकारों ने महिलाओं पर हर अत्याचार की सीमा पार कर दी थी। ऐसे में वर्तमान में आंदोलनकारियों का खुद को रजाकार कहना क्या तमाम उन लोगों का अपमान नहीं है जिन्होनें अपने प्राण रजाकारों के हाथों गँवाए थे?
या फिर यह भी कहा जा सकता है कि बांग्लादेश में विमर्श मे शत्रु अब हिन्दू और भारत हो गए हैं तो ऐसे में रजाकारों के द्वारा किए गए अत्याचार वहाँ के युवाओं को अत्याचार नहीं लग रहे हैं और चूंकि शेख हसीना, की भारत से नजदीकी देखी जा सकती है, तो वहाँ के विमर्श में वह तानाशाह के रूप में उभर आई हैं इसलिए रजाकार कहने में भी युवा शर्म का अनुभव नहीं कर रहे हैं।
या यह कहा जाए कि रजाकारों के विषय में या पाकिस्तानी सेना के द्वारा बांग्लादेशी नागरिकों पर किए गए अत्याचारों को युवाओं को न बताने का परिणाम है “रजाकारों” के साथ युवाओं का खुद को संबद्ध करना या फिर भाषाई पहचान पर मजहबी पहचान के अतिक्रमण का परिणाम है यह?
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