व्यक्ति-निष्ठा के स्थान पर विशुद्ध तत्त्व-निष्ठा ही जनमन में जाग्रत करने के विशेष उद्देश्य से इस तंत्र (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) की रचना की गई थी। इसमें सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि संगठन के गुरुत्व के स्थान पर स्वत: की अथवा किसी व्यक्ति विशेष की प्रतिष्ठापना न करते हुए पवित्र भगवा ध्वज को ही उस दिव्य सिंहासन पर विराजित किया था। इसके लिए यह पद्धति बिल्कुल प्रारंभ से डाली गई थी कि जिस संघ स्थान पर स्वयंसेवक रोज एकत्र होते हैं, वहां प्रारंभ में ध्वज फहराकर उसे अनुशासन और आदर से प्रणाम कर उसकी छत्रछाया और सान्निध्य में ही सब कार्यक्रम किए जाएं।
स्वयंसेवकों में तत्वनिष्ठा दृढ़ करने के प्रयत्नों के साथ-साथ ही डॉक्टर जी के सामने यह भी प्रश्न था कि दिन-प्रतिदिन बढ़ने वाले संगठन के लिए आवश्यक धन कैसे जमा किया जाए। सौभाग्य से उनके मिलनसार तथा लोकसंग्राहक स्वभाव के कारण मांगने पर मित्रों द्वारा तुरंत पैसे मिल जाते थे एवं तात्कालिक आवश्यकता पूर्ण हो जाती थी; किन्तु उन्हें यह लगता था कि इस प्रकार की कामचलाऊ पद्धति से राष्ट्रव्यापी संगठन की व्यवस्था करनी चाहिए जिससे बिना प्रयास के वृद्धिगत परिमाण में धन संगठन के कोष में आता रहे। संगठन के लिए लोगों के पास पैसा मांगने में अपने मन का संकोच और छोटापन भी लगता है तथा सहायता देने वालों के मन में यह भाव भी आ सकता है कि हम लोग डॉक्टर जी अथवा संघ पर बड़ा उपकार कर रहे हैं।वृक्ष पर पके हुए फल जितनी सरलता से मातृभूमि की गोद में गिर पड़ते हैं अथवा श्रावण के माह में पारिजात के वृक्ष को थोड़ा सा हिलाते ही सुकोमल एवं सुगन्धित फूलों की जितने सरल ढंग से वर्षा हो जाती है, वैसे ही किसी भी संस्था को लोगों के मन की आत्मीयता के कारण द्रव्य मिला तभी वह संस्था और दाता दोनों से संतोषकारक एवं हितकर होता है।
डॉक्टर जी ने यह देख लिया था कि भक्ति से ही यह बात संभव हो सकेगी। फलत: देने वालों के मन में प्रसन्नता और संतोष उत्पन्न करने वाली, कार्य के प्रति उनकी आत्मीयता को व्यक्त करने वाली और संघ की निधि को भी पुष्ट करने वाली गुरुदक्षिणा की पद्धति उन्होंने शुरू की। लात न मारने वाली दुधारू तथा कन-भर खाकर मन-भर दूध देने वाली गाय मिलना जितना दुर्लभ एवं कठिन है, वैसा ही कठिन यह काम था। पर निरपेक्ष और अनन्य भक्ति कन-भर भी न खाते हुए मन-भर दूध देने वाली कामधेनु होती है।
इस तत्व का साक्षात्कार डॉक्टर जी कर चुके थे तथा इस उत्कट एवं अनन्य भाव की रखवाली का कार्य ही वे संघ के द्वारा अखंड रूप से कर रहे थे। इसी कारण याचना न करते हुए भी देशव्यापी संगठन के लिए आवश्यक धन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मिलता रहा। जिस प्रकार उन्होंने भगवा ध्वज को सबके सामने रखकर हिंदुओं की प्रवृत्ति एवं निवृत्ति, त्याग एवं भोग, अभ्युदय एवं नि:श्रेयस, सबका पारस्परिक संबंध जोड़ने वाली परंपरा का स्मरण कराया। उसी प्रकार उन्होंने तरुणों के मन पर यह संस्कार भी डाला कि हम इस ध्वज के धागे के समान राष्ट्र के अंगभूत अवयव, उसके उत्कर्ष में ही अपने कर्तव्य को ‘इदं न मम’ कहकर उसके चरणों में अर्पण करने में ही जीवन की सार्थकता समझें।
अपने धर्म की प्रथा के अनुसार आषाढ़ पूर्णिमा को व्यासपूजन अथवा गुरु-पूजन होता है। स्वयंसेवकों में अपने गुरु के प्रति भक्तिभाव और समर्पण वृत्ति के संस्कार डालने के उद्देश्य से डॉक्टर जी ने संघ में भी इस उत्सव को मनाना प्रारंभ किया। इस दिन सब स्वयंसेवक अपनी-अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार परम पवित्र भगवा ध्वज के सम्मुख दक्षिणा अर्पण कर उसका पूजन करें यह पद्धति 1928 से शुरू की गई।
उस समय तक तथा उसके बाद भी कुछ वर्षों तक संघ की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति चंदे से ही होती थी; परंतु इस नई पद्धति से निर्धन एवं धनी दोनों को ही बिना कुछ कहे अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार अधिकाधिक अर्पण करने की सुविधा मिल गई। चंदे के साथ लगी हुई अधिकार की कल्पना से अपने मन को विकार-मुक्त रखते हुए अर्पित, किसी भी कार्य के लिए आवश्यक धन संघ के हाथ में आने लगा।
दक्षिणा देते हुए किसी पर भार न पड़े तथा दिए हुए धन के पीछे उपकार की भावना न चिपक जाए, इन दोनों विचारों से संगठन में स्वीकृत गुरुपूजन की पद्धति का प्रचलन इस बात का अत्यंत अनूठेपन का उदाहरण है कि डॉक्टर जी ने संघ की कार्यपद्धति का विकास करते समय राष्ट्र की परंपरा, अपनी संस्कृति का भाव, मानव की प्रकृति, उसकी उन्नयन क्षमता तथा संगठन की आवश्यकताओं का कितना गंभीरता और सूक्ष्मता के साथ विचार कर उसमें से अत्यंत ही व्यावहारिक तथा आदर्शोन्मुखी पद्धति का आविष्कार किया।
डॉक्टर जी ने पहले दिन स्वयंसेवकों को सूचना दी कि ‘कल गुरुपूजन का उत्सव होगा। अत: आप अपनी श्रद्धा के अनुसार फूल और दक्षिणा ले आएं।’ सूचना के बाद स्वयंसेवक अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार अटकल लगाने लगे। कोई बोला, कल हम लोगों को गुरु के नाते डॉक्टर जी की पूजा करने का अवसर मिलेगा। किसी ने कहा कि ‘पूजन अन्ना सोहोनी का होगा।’ दूसरे दिन ध्वजोत्तोलन के बाद उसका पूजन करने के लिए सूचना देते हुए डॉक्टर जी ने जो विचार रखे उससे सब लोगों का भ्रम निवारण होते देर नहीं लगी।
डॉक्टर जी ने अपने भाषण में कहा, ‘‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी भी व्यक्ति को गुरु न मानकर परम पवित्र भगवा ध्वज को ही गुरु मानता है। व्यक्ति कितना भी महान् हो फिर भी उसमें अपूर्णता रह सकती है। इसके अतिरिक्त यह नहीं कहा जा सकता कि व्यक्ति सदैव ही अडिग रहेगा। तत्व सदा अटल रहता है। उस तत्व का प्रतीक भगवा ध्वज भी अटल है। इस ध्वज को देखते ही राष्ट्र का संपूर्ण इतिहास, संस्कृति और परंपरा हमारी आंखों के सामने आ जाती है। जिस ध्वज को देखकर मन में स्फूर्ति का संचार होता है वह अपना भगवा ध्वज ही अपने तत्व के प्रतीक के नाते हमारे गुरु-स्थान पर है। संघ इसलिए किसी भी व्यक्ति को गुरु-स्थान पर रखना नहीं चाहता।’’
भाषण के उपरांत सर्वप्रथम डॉक्टर जी ने स्वयं गुरुपूजन किया। तदनंतर समवेत स्वयंसेवकों ने एक-एक करके पूजा की। पहले गुरुपूजन के अवसर पर 84 रु. तथा कुछ आने दक्षिणा हुई। उल्लेखनीय बात यह है कि एक स्वयंसेवक ने केवल आधा पैसा अर्पित किया था। गंगोत्री में गंगा की छोटी धारा के समान गुरु दक्षिणा का यह स्वरूप भी धीरे-धीरे बढ़ता गया तथा संगठन की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का ही नहीं; अपितु उसके तात्विक अधिष्ठान को सुदृढ़ करने का पुण्यप्रद एवं समर्थ साधन सिद्ध हुआ है।
(यह अंश लेखक की पुस्तक ‘डॉ. हेडगेवार चरित’ से लिया गया है)
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