नई दिल्ली के द अशोक होटल में पाञ्चजन्य द्वारा आयोजित “सुशासन संवाद: छत्तीसगढ़” में एक सत्र संस्कृति सूत्र – अरण्यकांड, के नाम से भी रहा। इस सत्र के वक्ता राजीव रंजन जी (वरिष्ठ साहित्यकार) से अदिति माहेश्वरी जी (सीईओ, मैनेजिंग डायरेक्टर वाणी प्रकाशन) ने बस्तर की सांस्कृतिक व प्राकृतिक विरासत और नक्सलवाद पर बात की। ‘आमचो बस्तर’ के लेखक, राजीव रंजन जी का बस्तर पर गहन अध्ययन है। उन्होंने कई बिंदुओं को आपस में पिरोकर पेश किया।
अदिति जी से चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि जब भी हम नक्सलवाद की बात करते हैं, तो हमें ये सोचने पर मजबूर किया जाता है कि अवश्य ही नक्सलवाद होने वाले स्थान पर कोई समस्या होगी। उसे सुलझा दिया जाए तो नक्सलवाद की समस्या का भी समाधान हो जाएगा। पर बस्तर में ऐसी कोई समस्या ही नहीं है। अदिति जो ने जब उनसे पूछा कि उन्होंने क्या वहां जाकर ऐसा महसूस किया? तो उन्होंने अपना एक अनुभव साझा किया। उन्होंने बताया कि जब वे वहां गए तो उन्हें पता चला कि वहां का वनवासी समाज देवी-देवताओं की पूजा तो करता ही है, परंतु यदि कोई देवी देवता सेवा करवाने के बाद भी उनकी इच्छा पूर्ण नहीं करते, तो वही वनवासी उन्हें भंगाराम देवी के न्यायालय में दंड दिलवाने से भी नहीं हिचकिचाते। जिस बस्तर में खुद की न्याय प्रणाली ऐसी रही है, क्या वास्तव में ऐसे बस्तर में नक्सलवाद की जरूरत पड़ सकती है? इसी प्रश्न को श्रोताओं के मन में जगाते हुए, वे बात करते है बस्तर के पास के अबूझमाड़ की— एक ऐसा स्थान जहां के निवासी अपना ही अनाज उत्पादित करते हैं और आपस में बांट लेते हैं।
राजीव जी कहते हैं, कि ऐसी सुंदर संस्कृति वाले स्थान पर नक्सलवाद की आवश्यकता हो सकती है भला? बहुत स्पष्टता से राजीव जी ने कहा कि “हमारे लिए ये समझना ज़रूरी है कि बस्तर में नक्सलवाद किसी सामाजिक या आर्थिक समस्या के कारण नहीं है, बल्कि बस्तर में सामाजिक–आर्थिक दिक्कतें नक्सलवाद के कारण हैं।“ उन्होंने कहा कि अरण्य धन से सुसज्जित, अपने भूगोल व शहरी नक्सलियों की परोसी जा रही विचारधारा के कारण बस्तर का प्रयोग नक्सलवाद और छुपने के लिए हुआ है। “क्योंकि सच्चाई तो ये है कि न तो बस्तर में नक्सलवाद की जगह है, न वो उनको चाहते हैं।“
अंत में जब अदिति जी ने उनसे उनकी पुस्तक आमचो बस्तर के विषय में पूछा, तो उन्होंने कहा कि आज हम जो चर्चा कर रहे हैं, मैं चाहता हूं कि आप अवश्य सोचें कि फ़िर दोबारा आज तक ऐसी पुस्तक क्यों नहीं लिखी गई? क्यों हम नक्सलियों के मरने की ही ख़बर चलाते हैं, पर उन्होंने कितनो को मारा, इसकी नहीं? आज आवश्यकता है कि हम मिलकर उस “इंटेलेक्चुअल सिस्टम” के ख़िलाफ़ लड़ें जो बस्तर जैसे समृद्ध विरासत वाले स्थान को केवल नक्सलवाद का केंद्र बनाने पर उतारू है।
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