महाराष्ट्र में एक कथा बहुत प्रचलित है। छत्रपति शिवाजी जब मुगलों से लोहा लेकर हिंदवी स्वराज्य की प्रस्थापना कर रहे थे, तब मुगल सैनिक उनके पीछे पड़ गए। चूंकि छत्रपति शिवाजी के साथ कम सैनिक थे, इसलिए वे किसी तरह बचकर निकलने का प्रयास कर रहे थे। भागते-भागते वे और उनके गिने-चुने साथी एक मंदिर में पहुंचे। संयोग से उस मंदिर में संत तुकाराम महाराज कीर्तन- प्रवचन कर रहे थे।
शिवाजी और उनके साथी वहां उपस्थित लोगों की भीड़ में घुल-मिल गए। हालांकि उनका पीछा करते-करते शीघ्र ही मुगल सैनिक भी वहां आ धमके। स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए संत तुकाराम ने अपने आराध्य भगवान श्री विट्ठल की प्रार्थना की और एक चमत्कार हुआ। श्री विट्ठल की मूर्ति से हजारों सैनिक, हजारों शिवाजी निकल पड़े और उन्होंने मुगल सैनिकों से दो हाथ करते हुए उनको भगा दिया। छत्रपति शिवाजी ने संत तुकाराम महाराज का विनम्र भाव से वंदन करते हुए उनके प्रति आभार प्रकट किया।
यह कथा सत्य हो अथवा न हो, लेकिन उसकी प्रतीकात्मकता में भी एक सचाई है। संत तुकाराम महाराज वारकरी संप्रदाय के प्रतीक हैं। यह कहानी बताती है कि संत तुकाराम महाराज के रूप में वारकरी संप्रदाय ने महाराष्ट्र में भक्ति का अलख जगाया और साथ ही देशभक्ति का एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया जिसके कारण छत्रपति शिवाजी और उनके बाद आने वाले शासकों को एक से एक वीर योद्धा अनवरत मिलते रहे।
वारकरी संप्रदाय के कारण ही महाराष्ट्र ने वीरता, मानवता जैसी परंपराओं का बराबर पालन किया है। संत ज्ञानेश्वर से लेकर संत तुकाराम महाराज तथा बाद में भी कई महात्माओं ने वारकरी संप्रदाय का निर्वहन किया है। इस विचार ने समाज में भक्ति का ही नहीं, बल्कि सामाजिक समता और देशभक्ति का भी बीजारोपण किया है। यही कारण है कि वारकरी संप्रदाय के संतों को महाराष्ट्र का वैभव माना जाता है। पंढरपुर की वारी को महाराष्ट्र का सांस्कृतिक और आध्यात्मिक प्रतीक माना जाता है।
इन संतों का आध्यात्मिक विचार यह दिखाता है कि मानव जीवन कैसे बदल सकता है। वे केवल संत नहीं थे, बल्कि समाज सुधारक और राष्ट्र उद्धारक भी थे। समाज की दकियानूसी प्रथाओं को दूर कर समता लाना उनका उद्देश्य था। देश और समाज जब रूढ़ि-परंपरा व जातियों में बंटा था, उस समय समाज का स्वाभिमान जगाते हुए उसका प्रबोधन करने का काम संतों ने किया। समाज के सभी वर्गों के लिए अध्यात्म के द्वार खोलने का काम किया।
इन संतों में सभी जाति, मत-पंथ और सभी वर्गों के लोग थे। इतना ही नहीं, संत सखू, संत निर्मला, संत कान्होपात्रा, संत जनाबाई, संत मुक्ताबाई, संत महदंबा जैसी महिला संतों ने भी इस परंपरा को गौरवान्वित किया है। इनमें से कुछ महिलाएं ‘दासी’ तो कुछ ‘गणिकाएं’ थीं। लेकिन उनके जीवनकाल से ही उन्हें संत का दर्जा दिया गया, जो आज तक कायम है। यह भारत के आध्यात्मिक लोकतंत्र का एक अनूठा उदाहरण है।
क्या है वारी, कौन हैं वारकरी?
महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में स्थित पंढरपुर गांव में भगवान विट्ठल के दर्शन के लिए हर साल महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों से पालकियां रवाना होती हैं। न केवल महाराष्ट्र, बल्कि कर्नाटक, तमिलनाडु, तेलंगाना और मध्य प्रदेश जैसे आसपास के राज्यों से भी हजारों श्रद्धालु वर्ष में दो बार आषाढ़ व कार्तिक मास में पंढरपुर आते हैं। इसमें विशेषकर आषाढ़ महीने में अधिक संख्या में श्रद्धालु पैदल आते हैं। इस माह की एकादशी (जिसे आषाढ़ी एकादशी कहा जाता है) के दिन विट्ठल की महापूजा होती है।
इनमें संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम महाराज की पालकियां सबसे अधिक विख्यात हैं। ये दोनों पालकियां पुणे जिले के क्रमश: आलंदी व देहू से निकलती हैं। इनमें शामिल भक्त 21 दिन पैदल चलते हुए आषाढ़ी एकादशी से एक दिन पहले पंढरपुर पहुंचते हैं। इन पालकियों की इस यात्रा को वारी कहा जाता है तथा जो श्रद्धालु इस वारी में सहभागी होते हैं वे वारकरी हैं। वारी शब्द का अर्थ है आना और जाना; जो वारी करता है उसे वारकरी कहते हैं
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वारकरी संप्रदाय के विषय में एक उक्ति बहुत प्रसिद्ध है- ‘ज्ञानदेवे झाला पाया, तुका झालासे कळस…’ इसका अर्थ यह है कि संत ज्ञानदेव (13वीं शताब्दी) इसकी नींव हैं, जबकि संत तुकाराम (17वीं शताब्दी) इसके शिखर। कहने का तात्पर्य यह है कि पंढरपुर की वारी का इतिहास 700 वर्ष पूर्व शुरू हुआ था। हालांकि, पंढरपुर के श्री विट्ठल श्रीकृष्ण का ही बाल रूप माने जाते हैं। साथ ही, वारकरी संतों ने वेदों और श्रीमद्भागवत को हमेशा प्रमाण माना है। इसलिए वारकरी पंथ के उदय का निश्चित काल स्पष्ट नहीं है।
लगातार 700 वर्ष तक बिना किसी रुकावट के, बिना किसी की अगुआई के, बिना किसी फसाद या हुड़दंग के, केवल और केवल भक्तिभाव से लाखों की संख्या में श्रद्धालुओं का इस तरह सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने प्रिय देवता के दर्शन कर वापस आना विश्व के इतिहास में अपने आप में एक अद्वितीय घटना है। किसी भी व्यक्ति विशेष के बिना इस तरह का अनुशासन होना इस संप्रदाय की एक अनूठी उपलब्धि है।
जब ये पालकियां बड़े शहरों से तथा ग्रामीण भाग से गुजरती हैं, तब दृश्य देखने जैसा होता है। स्थान-स्थान पर पालकियों का भव्य स्वागत किया जाता है। लाखों की संख्या में पधारे वारकरियों के स्वागत में शहरवासी पलकें बिछा देते हैं। ‘ज्ञानेश्वर माऊली ज्ञानराज माऊली तुकाराम’, ‘जय-जय रामकृष्ण हरि’ के जयघोष से पूरा वातावरण गूंज उठता है। पालकियों की आरती उतारी जाती है।
पालकी के दर्शन के लिए श्रद्धालु बड़ी संख्या में उमड़ते हैं। वारकरियों को सभी आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराने हेतु प्रशासन के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता आगे आते हैं। वारकरियों के लिए अल्पाहार, मिठाई तथा अन्नदान के प्रबंध किए जाते हैं। वारकरियों के स्वास्थ्य की जांच, फल व खाद्य सामग्री का वितरण आदि किया जाता है।
इसके साथ ही तीर्थयात्रियों के लिए स्वास्थ्य जांच शिविर आयोजित करने, लड्डू एवं केले का वितरण, वारकरियों की चरण सेवा और शरीर पर तेल मालिश करने, वारकरी महिलाओं को कपड़े के थैले वितरित करने जैसे उपक्रम चलाए जाते हैं। आरोग्य भारती तथा अन्य संस्थाएं इसमें अग्रणी हैं। साथ ही विज्ञान भारती जैसे संगठनों के सहयोग से पिछले कई वर्ष से निर्मल वारी का उपक्रम चलाया जाता है।
ऐतिहासिक कार्य
यहां यह बताना आवश्यक है कि महाराष्ट्र का आज जो चरित्र है उसे संवारने में वारकरी संप्रदाय की बहुत बड़ी भूमिका रही है। यह संयोग नहीं कि संत ज्ञानेश्वर का उदय तब हुआ जब अलाउद्दीन खिलजी ने देवगिरी के यादव साम्राज्य पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया। तब से लेकर भक्ति आंदोलन के मार्ग से वारकरी संतों ने मराठी भाषियों में स्वदेश-भक्ति और स्वाभिमान का दीप प्रज्ज्वलित किया। इसी की परिणति 17वीं शताब्दी में हुई, जब छत्रपति शिवाजी ने हिंदवी स्वराज का स्वप्न साकार किया। यह सर्वविदित है कि छत्रपति शिवाजी को संत तुकाराम महाराज तथा संत रामदास जैसे संतों से लगातार प्रेरणा व सलाह मिलती थी।
एक ऐसे समय में जब संचार के साधन बहुत कम थे और देश-विदेशी आक्रमणों से जूझ रहा था, उस समय वारकरी संप्रदाय ने समाज की चेतना जाग्रत रखी। समाज को आत्मग्लानि से बाहर निकाला। इस संप्रदाय के कुछ संतों ने महाराष्ट्र ही नहीं, पूरे देश में जागृति लाने का प्रयास किया। वारकरी संप्रदाय के एक पुरोधा संत नामदेव भारत के सांस्कृतिक इतिहास में भक्ति परंपरा के एक केंद्रीय व्यक्तित्व हैं। देशभर की तीर्थयात्रा के पश्चात् संत नामदेव पंजाब आ गए और यहीं भागवत धर्म का प्रचार करते रहे। वे बीस वर्ष तक पंजाब में रहे तथा यहीं इनकी मृत्यु हुई।
पंजाब के घुमाण नामक स्थान पर बाबा नामदेव जी के नाम पर एक गुरुद्वारा आज भी है। इनके शिष्यों को नामदेवियां कहा जाता है। श्रीगुरु ग्रंथ साहिब में उनके 61 पद, 3 श्लोक 18 रागों में संकलित हैं। इस तरह वे राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गए।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अध्यात्म के द्वारा राष्ट्रीय चेतना को जाग्रत रखने का एक सहज स्वाभाविक मार्ग वारकरी संप्रदाय ने विश्व के सामने रखा है। न केवल महाराष्ट्र, बल्कि समूचा भारत अपनी इस धरोहर पर गर्व करता है।
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