13 जुलाई , 1660 को सर्वोच्च बलिदान देने वाले शिवा काशिद, अतुलनीय पराक्रमी बाजीप्रभु देशपांडे और उनके 500 जांबाज सैनिकों को सादर प्रणाम। उन्होंने सिर्फ शिवाजी को ही नहीं अपितु समस्त सनातन समाज को ही नवजीवन प्रदान किया यह असंदिग्ध है।
श्रीरंग वासुदेव पेंढारकर
अधिकांश लोगों ने संभवतः घोड़खिंड की लड़ाई के बारे में सुना भी नहीं होगा! कक्षा दसवीं तक पढ़ाए जाने वाले इतिहास में इस लड़ाई को स्थान नहीं दिया गया है। परन्तु, 350 वर्ष से भी पूर्व लड़ी गई इस लड़ाई ने एक तरह से भारत का भविष्य बदल कर रख दिया। फिर भी इसे बच्चों को पढ़ाया नहीं जाता क्योंकि शायद भारतीय विजयगाथाओं को पढ़ने लायक इतिहास माना ही नहीं गया।
शिवाजी महाराज द्वारा अफ़ज़ल ख़ान को मौत के घाट उतार देना एक अकल्पनीय घटना थी। अफ़ज़ल के सुल्तान बीजापुर के आदिलशाह के लिए यह एक गहरा आघात था। शिवाजी महाराज भी इस विजय के प्रभाव को समझते थे। उन्होंने अफ़ज़ल के वध से उत्पन्न परिस्थिति का लाभ उठाते हुए बीजापुर की सीमाओं में अपने हमले तेज कर दिए। मात्र अठारह दिन के अन्दर ही महाराज ने कोल्हापुर के नजदीक पन्हाला के किले को अपने आधिपत्य में ले लिया। पन्हाला एक प्रमुख किला था और शिवाजी का उसे जीत लेना आदिलशाह के लिए एक और आघात था। परेशान आदिलशाह ने अफ़ज़ल के पुत्र फ़ज़ल और रुस्तम जुमा के नेतृत्व में एक बड़ी सेना शिवाजी के बंदोबस्त के लिए भेजी परन्तु शिवाजी महाराज ने उन्हें कोल्हापुर के नजदीक बुरी तरह पराजित कर दिया।
अब आदिलशाह क्रोधित नहीं बल्कि डरा हुआ था। शिवाजी महाराज का पराक्रम बढ़ता जा रहा था। अंततः आदिलशाह की ओर से सिद्धि जौहर 60000 की विशाल सेना लेकर पन्हाला पहुंचा। शिवाजी महाराज पन्हाला गढ़ पर ही थे। सिद्धि ने नीचे तलहटी में गढ़ को चारों ओर से घेर लिया। सिद्धि कुशल सेना नायक था। उसने गढ़ के चारों ओर घेरा इतना सुदृढ़ बनाया था कि उसे भेद कर निकलना असंभव था। शिवाजी महाराज करीब चार महीने तक पन्हाला पर ही अटके हुए थे। इसी बीच बारिश का मौसम भी शुरू हो चुका था।
गढ़ के ऊपर शिवाजी महाराज के पास बहुत सीमित सेना थी। धीरे धीरे रसद और असलहा भी समाप्त हो रहा था। स्थिति प्रत्येक गुजरते दिन के साथ गंभीर होती जा रही थी। सिद्धि का घेरा कमजोर पड़ ही नहीं रहा था। स्पष्ट था कि यदि कुछ दिन और ऐसा ही चलता रहा तो शिवाजी महाराज को या तो समर्पण करना होगा या युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो जाना होगा।
इस करो या मरो की स्थिति ने शिवाजी महाराज और उनके विश्वासपात्र सैनिकों ने एक योजना बनाई। तय हुआ कि शिवाजी का हमशक्ल, उनका नाई, शिवा काशिद, को शिवाजी महाराज के कपड़े इत्यादि पहना कर राजसी पालकी में बैठा कर ऐसे रास्ते से किले के बाहर ले जाया जाएगा जहां उसका पकड़ में आना तय था। ऐसा होते ही सिद्धि की छावनी में यह ख़बर फैल जाएगी कि शिवा पकड़ा गया! शिवा काशिद जब तक हो सके यह भ्रम बनाए रखेगा कि वह ही असली शिवाजी है। उधर दूसरी ओर असली शिवाजी महाराज सादे कपड़ों में एक अन्य पालकी में ऐसे स्थान से पन्हाला के बाहर निकलेंगे जहां सिद्धि का घेरा थोड़ा कमजोर था। घेरे से बाहर निकल कर शिवाजी विशाल गढ़ चले जायेंगे जो पन्हाला से बीस कोस याने लगभग 70 किमी दूर था।
सन 1660 में गुरुपूर्णिमा की रात्रि में शिवा काशिद शिवाजी महाराज बनकर एक पालकी में बैठकर पन्हाला से निकल पड़ा। उसे यह अच्छी तरह पता था कि असलियत खुलते ही उसकी मौत निश्चित थी। परन्तु महाराज की प्राण रक्षा के लिए उसने यह बलिदान सहर्ष स्वीकार किया था। जो होना था वही हुआ। शिवा शीघ्र ही पकड़ा गया। पूरी छावनी में खबर आग की तरह फैल गई, “शिवा पकड़ा गया”। परन्तु कुछ ही देर में शत्रु समझ गया कि यह नकली शिवाजी है। उधर महाराज जिस जगह से घेरा तोड़ने में सफल हुए वहां से भी खबर आ गई कि शिवा भाग चुका है। तुरन्त ही शत्रु के करीब 2000 से अधिक घुड़सवार सैनिक असली शिवाजी और उनके 600 सैनिकों के पीछे दौड़ पड़े। शिवाजी महाराज पालकी में थे। अन्य सैनिक और अधिकारी पैदल ही चल रहे थे। पूर्णमासी की उस रात धुआंधार वर्षा भी हो रही थी। घटाटोप अंधेरा, घना जंगल और कीचड़। कहार तेजी से आगे नहीं बढ़ पा रहे थे। शिवाजी के साथ बाजीप्रभु देशपांडे नामक सेनानायक अपने 600 वीरों के साथ चल रहा था। सुबह होते होते मराठे घोड़खिंड़ के नजदीक पहुंचे। घोड़खिंड दो चट्टानी दीवारों के मध्य एक संकरी गलियारा था। दिन के उजाले में अब पीछा करता शत्रु नजर आने लगा था।
बाजीप्रभु ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए शिवाजी महाराज को निवेदन किया कि बेहतर होगा कि महाराज आधे सैनिकों के साथ पैदल विशालगढ़ की ओर बढ़ जाए। वहां भी शत्रु का घेरा था परन्तु सिद्धि के घेरे जितना सुदृढ़ नहीं था। शिवाजी महाराज और उनके सैनिक उस घेरे को तोड़ विशाल गढ़ पहुंच जायेंगे। इधर बाजीप्रभु देशपांडे अपने सैनिकों के साथ सिद्धि के सैनिकों को घोड़खिंड की भौगोलिक स्थिति का लाभ ले कर रोक कर रखेंगे। जब महाराज विशालगढ़ पहुंच जाएं तब गढ़ से इशारे की एक तोप का प्रहार कराएं जिससे बाजीप्रभु समझ जायेंगे कि महाराज सकुशल विशालगढ़ पहुंच चुके हैं। यह प्रसंग शिवाजी महाराज के लिए अत्यन्त कठिन और असहनीय था। बाजीप्रभु और उनके सैनिकों को छोड़ कर जाने का सीधा मतलब था उन्हे मौत के हवाले कर जाना। 2000 सैनिकों के सामने आखिर 300 सैनिक कहां तक टिकते? परन्तु बाजीप्रभु अड़ गए। उन्होंने शिवाजी महाराज को मजबूर किया कि वें 300 सैनिकों के साथ पैदल ही विशालगढ़ की ओर बढ़ जाएं। ऐसा ही हुआ।
अब बाजीप्रभु और उनके कुछ बहादुर सैनिक घोड़खिंड के गलियारे के छोर पर शत्रु के सैनिकों से भिड़ गए। 2000 के सामने 300! गलियारे का लाभ उठाते हुए मराठों ने अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन किया और सिद्धि के सैनिकों को रोक लिया। कत्लेआम मचा हुआ था। आमने सामने की लड़ाई चल रही थी। बाजीप्रभु ने पराक्रम की पराकाष्ठा दिखा दी। दोनों हाथों में तलवारें लिए यह भीमकाय योद्धा शत्रु सैनिकों को गाजर मूली की तरह काट रहा था। बाजी और उनके सैनिक सिद्धि के सैनिकों पर यमदूत की भांति टूट पड़े थे। मात्र 150 कदम के घोड़खिंड गलियारे को सिद्धि के सैनिक पार नहीं कर पा रहे थे। मराठे सैनिक बगैर विश्राम या अन्न भोजन के रात भर से दौड़ रहे थे। अब सुबह से वे घोड़खिंड के मुहाने पर चट्टान की भांति डटे हुए थे।
उधर शिवाजी महाराज पैदल अपने सैनिकों के साथ विशालगढ़ की ओर बढ़ रहे थे। रास्ते में आदिलशाह के सरदार सुर्वे का घेरा था। शिवाजी और उनके सैनिक भी रात भर से बिना अन्न भोजन के चल दौड़ रहे थे। परन्तु विशालगढ़ नजर आने लगा था। सभी के शरीर में नई ऊर्जा का संचार हो कर वे शत्रु सैनिकों पर टूट पड़े। कुछ ही देर में उन्होंने घेर को तोड़ विशालगढ़ चढ़ना शुरू कर दिया था।
इधर घोड़खिंड़ में खून की होली चल रही थी। बंदूक की एक गोली सीने पर आ लगने से बाजीप्रभु मूर्छित हो कर गिर गए। तुरन्त ही होश में आए। होश में आते ही पूछा कि महाराज के पहुंचने की तोप की आवाज आई क्या? साथ के सैनिकों ने कहा कि अभी तक नही आई है! कहते हैं, कि बुरी तरह घायल बाजी यह सुनते ही पुनः उठ खड़े हुए और यह कहते हुए शत्रु सैनिकों पर टूट पड़े कि यदि महाराज पहुंचे नहीं तो बाजी मरेगा कैसे? कुछ ही देर बाद, महाराज दौड़ते हुए विशालगढ़ पहुंचे। उन्होंने गढ़ की सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते ही आदेश दिया कि तोप से एक धमाका किया जाय। आदेश का तुरन्त पालन हुआ। नीचे लड़ते हुए बाजीप्रभु देशपांडे ने तोप के धमाके की आवाज सुनी और उनके चेहरे पर संतोष की मुस्कान छा गई। शिवाजी महाराज सकुशल विशालगढ़ पहुंच चुके थे। सिद्धि का हमला असफल सिद्ध हो चुका था। बीजापुर के आदिलशाह को एक और जबरदस्त आघात पहुंचा था। अब बाजीप्रभु मर सकता था।
300 मराठे खेत रहे। परन्तु उन्होंने कुछ बेशकीमती घण्टों तक सिद्धि की सेना को घोड़खिंड तक रोक रखा था। शिवाजी महाराज जीवित सिद्धि के घेरे से निकल गए थे। अगले बीस वर्ष में शिवाजी महाराज ने हिंदवी साम्राज्य की नींव तो रखी ही, योद्धाओं की एक ऐसी संस्कृति विकसित की जिसने आने वाले दशकों में छत्रपति संभाजी, ताराबाई, संताजी घोरपड़े, धनाजी जाधव और बाजीराव पेशवा जैसे अनमोल रणवीर उत्पन्न किए, जिन्होंने अगले 100 से भी अधिक वर्ष तक भारत के विशाल भाग पर राज्य किया और सनातन के क्षरण को रोक हिन्दू संस्कृति का ध्वज लहराया।
मराठों का अगले 120 वर्ष का गौरवशाली इतिहास शायद लिखा ही नहीं जाता यदि 13 जुलाई 1660 की उस गुरुपूर्णिमा को शिवा काशिद, बाजीप्रभु देशपांडे और उनके सैनिक अपने प्राण न्योछावर कर शिवाजी महाराज के प्राण नहीं बचाते! महाराज ने मराठों के रक्त से पावन हुए इस गलियारे का नाम बदल कर पावनखिंड कर दिया।
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