असम में ‘मंशा’ नाम से एक स्वयं सहायता समूह है। इसके माध्यम से बड़ी संख्या में ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में लोग स्वावलंबी बन रहे हैं। एक ऐसी ही महिला हैं रूपा गोस्वामी। इन्होंने ‘मंशा’ समूह के माध्यम से ‘असम राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन’ से 30,000 रु. ऋण लेकर पशुपालन का कार्य शुरू किया। आज रूपा पूरी तरह स्वावलंबी ही नहीं हैं, बल्कि दूसरों को भी स्वावलंबी बनने में मदद कर रही हैं। ‘मंशा’ समूह लखीमपुर जिले के करुणाबाड़ी खंड में सक्रिय है। यह संस्था अपने सदस्यों को ‘असम राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन’ जैसे संगठनों से कर्ज दिलाने में मदद करती है।
किसी भी अन्य ग्रामीण महिला की तरह रूपा गोस्वामी भी ‘मंशा’ समूह की सदस्य बनने तक अपने घर की चारदीवारी से आगे नहीं सोच सकती थीं। मंशा में शामिल होने के बाद उन्होंने कई प्रशिक्षण प्राप्त किए। इसके बाद वह परिवार की आय में योगदान करने लगीं। एक अच्छी गृहिणी होने के नाते उन्हें विश्वास था कि वह भी अपने घर के परिसर में दैनिक घरेलू कार्यों के साथ-साथ कुछ कर सकती हैं। इसके लिए उन्होंने पशुपालन को चुना। उन्हें लगा कि इसे वह आसानी और रुचि के साथ कर सकती हैं।
यही कारण है कि वह आज सफल हैं। पहली बार उन्होंने 30,000 रु. का जो कर्ज लिया था, उसे वह दूध बेचकर लौटा चुकी हैं। यह शुरुआती कर्ज आर्थिक स्वतंत्रता की ओर उनकी पहली यात्रा थी। कर्ज चुकाने के बाद उन्होंने कुछ पैसे की बचत भी कर ली है। इससे उनका हौंसला बढ़ा और अपना काम बढ़ाने के लिए फिर से कर्ज ले लिया है। इस समय उन पर 1,00,000 रुपए का कर्ज है। उन्हें भरोसा है कि यह कर्ज भी आसानी से चुकता कर दिया जाएगा।
वर्तमान में उनके पास सात दुधारू मवेशी (जर्सी) हैं, जिनसे उन्हें प्रतिदिन 40 से 50 लीटर दूध मिल जाता है। इस दूध को वह 50 रुपए प्रति लीटर में बेचती हैं। इसके साथ ही दही और पनीर भी बनाती हैं। इन सभी चीजों की खपत आसपास में ही हो जाती है। इस कारण उन्हें कोई परेशानी नहीं होती है वह निरंतर आगे बढ़ रही हैं। हर महीने 35-40 हजार रुपए कमा लेती हैं। पहले यही रूपा एक-एक पैसे की मोहताज रहती थीं। वे कहती हैं, ‘‘मंशा समूह ने मेरे जैसी सैकड़ों महिलाओं की इच्छा पूरी की है।’’ उन्होंने यह भी कहा कि देश में सहकारी समितियों को और मजबूत किया जाना चाहिए। इनकी मजबूती से आम लोग आर्थिक रूप से मजबूत बनेंगे।
सफलता के बाद रूपा का आत्मविश्वास जबर्दस्त रूप से बढ़ा है। अब उनकी इच्छा है कि उनके पास इतने पशु हों कि रोजाना 150 लीटर दूध मिले। वह यह भी कहती हैं कि दूध और उसके उत्पादों की मांग सदैव रहती है। इसलिए कभी डेयरी उद्योग असफल नहीं हो सकता है। इसलिए उनका कहना है कि ग्रामीण क्षेत्र की वे महिलाएं, जो विशेष कुछ नहीं करती हैं, उन्हें पशुपालन का काम करना चाहिए।
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