दक्षिण-पंथी विरोधी मतदाताओं के मत न बँटें और दक्षिणपंथी पार्टी सत्ता में न आ जाए, इसलिए प्रत्याशियों ने नाम वापस लिया और दो वैचारिक विरोधियों ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया! यह रणनीति आपको कुछ सुनी-सुनी या परिचित लग रही होगी और लग रहा होगा कि इस रणनीति पर ही तो अभी हाल ही में भारत में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनाव लड़े गए थे। यह भी देखा गया था कि कैसे केवल भाजपा सत्ता में न आने पाए, इसलिए घोर विरोधी आम-आदमी पार्टी और कॉंग्रेस एक साथ आए, कॉंग्रेस से टूटकर बनी तृणमूल कॉंग्रेस और कांग्रेस जहां बंगाल में एक दूसरे के साथ लड़ते हुए नजर आए तो वहीं एक गठबंधन में नजर आए।
वाम दल और कांग्रेस केरल में एक दूसरे के खिलाफ होकर भी भाजपा विरोधी वृहद गठबंधन का हिस्सा बने रहे और जिनका एकमात्र उद्देश्य था भाजपा को सरकार में आने से रोकना। यद्यपि वे भाजपा को नुकसान पहुंचाने में सफल रहे, परंतु एनडीए की सरकार बनने से नहीं रोक पाए। यह सही है कि इंडी गठबंधन वाले अपनी नैतिक जीत की घोषणा करते हैं, मगर अंतिम सत्य यही है कि वे तीसरी बार भी श्री नरेंद्र मोदी को भारत का प्रधानमंत्री बनने से नहीं रोक पाए।
भाजपा को रोकने के लिए फेमिनिस्ट वर्ग उसी प्रकार से विरोध में था, जैसा फ्रांस में है। यह सही है कि वह जमीन पर इस प्रकार सामने नहीं आया था, क्योंकि एक सच्चाई यह भी है कि फेमिनिस्ट कविता लिखने वाली फेमिनिस्ट लेखिकाओं को इस सरकार में पर्याप्त मंच और अवसर प्राप्त होते रहते हैं, क्योंकि सरकार किसी की भी हो, सिस्टम तो हमारा है, के सिद्धांत पर वे चलती हैं। खैर, बात अभी फ्रांस के चुनावों की। फ्रांस में फेमिनिस्ट आंदोलन कर रही हैं कि नेशनल रैली पार्टी की सरकार कहीं न बन जाए।
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अब इससे और कदम सामने आया है कि मैक्रोन का समर्थन करने वाले एवं लेफ्ट पार्टीज़ के समर्थक इस लिए अपना नाम चुनावों से वापस ले रहे हैं कि जिससे नेशनल पार्टी का विरोध करने वाले लोगों के वोट विभाजित न हो जाएं।
कहीं मतों का विभाजन न हो जाए और नेशनल रैली जीत न जाए, इसलिए मतों का विभाजन रोकने के लिए दूसरे चरण की वोटिंग से पहले लगभग 200 लोगों ने अपना नाम वापस ले लिया है। जिन लोगों ने नाम वापस लिया है, उनमें से अधिकतर फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रोन के सहयोगी हैं या फिर लेफ्ट पार्टीज़ के सहयोगी।
मैक्रोन ने कहा कि उनकी प्राथमिकता केवल नेशनल रैली को रोकना है और वे “कट्टर लेफ्ट विचारों” वाले प्रत्याशियों का भी समर्थन लेने पर विचार कर रहे हैं।
क्या यह संयोग है कि जहां एक ओर राष्ट्रवादी दलों का उभार हो रहा है, या इन्हें राष्ट्रवादी न कहकर आतंकवाद का विरोध करने वाली एवं अपने देश की पहचान के प्रति संवेदनशील पार्टी कहा जाए तो उचित होगा, तो वहीं दूसरी ओर इन्हें हर कीमत पर हराने के षड्यंत्रों और प्रयासों का भी उभार हो रहा है? भारत में भारतीय जनता पार्टी को ऐसी पार्टी के रूप में जाना जाता है, जो सांस्कृतिक पहचान की बात करती है। जिसके एजेंडे में विभाजनकारी धारा 370 हटाने जैसे मामले थे और जिसके एजेंडे में नाम और पहचान बदलकर प्रेम संबंधों में फँसाने को लेकर सजा है।
नाम और पहचान छिपाकर प्रेम संबंधों में फंसाना या कहें लव जिहाद, केवल भारत की समस्या नहीं है बल्कि ग्रूमिंग जिहाद से ब्रिटेन भी त्रस्त है। फ्रांस में भी शरणार्थियों के आने के बाद लड़कियों के प्रति हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं, अपराध बढ़े हैं। नेशनल पार्टी का कहना है कि वह फ्रांस में बढ़ते इस्लामीकरण का विरोध करते हैं। और उन्होनें सार्वजनिक स्थानों पर हिजाब पर प्रतिबंध लगाने की बात की है।
ये बातें इस्लामोफोबिक कही जा रही हैं, मगर जो भी फ्रांस की संस्कृति को बचाए रखना चाहता है, उसके लिए यह इस्लामोफोबिक नहीं बल्कि अपनी सांस्कृतिक पहचान को बचाए रखने का एक प्रयास है। हिजाब न ही भारत की और न ही फ्रांस की पहचान है। नेशनल रैली की नेता मरीन ले पेन का एक भाषण एक्स पर वायरल है, जिसमें वह कह रही हैं कि वे वर्चस्ववादी लोग जो फ्रांस को नष्ट करना चाहते हैं, उन्हें हटाया जाना चाहिए। इस्लामी मानसिकता वाले वे लोग जिनके पास दोहरी नागरिकता है, उनकी नागरिकता लेकर उन्हें निष्कासित किया जाना चाहिए और वे फ्रांसीसी लोग जिन्होनें शत्रु की विचारधारा को अपना लिया है, उन्हें कानून के शिकंजे में लाया जाना चाहिए।
नेशनल रैली ने पहले दौर के चुनाव में बढ़त बनाई है और दूसरा दौर निर्णायक होगा। यही कारण है कि मैक्रोन के सहयोगी और लेफ्ट पार्टीज़ के सहयोगी नेता अपना नाम चुनावों से वापस ले रहे हैं, जिससे कि नेशनल रैली के विरोधी मतों का विभाजन होने से रोका जा सके।
ऐसा लगता है कि भारत इस प्रयोग की पहली प्रयोगशाला थी कि जिसमें आपस के धूर विरोधी केवल भारतीय जनता पार्टी को सरकार बनाने से रोकने के लिए एकसाथ आ गए थे और उनकी प्राथमिकता मात्र नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद से हटाने की रह गई थी। उनकी प्राथमिकता मात्र उस अराजकता की रह गई थी, जो लेफ्ट लाबी हमेशा से चाहती है।
कमजोर सरकार, जिसे वह अपनी मर्जी से संचालित कर सकें। एक ऐसी सरकार जिसमें वह कम्युनिस्ट विचारधारा का वही जहर फिर से डाल सके, जो पिछले दस वर्ष की सरकार के बाद अभी तक अकादमिक और कला के क्षेत्र मे व्याप्त है।
ले पेन की पार्टी को रोकने के लिए कहा जा रहा है कि मैक्रोन ने भी कमर कस ली है और यही कारण है कि उन्होनें मंगलवार को मंत्रियों के साथ बंद कमरे में बैठक ली है। ऐसा कहा जा रहा है कि मैक्रोन ने जो अब रणनीति बनाई है उसमें त्रिकोणीय मुकाबले के स्थान पर केवल दो ही प्रत्याशियों के बीच मुकाबला होगा, जिसमें एक ओर नेशनल रैली के प्रत्याशी होंगे और दूसरी ओर उसके विरोधी।
अब सभी की दृष्टि रविवार को होने वाले दूसरे दौर के चुनावों पर है। यही दिन तय करेगा कि फ्रांस का भविष्य क्या होगा। मगर ऐसा लगता है कि वैश्विक कम्युनिस्ट अब खुलकर लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं को अपने एजेंडे के अनुसार मरोड़ने के क्रम में आ गए हैं। इसमें वे लोकतान्त्रिक विकल्प समाप्त कर देना चाहते हैं और विशेषकर उन्हें समाप्त करना चाहते हैं, जो अपनी संस्कृति को साथ लेकर चलने की लगातार बातें करते हैं।
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