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अमेरिकी कानून बनाम चीनी जुनून

अमेरिकी सांसदों की भारत यात्रा, दलाई लामा से भेंट व तिब्बत संबंधी नए अमेरिकी कानून न केवल दलाई लामा और तिब्बत, बल्कि भारत के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण और नई संभावनाओं से भरे हैं। चीन ने तिब्बत के संदर्भ में अमेरिकी कानूनों पर भले ही तीखी आलोचना की है, लेकिन सच यह है कि राष्टÑपति शी की तिब्बत नीति पर बड़ा आघात लगा है

by विजय क्रांति
Jul 4, 2024, 07:30 am IST
in विश्व, विश्लेषण
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग

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चीन ने अमेरिकी संसद में तिब्बत के संबंध में पारित नए कानून के विरुद्ध तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। उसने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को इसके दुष्परिणाम भुगतने की धमकी भी दी है। इस कानून के तहत चीन और तिब्बत के संबंध में अमेरिका ने नई नीति निर्धारित की है। चीन ने अमेरिकी सांसदों के एक उच्च स्तरीय द्विदलीय समूह के भारत में दलाई लामा से की गई मुलाकात पर भी अपमानजनक टिप्पणी की है। बीजिंग की बेचैनी में राष्ट्रपति शी जिनपिंग और उनकी सरकार की अपने खास उपनिवेश तिब्बत से जुड़ी संवेदनशीलता और आशंका पूरी तरह से उजागर हुई है।

अमेरिकी कांग्रेस (संसद) के दोनों सदनों में इस महीने एक ऐतिहासिक नया विधेयक पारित हुआ जिसमें कहा गया है कि चीनी सरकार तिब्बत मुद्दे को निर्वासित दलाई लामा और उनके प्रतिनिधियों के साथ सौहादर्पूर्ण बातचीत से सुलझाए। इस विधेयक से राष्ट्रपति शी जिनपिंग आगबबूला हैं क्योंकि वैसे तो इसे ‘रिजाल्व तिब्बत एक्ट’ का नाम दिया गया है। इसमें लिखी शर्तें इसी तरह के पिछले दो विधेयकों की तरह तिब्बत को अपना उपनिवेश मानने वाली चीनी सरकार के हर दावे को चुनौती दे रही हैं।

अनुमान है कि आने वाले दिनों में बाइडेन इस विधेयक पर हस्ताक्षर कर देंगे जिसके बाद यह विधेयक अमेरिकी संविधान का एक अधिनियम बन जाएगा, जो पिछले दो विधेयकों, अर्थात तिब्बत पॉलिसी एक्ट-2002 और तिब्बत पॉलिसी एंड सपोर्ट एक्ट-2019 के साथ जुड़कर अमेरिका के सभी भावी राष्ट्रपतियों और सरकार के सभी अंगों को चीनी सरकार और उसके नेताओं द्वारा उठाए गए किसी भी तिब्बत विरोधी कदम के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की खुली छूट दे देगा। इन अमेरिकी कानूनों में इस बात पर विशेष जोर दिया गया है कि वर्तमान दलाई लामा के निधन की स्थिति में बीजिंग और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी तिब्बत और तिब्बती लोगों पर उनके चुने दलाई लामा को थोपने का कोई भी प्रयास न करें।

सर्वसम्मति से पारित हुआ विधेयक

प्रतिनिधिमंडल की यात्रा का समय, इसमें शामिल चेहरे और इन अमेरिकी विधेयकों का वास्तविक स्वरूप, धमर्शाला में दलाई लामा की निर्वासित सरकार और भारत की चीन-तिब्बत नीति, दोनों के लिए विशेष महत्व रखते हैं। अमेरिकी हाउस आफ रीप्रजेंटेटिव में विधेयक के अंतिम संशोधित मसौदे के पारित होने के तुरंत बाद प्रतिनिधिमंडल की भारत यात्रा एक मजबूत संदेश देती है कि अमेरिका के दोनों राजनीतिक दल इस नीति को भारत में दलाई लामा के साथ साझा करने के लिए प्रतिबद्ध और उत्साहित हैं। इस विधेयक का मूल नाम ‘एचआर-533’ था जो इस वर्ष फरवरी में प्रतिनिधि सभा में लगभग सर्वसम्मति से पारित हुआ था। लेकिन जून में सीनेट द्वारा इसमें कुछ संशोधन किए गए और 12 जून को प्रतिनिधि सभा ने इसे पुन: पारित कर दिया।

यह कोई संयोग नहीं कि प्रतिनिधिमंडल उसी समय नई दिल्ली पहुंचता है जिस समय अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन अपने भारतीय समकक्ष और मोदी सरकार के अन्य वरिष्ठ नेताओं के साथ उच्च स्तरीय चर्चा के लिए भारत के दौरे पर थे। नरेन्द्र मोदी द्वारा भारत के प्रधानमंत्री के रूप में अपना तीसरा कार्यकाल शुरू करने के तुरंत बाद अमेरिकी एनएसए के नई दिल्ली आगमन की राजनीतिक अहमियत राजनयिक समुदाय की नजरों से छिपी नहीं।

नई दिल्ली में भारतीय अधिकारियों और नेताओं के साथ अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल की अन्य बैठकों और शिष्टाचार मुलाकातों में तिब्बत मुद्दे पर उनके साझा हितों और उनके विस्तार से जुड़े आयामों पर निश्चित रूप से विचार विमर्श हुआ होगा। साथ ही कोई भी पर्यवेक्षक इस बिन्दु को नजरअंदाज नहीं कर सकता कि तिब्बत पर अमेरिका का लगातार बढ़ता हस्तक्षेप सीधे तौर पर शी जिनपिंग की अमेरिका को बौना कर खुद महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा से उपजे खतरे को परास्त करने की रणनीति है। आखिरकार, तिब्बत चीन का सबसे संवेदनशील विषय है।

अमेरिकी कांग्रेस का द्विदलीय सात सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल रिपब्लिकन प्रतिनिधि माइकल मैककॉल के नेतृत्व में 18 जून को धमर्शाला पहुंचा था। इसमें प्रसिद्ध डेमोक्रेट और पूर्व स्पीकर नैन्सी पेलोसी भी शामिल थीं, जिनकी दो साल पहले की ताइवान यात्रा से चीन भड़क उठा था और ताइवान के खिलाफ युद्ध करने के लिए आमादा हो गया था। अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के अन्य सदस्यों में हाउस फॉरेन अफेयर्स कमेटी रैंकिंग सदस्य ग्रेगरी डब्ल्यू मीक्स (डी-एनवाई), हाउस रूल्स कमेटी रैंकिंग सदस्य जिम मैकगवर्न (डी-एमए), इंडो-पैसिफिक हाउस फॉरेन अफेयर्स सब-कमेटी रैंकिंग सदस्य एमी बेरा (डी-सीए) और मैरिएनेट मिलर-मीक्स (आर-आईए) और निकोल मैलियोटाकिस (आर-एनवाई) शामिल थे।

इस यात्रा में इन वरिष्ठ अमेरिकी नेताओं के साथ उनके परिवार के सदस्य भी आए थे जो दलाई लामा से मिलने के लिए उत्सुक थे। यह उनके व्यक्तिगत भावनात्मक लगाव को दर्शाता है। प्रतिनिधिमंडल ने दलाई लामा के साथ एक विशेष बैठक की और निर्वासित तिब्बती संसद भवन में निर्वासित तिब्बती सरकार के निर्वाचित राष्ट्रपति पेनपा त्सेरिंग द्वारा उनका औपचारिक स्वागत किया गया। यात्रा के समापन पर दलाई लामा के निवास के सामने स्थित मुख्य तिब्बती मंदिर परिसर में भारी संख्या में उपस्थित होकर तिब्बती लोगों की उत्साही भीड़ ने अमेरिकी सांसदों का स्वागत किया और उनके सम्मान में रंगारंग कार्यक्रम प्रस्तुत किए।

दलाई लामा के साथ अमेरिकी सांसदों का उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल

तिब्बत संबंधी अमेरिकी विधेयक-
ये हैं प्रमुख सात बिंदु

  •  ‘तिब्बत एक अधिक्रांत देश है और तिब्बत का मुद्दा अभी अनसुलझा है।’ अर्थात अमेरिकी सरकार न केवल तिब्बत की स्थिति को चीन के उपनिवेश के रूप में मान्यता दे रही है, बल्कि यह भी मानती है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत नियमों और मूल्यों के अनुसार तिब्बत के मुद्दे को सुलझाना विश्व समुदाय की जिम्मेदारी है। 1951 में चीन द्वारा तिब्बत पर अधिकार करने के बाद पहली बार किसी सरकार ने औपचारिक रूप से तिब्बत को उपनिवेश के रूप में स्वीकार किया है। दूसरे देशों के साथ बातचीत में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हमेशा तिब्बत को मुख्य मुद्दा और एक चीन नीति का अहम विषय घोषित किया है।

  •  ‘ऐतिहासिक तौर पर तिब्बत कभी भी चीन का हिस्सा नहीं रहा।’ अमेरिका का यह दावा शी जिनपिंग और चीन की पिछली सरकारों के दावों को पूरी तरह से नकारता और चुनौती देता है कि तिब्बत हमेशा से चीन का अभिन्न अंग रहा है। उल्लेखनीय है कि 2002-2008 में चीन और निर्वासित दलाई लामा के बीच हुई वार्ता की विफलता के पीछे प्रमुख कारण यह था कि दलाई लामा ने चीन की मांग को औपचारिक रूप से स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। चीन और तिब्बत दोनों अलग-अलग देश हैं, इस बात पर अडिग रहते हुए दलाई लामा बस इतनी छूट देने के लिए तैयार थे कि तिब्बत चीनी संविधान के तहत काम करेगा, बशर्ते बीजिंग तिब्बत को वास्तविक स्वायत्तता प्रदान करे।

  •  अमेरिकी विधेयक ‘तिब्बत’ की भौगोलिक परिभाषा को ‘तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र’ (टीएआर) तक सीमित नहीं करता, जबकि शी जिनपिंग और चीनी सरकारें चाहती रही हैं कि दलाई लामा और अन्य देश तिब्बत को इसी रूप में स्वीकारें। अमेरिकी कांग्रेस के अनुसार, तिब्बत के अंतर्गत तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र और मूल तिब्बत के खाम और अमदो के पूर्व प्रांतों का पूरा क्षेत्र शामिल है। 1960 के दशक में चीन ने तिब्बत को पुनर्गठित कर तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र (वास्तविक तिब्बत का लगभग एक तिहाई हिस्सा) बनाया और खाम और अमदो के क्षेत्रों को पड़ोसी चीनी प्रांतों-युन्नान, सिचुआन, किंगहाई और गांसु- में बांट दिया। तिब्बत क्षेत्र की भौगोलिक परिभाषाओं में भिन्नता भी बीजिंग-धमर्शाला वार्ता के विफल होने के कारणों में से एक थी, क्योंकि दलाई लामा पक्ष ने चीनी दावे को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था कि केवल तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र ही तिब्बत है।

  •  पूर्व अमेरिकी विधेयकों में यह कहा गया था कि चीन दलाई लामा और उनके प्रतिनिधियों के साथ बिना किसी पूर्व शर्त के बातचीत शुरू करे। लेकिन नवीनतम विधेयक ने प्रतिनिधियों की परिभाषा का विस्तार करते हुए इसमें ‘तिब्बत के निर्वाचित प्रतिनिधियों’ को भी शामिल कर दिया है, अर्थात अब इस सूची में केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) भी शामिल है। व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो अब इसमें ‘सिक्योंग’ (निर्वाचित राष्ट्रपति) और निर्वासित तिब्बती संसद शामिल है और यह केंद्रीय तिब्बती प्रशासन को वास्तविक तिब्बत सरकार के तौर पर मान्यता देने का पक्षधर है। इससे तिब्बती पक्ष के सामने ज्यादा समय मिलने के अवसर खल रहे हैं, क्योंकि एक मनुष्य होने के नाते दलाई लामा की आयु सीमित है जबकि एक निर्वाचित संसद का जीवनकाल तब तक कायम रहेगा जब तक तिब्बती शरणार्र्थी समुदाय जीवित रहेगा। जाहिर है कि अमेरिकी कांग्रेस की यह पहल राष्ट्रपति शी की उन उम्मीदों पर पानी फेरती है कि वतर्मान दलाई लामा के जीवन के बाद तिब्बती मुद्दा स्वयं ही समाप्त हो जाएगा।

  •  दलाई लामा और अन्य वरिष्ठ तिब्बती ‘तुल्कुओं’ (अवतारी लामाओं) के पुनर्जन्म के मुद्दे पर अमेरिकी विधेयकों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अगले दलाई लामा या अन्य तुल्कुओं का चयन, राज्याभिषेक और शिक्षा वतर्मान दलाई लामा और तिब्बती समुदाय का विशेषाधिकार है और इस मामले में चीन या सीसीपी का कोई अधिकार नहीं है। इसके अलावा, ये विधेयक अमेरिका के भावी राष्ट्रपतियों और अमेरिकी आधिकारिक एजेंसियों को यह अधिकार देते हैं कि वे चीनी सरकार को उसके चुने अगले दलाई लामा को सिंहासन पर बैठाने से रोक सकते हैं। यह अमेरिकी राष्ट्रपति और विदेश कार्यालय को उन सभी चीनी नेताओं और अधिकारियों के खिलाफ दंडात्मक कारर्वाई करने का निर्देश भी देता है जो नए दलाई लामा की चयन प्रक्रिया में लिप्त हों। इन सब से शी जिनपिंग की हिम्मत पस्त हो गई है जो दलाई लामा के जीवन के अंत का इंतजार कर रहे हैं, ताकि वे तिब्बत पर सीसीपी की पसंद का दलाई लामा थोप सकें।

  •  विधेयक में अमेरिकी सरकार से तिब्बत के मुद्दे पर समर्थन जुटाने के लिए दुनिया भर में समान विचारधारा वाली लोकतांत्रिक सरकारों के एक अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक गठबंधन के निर्माण की विशेष पहल करने का आह्वान किया गया है। यह तिब्बत को मुख्य मुद्दा और चीन का आंतरिक मामला बताने वाले शी के दावे को सीधी चुनौती है। अमेरिकी कांग्रेस के इस विचार ने उन सभी देशों के लिए नए दरवाजे खोल दिए हैं, जो चीन की उभरती शक्ति को अपनी संप्रभुता और सुरक्षा के लिए खतरा मान रहे थे। खासकर भारत, नेपाल और भूटान जैसे देश, जिनके लिए तिब्बत एक कवच के समान था, पर चीन उस पर अवैध और औपनिवेशिक अधिकार जमाने के बाद आक्रामक हो गया है और उन्हें परेशान करता रहता है। हाल ही में कनाडा की संसद में भी इसी तरह का एक विधेयक के पारित हुआ है। यह यूरोपीय संसद में उभरते नए रुख का संकेत है। अमेरिका का अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक गठबंधन तैयार करने का विचार संभावनाओं से पूर्ण है।

  •  पिछले अधिनियमों में अमेरिका के भावी राष्ट्रपतियों को अमेरिका में तब तक किसी भी नए चीनी वाणिज्य दूतावास कार्यालय की स्थापना पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का अधिकार दिया गया है, जब तक कि चीन अमेरिका को ल्हासा में अपना पूर्ण स्वतंत्र वाणिज्य दूतावास खोलने की अनुमति नहीं देता। अमेरिका की इस पहल का भारत सरकार को स्वागत करना चाहिए, क्योंकि नई दिल्ली ल्हासा में अपने वाणिज्य दूतावास को फिर से खोलने का (असफल) प्रयास कर रही है, जो तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा 1954 में किए गए विवादास्पद पंचशील समझौते के कारण जटिल हो गया है क्योंकि उन्होंने इस समझौते के तहत स्वेच्छा से इस विशेषाधिकार और कई अन्य विशेषाधिकारों को भी चीन को सौंप दिया था। उन्होंने तिब्बत में तीन भारतीय व्यापार मिशनों के साथ भारतीय वाणिज्य दूतावास को भी बंद कर दिया। दिलचस्प बात यह है कि नेहरू ने तिब्बत में भारतीय सशस्त्र सैनिकों की एक टुकड़ी रखने का अधिकार और टेलीफोन, टेलीग्राफ और डाक सुविधाओं को बरकरार रखने का अधिकार केवल इस आधार पर छोड़ दिया कि ये साम्राज्यवाद की निरंकुशता के प्रतीक हैं।

बीजिंग का बर्ताव धमकीभरा

इधर, बीजिंग का गुस्सा सातवें आसमान पर था। बीजिंग में चीनी प्रवक्ता ने अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल की यात्रा पर गंभीर आपत्ति जताई और मांग की कि अमेरिका को पूर्णरूपेण मानना होगा कि ‘दलाई समूह चीन विरोधी अलगाववादी प्रवृत्ति का पोषण कर रहा है।’ चीन ने अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन को आगाह करते हुए धमकी भरे लहजे में घोषणा की है कि ‘चीन अपनी संप्रभुता, सुरक्षा और विकास हितों की दृढ़ता से रक्षा करने के लिए कड़े कदम उठाएगा।’ बीजिंग में विदेशी मीडिया को संबोधित करते हुए चीनी प्रवक्ता लिन जियान ने अमेरिकी सरकार से मांग की कि वह ‘किसी भी रूप में दलाई समूह से कोई संपर्क न रखे और दुनिया को गलत संदेश भेजना बंद करे।’

नई दिल्ली में चीनी दूतावास के प्रवक्ता ने अपने आधिकारिक एक्स-हैंडल का उपयोग करते हुए अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल को चीनी पक्ष से अवगत कराया कि चीन हमेशा से कहता आया है कि दलाई लामा का चयन उसका विशेषाधिकार रहा है। उन्होंने यहां तक दावा किया कि वतर्मान दलाई लामा, जो पांच शताब्दी पुरानी परंपरा में 14वें लामा हैं, का चयन और राज्याभिषेक 1940 में ल्हासा समारोह में चीनी प्रतिनिधि द्वारा किया गया था। लेकिन यह झूठा दावा पेश करते समय वह भूल गए कि यह तो ऐतिहासिक दस्तावेजों में दर्ज है कि उस समय समारोह का आयोजन विशेष रूप से तिब्बती सरकार द्वारा किया गया था और इसमें कई अंतरराष्ट्रीय राजनयिक प्रतिनिधियों और अन्य मेहमानों ने भाग लिया था। उस कार्यक्रम में चीनी प्रतिनिधि भी मात्र अतिथि के रूप में समारोह में शामिल थे।

धमर्शाला में दलाई लामा से मुलाकात के दौरान भी प्रतिनिधिमंडल के अगुआ मैककॉल ने बताया भारत की यात्रा पर निकलने के ठीक पहले दल के सदस्यों को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का भेजा पत्र मिला था जिसमें उन्हें धमर्शाला न जाने की ताकीद दी गई थी। उन्होंने कहा, ‘‘लेकिन हम पर सीसीपी की चेतावनी का कोई असर नहीं पड़ा…हम उनकी धमकी को अंगूठा दिखाकर यहां आए हैं।’’ तिब्बती संसद की युवा सदस्य सुश्री यूडन औकात्सांग ने कहा, ‘‘यह इतने उच्च स्तरीय विदेशी प्रतिनिधिमंडल की ऐतिहासिक यात्रा है और वह भी अमेरिकी संसद में तिब्बत पर एक विधेयक पारित होने के बाद। यह विधेयक तिब्बत की स्थिति और इतिहास पर चीनी प्रचार के हर झूठ को चुनौती देता है। मैंने मैकलियोडगंज में किसी विदेशी प्रतिनिधिमंडल का तिब्बती समुदाय द्वारा इतना गर्मजोशी भरा सार्वजनिक स्वागत पहले कभी नहीं देखा।’’

एक अन्य तिब्बती कार्यकर्ता और प्रसिद्ध बुद्धिजीवी तेनजिन त्सुंडू ने कहा ‘‘तिब्बती स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में पहली बार कोई देश तिब्बत के समर्थन में खुलकर औपचारिक रूप से सामने आया है और स्पष्ट रूप से कह रहा है कि तिब्बत एक अधिकृत देश है और तिब्बत कभी भी चीन का हिस्सा नहीं रहा है। इससे तिब्बत पर एक नए अंतरराष्टÑीय विमर्श के द्वार खलेंगे और चीन द्वारा तिब्बत पर जमाए औपनिवेशिक नियंत्रण को चुनौती मिलेगी।’’

सबसे महत्वपूर्ण हैं वे बातें जो अमेरिकी कांग्रेस द्वारा पारित 2002, 2019 और 2024 के सभी विधेयकों में प्रस्तुत की गई हैं, जिनमें अमेरिका की तिब्बत को समर्थन देने की वास्तविक भावना दिखाई दे रही है। जहां ‘तिब्बत सपोर्ट एक्ट-2002’ पिछले दशकों के दौरान अमेरिकी प्रशासन द्वारा पेश सभी अमेरिकी कांग्रेस प्रस्तावों, कानूनों और आदेशों को पुनर्गठित करने का एक प्रयास था, वहीं शेष दो विधेयक पहले विधेयक में परिभाषित तिब्बत के संबंध में अमेरिका की भावी रणनीति और योजनाओं को नए कलेवर में प्रस्तुत करने के माध्यम हैं। संक्षेप में, इन विधेयकों में कम से कम सात प्रमुख दावों और बिंदुओं को रेखांकित किया गया है जो तिब्बत पर शी जिनपिंग के हर दावे और कथन को स्पष्ट रूप से चुनौती देते हैं और उन्हें ध्वस्त कर रहे हैं। कुल मिलाकर, तिब्बत और चीन के संबंध में अमेरिका का यह कदम शी जिनपिंग की ‘एक चीन नीति’ को खारिज करता दिख रहा है।

ईश्वर प्रेरित अवसर

यह एक सुनहरा अवसर है जब नया अमेरिकी कानून औपचारिक और स्पष्ट तरीके से वह सब कुछ कह रहा है जो भारत चीन को कहना चाहता रहा, लेकिन कभी भी स्पष्ट शब्दों में कहने का साहस नहीं कर पाया। अब समय आ गया है कि नई दिल्ली इसे ईश्वर प्रेरित अवसर के रूप में ग्रहण करे और प्रस्तावित अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक गठबंधन में शामिल हो। भारत ऐसे गठबंधन को दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के उन दर्जन भर देशों तक विस्तारित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, जो चीन की धौंस झेलने के लिए विवश हैं, क्योंकि तिब्बत की नदियों पर उसका नियत्रण है। सदियों से ये देश तिब्बती नदियों पर ही निर्भर रहे हैं, लेकिन आज चीन द्वारा उन नदियों का अत्यधिक दोहन करने से उन पर लगातार सूखे का भय मंडरा रहा है। वहीं भारत और बांग्लादेश जैसे देशों को यह आशंका सता रही है कि चीन की कुंठित प्रवृत्ति नदियों की जलराशि को बाढ़ के रूप में उनके क्षेत्र में प्रवाहित करने की साजिश न रचने लगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, तिब्बत विशेषज्ञ और सेंटर फॉर हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के अध्यक्ष हैं)

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