तीस जून और 7 जुलाई को फ्रांस में दो चरणों में चुनाव हुए। संभवत: ये चुनाव कई मायनों में असाधारण ही कहे जाएंगे। एक, 40 साल बाद इन चुनावों में सबसे ज्यादा मतदान हुआ (इस बार विदेशों में बसे फ्रांसीसी लोगों ने बड़े पैमाने पर डाक-मत डाले)। दूसरे, यूरोपीय संघ की संसद के चुनावों में अपनी पराजय के बाद, राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों ने एकाएक संसदीय चुनाव कराने का औचक फैसला लेकर यूरोप के चुनाव पंडितों को हैरान कर दिया, लेकिन उनका पासा उलटा पड़ा। तीसरे, 30 जून के पहले चरण में दुनिया हो चौंकाते हुए जिस दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल रैली और उसकी नेता मॅरी ले पेन ने धमाकेदार वोट पाए, 7 जुलाई के दूसरे चरण में वे ऐसी पिछड़ीं कि तीसरे नंबर पर चली गईं। चौथे, राष्ट्र्पति मैक्रों की उदारवादी कही जाने वाली मध्यमार्गी पार्टी, जो पहले चरण में तीसरे नंबर पर थी, वह दूसरे चरण में वापसी करते हुए दूसरे नंबर की पार्टी बन गई।
पांचवें, पहले चरण में दूसरे नंबर पर रहा वामपंथी दल ‘ला फ्रांस इंसॉमाइस’ की अगुआई वाला न्यू पॉपुलर फ्रंट गठबंधन पहले नंबर पर आ गया। छठे, यूरोप के संसदीय चुनाव में वामपंथियों की जबरदस्त जीत के जश्न में फ्रांस में पटाखे फोड़ने वाले, उपद्रव, लूट, आगजनी करने वाले ‘वोक’ और कट्टर इस्लामी तत्व दूसरे चरण के चुनाव के बाद, एक बार फिर ‘जोश’ में आ गए और कुछ ही दिनों बाद ओलंपिक खेलों के आयोजन के लिए सजे देश की सूरत बिगाड़ने के लिए उपद्रव मचाने लगे, कई शहरों में हिंसक झड़पें हुईं, आगजनी हुई।
‘ब्रिटेन में नई बनी स्टार्मर सरकार कह चुकी है कि आप्रवासियों को अन्यत्र बसाने के लिए फंड करने की योजना अब नहीं चलेगी। यह सरकार फिलिस्तीन को भी मान्यता देने का मन रखती है अत: अमेरिका के संघर्षविराम के प्रस्ताव का समर्थन करेगी। ब्रिटेन में बढ़ते इस्लामी उग्रवाद को यह सरकार काबू कर पाएगी इसमें संदेह है क्योंकि मुस्लिम आप्रवासियों की बढ़ती तादाद की वजह से उनका राजनीतिक क्षेत्र में भी एक दबाव समूह बन गया है। यह सही है कि इन इस्लामवादियों की वजह से वहां शांति भंग होती रही है, लेकिन स्टार्मर उस पर प्रभावी लगाम लगा पाएंगे, इसमें संदेह है।
फ्रांस की बात करें तो, वहां भी पहले जनसंख्या कम होने की वजह से अराजकता में डूबे तमाम इस्लामी देशों के लोगों को खुलकर शरण दी जाती रही। यह चलन पूरे यूरोप में देखने में आया था। लेकिन अब फ्रांस व अन्य देशों में भी इस्लामवादियों की संख्या इतनी ज्यादा हो गई है कि काबू करना मुश्किल हो रहा है। इस चुनाव में आश्चर्यजनक रूप से वामपंथी गठबंधन की जीत के पीछे इन्हीं इस्लामवादियों का बड़ा हाथ है। वामपंथियों के सत्ता में आने के बाद ये और उग्र होंगे, इसकी पूरी संभावना है। फ्रांस में उपद्रव और आगजनी के नजारे और देखने में आ सकते हैं।’’
—अनिल त्रिगुणायत, पूर्व राजदूत (जॉर्डन, लीबिया और माल्टा)
लेकिन, परमाणु क्षमता संपन्न देश, फ्रांस में इन चुनावों के नतीजे और अनेक कारणों से बहुत मायने रखते हैं… सिर्फफ्रांस, सिर्फयूरोप, सिर्फयूरोपीय संघ, सिर्फ नाटो के लिए नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए। ये नतीजे महत्वपूर्ण हैं यूक्रेन में चल रहे युद्ध, वैश्विक कूटनीति और यूरोप की आर्थिक स्थिरता के लिए। ये महत्वपूर्ण हैं विश्व में बढ़ते इस्लामी कट्टरपंथ, मुल्लावाद, इस्लामी जगत, पश्चिम के बीच बढ़ती दरारों, वैश्विक मंचों पर लोकतांत्रिक परंपराओं और वैश्विक शांति में यूरोप के इस प्रमुख देश के सकारात्मक योगदान के लिए। लेकिन, क्या चुनाव के नतीजे इन सब आयामों पर फ्रांस की एक जिम्मेदार छवि पेश करते हैं?
संसदीय सीटों में शानदार बढ़त केबावजूद, दक्षिणपंथी दल नेशनल रैली उम्मीद से कहीं पीछे रह गया और 577 सीट वाली नेशनल असेम्बली में सिर्फ142 सीटें ही जीत पाया। वामपंथी न्यू पापुलर फ्रंट गठबंधन ने 188 सीटें हासिल कीं तो मैक्रों के मध्यमार्गी गठबंधन ‘एंसेम्बल’ को 161 सीटें ही मिल पाईं।
फ्रांस में बढ़ता इस्लामिक कट्टरपंथ
2012 में हुए एक सर्वेक्षण में इस्लाम को लेकर फ्रांस की चिंताओं को उजागर किया गया था। वहां के दक्षिणपंथी माने जाने वाले दैनिक ‘ले फिगारो‘ ने उस सर्वेक्षण के नतीजे प्रकाशित करके बताया था कि 43 प्रतिशत फ्रांसीसी लोग मानते हैं कि इस्लाम राष्ट्रीय पहचान के लिए ‘खतरा’ है। दस में से छह फ्रांसीसी लोगों का मानना है कि उनके देश में इस्लाम का प्रभाव ‘बहुत बढ़ गया है’। एक अर्थ में आज फ्रांस यूरोप की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाला देश बन गया है। उक्त दैनिक में लिखा था कि ‘यह सर्वेक्षण इस मजहब के प्रति फ्रांस के विचारों में कठोरता और इस्लाम के प्रति नकारात्मक धारणा को मजबूत करता है।’
उल्लेखनीय है कि यही फ्रांस है जिसने एक बड़ा कदम उठाते हुए 2011 में सार्वजनिक रूप से चेहरे पर नकाब पहनने पर प्रतिबंध लगाने वाला कानून लागू किया था। चरमपंथी समूहों ने फ्रांस में इस्लाम के सवाल को फिर से सुर्खियों में ला दिया है। एक दक्षिणपंथी पार्टी के नेता ने कहा था कि ‘मामला चाहे हिजाब का हो या हलाल मांस से संबंधित हो या आतंकवादी हमलों जैसी घटनाओं की बात हो, हाल के वर्षों में ऐसा एक भी सप्ताह नहीं रहा है जब इस्लाम सुर्खियों में छाया रहा हो।’
‘ले फिगारो’ के सर्वेक्षण से पता चलता है कि इस्लामी तत्वों के प्रति फ्रांसीसी राय भी सख्त होती जा रही है, जिसमें 43 प्रतिशत लोगों ने कहा था कि वे मस्जिदें बनाने के खिलाफ हैं। दो तिहाई लोगों ने कहा था कि उनके हिसाब से फ्रांसीसी मुसलमान और मुस्लिम मूल के लोग फ्रांसीसी समाज में अच्छी तरह से घुलेमिले नहीं हैं।
इस्लामवादियों के इशारे पर नाच रहे लंदन मेयर सादिक खान!
चार महीने पहले ब्रिटेन में हुए एक सर्वेक्षण में अधिकांश टोरी नेताओं ने कहा था कि इस्लाम ब्रिटिश जीवनशैली के लिए खतरा है। 521 कंजर्वेटिव नेताओं में से 58% का मानना था कि इस्लाम इस देश के लिए खतरा है। इसी पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों ने लंदन के मेयर सादिक खान के बारे में ली एंडरसन की टिप्पणियों की निंदा करने से इनकार कर दिया था। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने यहां तक कहा था कि देश के सबसे प्रमुख मुस्लिम राजनेताओं में से एक खान शायद इस्लामवादियों के इशारों पर चल रहे हैं। यह वही खान हैं जिन्होंने लंदन में फिलिस्तीन समर्थक मार्च पर प्रतिबंध लगाने से इनकार कर दिया था।
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक हर गठबंधन नए सहयोगियों की बैसाखी तलाश रहा है। वामपंथियों ने राष्ट्रपति मैक्रों के इस्तीफे की मांग की है लेकिन उनके कार्यालय ने फिलहाल ऐसी किसी संभावना से इनकार करते हुए नेशनल एसेम्बली के ‘शक्ल’ लेने का इंतजार करने को कहा है। यानी आगामी 18 जुलाई का दिन फ्रांस के लिए ऐतिहासिक रहने वाला है जब नेशनल एसेम्बली अपने नए स्वरूप में बैठक करेगी। लेकिन विश्व की दृष्टि से, यूरोप में मुसलमानों
की सबसे ज्यादा आबादी वाले इस देश से उभरते कई प्रश्न ज्यादा जरूरी हैं।
क्या सत्ता में आने को आतुर वामपंथी फ्रांस से कट्टर मजहबी तत्वों की थानेदारी, जोर-जबरदस्ती खत्म कर पाएंगे? क्या पेरिस की सड़कों पर शुक्रवार की सामूहिक नमाज के बहाने हजारों की संख्या में ‘इस्लामी कब्जा’ अब आगे न होगा? क्या मुस्लिम देशों से बेखटके फ्रांस आकर बसते और इस्लामवादियों की संख्या लगातार बढ़ाते जा रहे ‘इमिग्रेंट्स’ की आमद कम होगी? क्या स्कूल, कॉलेजों और विश्वविद्यालय परिसरों से इस्लामवादियों की हरकतें कम होंगी? क्या यूरोपीय संघ में फ्रांस की अब वैसी धमक रह पाएगी जैसी पहले थी? इन सवालों में से शायद कुछ का जवाब भविष्य के गर्त में ही छुपा है और समय आने पर ही तस्वीर साफ होगी।
एक अन्य यूरोपीय देश ब्रिटेन में भी गत 4 जुलाई को संसदीय चुनाव सम्पन्न हुए। 650 सीटों वाली संसद में, सत्ता विरोधी लहर पर सवार लेबर पार्टी ने अभूतपूर्व प्रदर्शन करते हुए 412 सीटें जीतीं और ब्रिटेन वालों को ही नहीं, यूरोप तक को हैरत में डाल दिया। इस चुनाव में पिछले 14 साल से सत्ता पर काबिज कंजर्वेटिव पार्टी अथवा टोरी पार्टी को महज 121 सीटें मिलीं और उसे शर्मनाक स्थिति का सामना करना पड़ा। निवर्तमान प्रधानमंत्री ऋषि सुनक को हार का पूर्वाभास तो था, लेकिन यह नहीं सोचा था कि हार इतनी बुरी होगी। नए प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर की लेबर पार्टी को जहां 214 सीटों का मुनाफा हुआ तो वहीं सुनक की कंजर्वेटिव को 252 सीटों का घाटा सहना पड़ा।
लेकिन ब्रिटेन में चुनौतियां कई मामलों में फ्रांस जैसी ही हैं। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन में गाजा युद्ध के बहाने फिलिस्तीन के प्रति समर्थन जताते हुए लंदन सहित अनेक बड़े शहरों में इस्लामवादियों और उनके साथी वामपंथियों ने पिछले दिनों हर सप्ताहांत पर लाखों की तादाद में रैलियां निकालकर आम लंदनवासी में मन में आतंक पैदा कर दिया था।
तत्कालीन गृहमंत्री सुएला बे्रवरमैन ने तब आगाह किया था कि ये कट्टर इस्लामवादी ब्रिटेन ही नहीं, पूरे यूरोप के लिए खतरा हैं। लेकिन वहां राजनीतिक रसूख बढ़ाते गए इस्लामवादियों ने संसद तक में इतनी पैठ बना ली है कि उनके दबाव समूह ने सुएला को ही पद से हटवा दिया। सुएला का ‘ट टेलीग्राफ’ में 22 फरवरी 2024 को छपा आलेख पढ़ने जैसा है, जिसमें एक एक कर उन्होंने मजहबी उन्मादी खतरे की पोल खाली है।
(पढ़ें, बॉक्स में सुएला के उस आलेख का संपादित अंश) बताते हैं कि लंदन कामेयर सादिक खान कथित पाकिस्तानी वोट के बल पर ही जीतता है और इस्लामवादियों के इशारों पर काम करता है। इस बार हिन्दू-मुस्लिम की मिली-जुली आबादी वाली लीसेस्टर पूर्व सीट से जीतीं कंजर्वेटिव सांसद 29 साल की शिवानी राजा की मां मूलत: राजकोट (गुजरात) से हैं। उन्होंने तो खुलकर यहां से पूर्व लेबर सांसद क्लॉडिया वेब्ब पर आरोप लगाया कि 2022 में लीसेस्टर दंगों के लिए वेब्ब ने तत्काल हिन्दुओं को ही दोषी ठहरा दिया था।
‘ब्रिटेन को डरा-धमकाकर अपने
अधीन करना चाह रहे इस्लामवादी’
इस्लामवादी सनकी और वामपंथी चरमपंथियों ने फिर सड़कों पर कब्जा कर लिया। उन्होंने अदालतों के जरिए शिक्षकों को परेशान किया; हमारे मानवाधिकार और समानता कानूनों का इस्तेमाल हमारे ही खिलाफ किया। उन्होंने एक सांसद को जान से मारने की धमकी दी; एक सम्मानित साथी लॉर्ड आस्टिन ने आतंकवाद और इस्लामवाद के खिलाफ आवाज उठाई, उन्हें पद से हटवा दिया गया।
सचाई यह है कि आज ब्रिटेन पर इस्लामवादी, चरमपंथी और यहूदी-विरोधी हावी हैं। उन्होंने हमारी संस्थाओं को धमकाया है, और अब वे हमारे देश पर हावी होना चाहते हैं। लेकिन हमारी प्रतिक्रिया क्या है? बड़े पैमाने पर उग्रवाद गर्व से चलता है, विश्वविद्यालय परिसर यहूदियों के लिए खतरनाक जगह बने हुए हैं।
हमारे मूल्यों और स्वतंत्रताओं पर, जीवन के सभी क्षेत्रों पर हमला हो रहा है। हमारे महान देश के साथ क्या हो रहा है? वह देश जो सम्मानजनक, स्वागत करने वाला था, और जहां अपनी बात कहने का मतलब अपनी नौकरी या अपनी जान गंवाना नहीं था। जहां अलग-अलग पंथ और नस्लें शांतिपूर्वक साथ रहती थीं? मुझे वह देश याद है, लेकिन यह वह ब्रिटेन नहीं है जिसे मैं आज देख रही हूं। …लेकिन, हम हार नहीं मान सकते।
‘प्रिवेंट प्रोग्राम’ को ‘इस्लामोफोबिक’ और ‘नस्लवादी’ करार दिया गया है, क्योंकि मुख्य रूप से, यह हमारे देश के सामने सबसे खतरनाक आतंकवादी विचारधारा से निपटने के लिए स्थापित किया गया है: जो है इस्लामवाद। हमें यू.के. में हमास के नेटवर्क पर ध्यान केंद्रित रखने की आवश्यकता है।
हम जानते हैं कि रैली में शामिल कुछ लोगों के उस इस्लामी आतंकवादी समूह से संबंध हैं। इस्लामवादी कट्टरपंथियों को चुनौती देना इस्लामोफोबिक नहीं है; यह एक नागरिक कर्तव्य है। मुझे इस्लामवादियों के तुष्टीकरण के खिलाफ बोलने के कारण बर्खास्त किया जा सकता है, लेकिन मैं इसे फिर से करूंगी क्योंकि हमें यह समझने की जरूरत है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं।
वह दिशा है एक ऐसा समाज जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ब्रिटिश मूल्य कमजोर हो रहे हैं, जहां शरिया कानून, इस्लामवादी भीड़ और यहूदी-विरोधी समुदायों पर कब्जा करते हैं। हमें इस्लामोफोबिक लेबल किए जाने के डर को दूर करने और सच बोलने की जरूरत है। कट्टरपंथियों की ओर से आंखें मूंद लेने की वजह से ही हम इस भयानक स्थिति में पहुंचे हैं,
इसे रोकने की जरूरत है।
(22 फरवरी 2024 को द टेलीग्राफ में प्रकाशित ब्रिटेन की
तत्कालीन गृहमंत्री सुएला ब्रेवरमैन के आलेख का संपादित अंश)
ब्रिटेन में इस्लामी उन्माद की हाल की कुछ घटनाएं
- 20 जून, 2020-रीडिंग में खैरी सादल्लाह ने ‘अल्लाहू अकबर’ नारे लगाते हुए पार्क में बैठे लोगों हमला किया, तीन लोगों की मौत हुई।
- 15 अक्तूबर, 2021-एक मुस्लिम अली हर्बी अली ने सांसद सर डेविड एम्स को उनके गृहक्षेत्र में चाकू मार दिया जिससे उनकी मौत हो गई।
- 14 नवंबर, 2021-लिवरपूल में इमाद अल-स्वीलमीन देशी बम लेकर टैक्सी से एक स्थानीय महिला अस्पताल जा रहा था कि अचानक बम फट गया, जिससे उसकी मौत हो गई और ड्राइवर घायल हो गया।
- 28 अगस्त, 2022-लीस्टर में मुस्लिमों ने हिन्दुओं के घरों, दुकानों पर तोड़फोड़ की, स्थानीय माता मंदिर का भगवा ध्वज उतारकर फाड़ा। स्थानीय मुस्लिम समुदाय मुल्ला—मौलवियों के भड़काने के बाद उग्र हो उठा था।
- 30 अक्तूबर, 2022-डोवर में एंड्रयू लीक ने पेट्रोल स्टेशन पर आत्महत्या करने से पहले वेस्टर्न जेट फॉइल प्रवासी प्रसंस्करण केंद्र की चारदीवारी पर तीन पेट्रोल बम फेंके। इसमें कई लोग घायल हुए।
यूके में बढ़ रहा उन्मादी मजहबियों का विरोध
सात अक्तूबर, 2023 को हमास द्वारा इस्राएल पर किए जिहादी हमले के बाद से, ब्रिटेन में उग्र इस्लामवादियों का जगह-जगह मुखर विरोध होने लगा है। पिछले साल के अंतिम तीन महीनों और जनवरी 2024 तक मुस्लिम विरोध के 2,000 से अधिक मामले दर्ज हुए, ये पिछले वर्ष इसी दौरान दर्ज हुए ऐसे मामलों से 335 प्रतिशत ज्यादा हैं। ऐसी सबसे अधिक 576 घटनाएं राजधानी लंदन में दर्ज की गईं। एक आंकड़े के अनुसार ब्रिटेन में लगभग 40 लाख से अधिक मुस्लिम रहते हैं यानी वहां की जनसंख्या का लगभग 6.5 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है। इनमें भी अधिकांश बर्मिंघम, ब्रैडफोर्ड, लंदन और मैनचेस्टर में रह रहे हैं। इन चार शहरों में पिछले दसेक साल में मस्जिदों, मदरसों और दरगाहों की बाढ़ सी आ गई है। स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में मुस्लिम छात्र बेवजह गैर मुस्लिम छात्रों और शिक्षकों को धमकाते हैं और उन पर कन्वर्ट होने का दबाव बनाते हैं। लेकिन अब इसका विरोध होता दिख रहा है।
शिवानी ने यह कहकर लेबर की उस दुखती रग पर ही हाथ रखा, क्योंकि लेबर पार्टी इस्लामवादियों के प्रति नरम मानी जाती रही है। इन्हीं शिवानी ने 10 जुलाई को भगवद्गीता हाथ में लेकर सांसद के नाते शपथ ली। हालांकि इस चुनाव में मंदिरों में जाकर मत्था टेकते रहे कीर स्टार्मर ने अपनी जीत के बाद हिन्दुओं और भारत के हित में नीतियां बनाने का वादा किया है। लेकिन उनकी पार्टी का पूर्व रिकार्ड भारत और हिन्दुओं के प्रति कोई विशेष चिंता करने वाला नहीं दिखाता।
बात चाहे फ्रांस की हो या ब्रिटेन की, दोनों ही यूरोप के कद्दावर देश हैं। सत्ता में ताजा बदलाव के बाद, दोनों के पास मौका है कि अपने देश व नागरिकों को शांति और खुशहाली की राह पर बढ़ाएं या उन्हें कट्टर ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के हाथों मसले जाने दें।
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