संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट कुछ समय पहले ही आई है, जिसके आंकड़े बता रहे हैं कि वैश्विक अनुमान के अनुसार करोड़ों लड़कियों की शादी 18 साल की उम्र से पहले हो जाती है।
इनमें से एक तिहाई मामले अकेले भारत के हैं। भारत को लेकर रिपोर्ट कहती है कि 20 करोड़ से अधिक महिलाओं का विवाह बचपन में ही हो गया था । विश्व स्तर पर सतत विकास लक्ष्य रिपोर्ट 2024 के अनुसार, पांच में से एक लड़की की शादी 18 वर्ष की आयु से पहले हो जाती है, जबकि 25 वर्ष पहले यह संख्या चार में से एक थी। इस सुधार ने पिछली तिमाही सदी में लगभग 68 करोड़ बाल विवाहों को रोके जाने पर विभिन्न एजेंसियों ने काम किया है।
इन प्रगतियों के बावजूद, संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि दुनिया लैंगिक समानता के मामले में पीछे रह गई है। लैंगिक असमानता के क्षेत्र में भी चुनौतियां व्याप्त हैं। सर्वेक्षण वाले 120 देशों में से लगभग 55 प्रतिशत देशों में महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव पर पाबन्दी लगाने वाले कानून नहीं हैं। महिलाओं के खिलाफ हिंसा और कई महिलाओं के लिए उनके यौन और प्रजनन स्वास्थ्य के मामले में स्वायत्तता की कमी जैसे मुद्दे अभी भी बने हुए हैं। मौजूदा गति से, पुरुषों और महिलाओं के बीच प्रबंधन पदों में समानता हासिल करने में 176 साल लगेंगे। अब इस संपूर्ण रिपोर्ट में विचार करें भारत कहां और किस स्थिति में है। इसलिए यहां विषय भारत के संदर्भ में इस वैश्विक रिपोर्ट की गहराई से पड़ताल करने की है।
भारत के लोगों को भी यह देखना चाहिए कि आखिर यह इतनी बड़ी जनसंख्या बेटियों की जो 18 साल से कम है, वह जनसंख्या किस समाज के द्वारा सबसे अधिक बढ़ाई गई या जा रही है। हालांकि अनेक सरकारी एजेंसियां एवं पुलिस विभाग समेत स्वयंसेवी संस्थाएं भी यह लगातार चिंता करती हैं और बाल विवाह के रोकथाम के लिए भारत में सक्रिय हैं। यह भी सच है कि इनके संयुक्त प्रयासों से विवाह बहुत बड़ी संख्या में रुकते भी हैं, किंतु इसके बाद भी यदि यह आंकड़ा 20 करोड़ लड़कियों का वैश्विक स्तर पर दिखाई देता है, तब यह अचानक से तो नहीं हो सकता है।
भारत में हिंदू मैरिज एक्ट, 1955 के अनुसार, लड़की की उम्र 18 और लड़के की उम्र 21 साल होनी चाहिए, ईसाई विवाह कानून 1872, पारसी धर्म, सिख, बुद्ध, जैन समेत सभी के लिए यही विवाह की उम्र मान्य है, किंतु इस्लाम में शादी के लिए तय की गई उम्र की सीमा इससे अलग है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कहता है कि किसी लड़की या लड़के में यौवन यानी प्यूबर्टी की शुरुआत हो जाने पर उन्हें विवाह योग्य मान लिया जाता है और यह प्यूबर्टी की उम्र 14 से 15 साल में मानी जाती है । इस्लाम कई इमाम इसे लेकर समझाते हुए मिलते हैं, इनके कई वीडियो भी सोशल मीडिया पर मौजूद हैं, जिन्हें संदर्भ के तौर पर देखा भी जा सकता है। कई तो विवाह की उम्र 14 साल से भी कम बताते हुए मिल जाते हैं।
ऐसे में भारत की कम उम्र में बालिका विवाह की संख्या कौन बढ़ा रहा है, यह स्वभाविक तौर पर समझा जा सकता है । इसका अर्थ यह नहीं है कि हिन्दुओं में विवाह कम उम्र में नहीं हो रहे। ग्रामीण भारत से इस प्रकार की अनेकों शिकायतें मिलती हैं, फिर जिनको संज्ञान में लेकर पुलिस तंत्र समेत कई स्वयंसेवी संस्थाएं आगे आकर सुधार के लिए कार्य करती हुई दिखाई भी देती हैं । किंतु क्या यह सुधार भारत की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या अनुमानत: जोकि 30 करोड़ के करीब पहुंच चुकी है, उस मुस्लिम जनसंख्या के बीच भी हो रहा है ? यदि नहीं हो रहा है तो फिर छोटी उम्र में विवाह होने का यह आंकड़ा कम नहीं हो सकता है।
पिछले साल ऐसे ही एक केस की सुनवाई उच्चतम न्यायालय में हुई । सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के उस फैसले की जांच करने पर सहमति जताई थी, जिसमें कहा गया था कि मुस्लिम लड़की यौवन प्राप्त करने के बाद अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी कर सकती है। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि हाई कोर्ट के फैसले को किसी अन्य मामले में मिसाल के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए। किंतु हुआ इसमें वही जो इस्लाम का शरीयत कानून कहता है।
26 वर्षीय मुस्लिम व्यक्ति ने 16 साल की नाबालिग लड़की से शादी की थी और अपनी पत्नी की कस्टडी के लिए हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी। पंजाब पुलिस ने लड़की को इसलिए अपने कब्जे में ले लिया था क्योंकि वह नाबालिग थी। किंतु सब कुछ जानने के बाद उच्च न्यायालय ने लड़की की इच्छा के अनुसार उसकी शादी की अनुमति दे दी, विशेषकर इसलिए क्योंकि मुस्लिम कानून के तहत, लड़की की शादी यौवन प्राप्त करने के बाद भी की जा सकती है।
हाई कोर्ट के फैसले में सर दीनशाह फरदुनजी मुल्ला द्वारा विवाह की क्षमता पर लिखे गए मोहम्मडन कानून के सिद्धांतों का हवाला दिया गया। इसमें कहा गया है; प्रत्येक स्वस्थ मस्तिष्क वाला मुसलमान, जो यौवन प्राप्त कर चुका है, विवाह का अनुबंध कर सकता है। पागलों और नाबालिगों, जो यौवन प्राप्त नहीं कर पाए हैं, का उनके संबंधित अभिभावकों द्वारा वैध रूप से विवाह कराया जा सकता है। किसी स्वस्थ मस्तिष्क वाले तथा यौवन प्राप्त कर चुके मुसलमान का विवाह, यदि उसकी सहमति के बिना किया जाता है, अमान्य है। साक्ष्य के अभाव में, पंद्रह वर्ष की आयु पूरी होने पर यौवन की उपधारणा की जाती है।
जब हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ इस मामले को राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग सुप्रीम कोर्ट लेकर गया तो वहां बाल अधिकार निकाय की ओर से तर्क दिया था कि हाई कोर्ट के फैसले ने अनिवार्य रूप से बाल विवाह की अनुमति दी है और यह बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 का उल्लंघन है। बाल विवाह अधिनियम एक धर्मनिरपेक्ष कानून है और यह सभी धर्मों पर लागू होगा। एनसीपीसीआर ने यह भी तर्क दिया कि चूंकि यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 नाबालिगों द्वारा यौन गतिविधि के लिए सहमति को मान्यता नहीं देता है, इसलिए यौवन प्राप्त करने पर विवाह की अनुमति नहीं दी जा सकती।
इस मुद्दे पर कई उच्च न्यायालयों ने अलग-अलग फैसले भी हैं। जैसे कि कर्नाटक उच्च न्यायालय ने सीमा बेगम पुत्री खासिमसब बनाम कर्नाटक राज्य (2013) के मामले में कहा था कि कोई भी भारतीय नागरिक किसी विशेष धर्म से संबंधित होने के आधार पर पीसीएम के आवेदन से छूट का दावा नहीं कर सकता है । फरवरी 2021 में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक मुस्लिम जोड़े (17 वर्षीय लड़की और 36 वर्षीय व्यक्ति की शादी) को संरक्षण प्रदान किया, यह मानते हुए कि उनका विवाह व्यक्तिगत कानून के तहत वैध विवाह था। उच्च न्यायालय ने बाल विवाह निषेध अधिनियम के प्रावधानों की जांच की, लेकिन माना कि चूंकि विशेष कानून व्यक्तिगत कानूनों को खत्म नहीं करता है, इसलिए मुस्लिम कानून लागू होगा।
कुल मिलाकर आज इस्लाम एवं कुछ अन्य समाजों में भी बड़ी संख्या में बाल विवाह हो रहे हैं, जबकि बाल विवाह महिलाओं के मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है। यह बच्चियों से उनके बुनियादी अधिकारों में शिक्षा का अधिकार, आराम और अवकाश का अधिकार, मानसिक या शारीरिक शोषण से सुरक्षा का अधिकार छीनता है, जिसका परिणाम समाज में बलात्कार एवं यौन शोषण समेत अन्य अत्याचारों के रूप में सामने आता है। बाल विवाह के साथ ही किशोर गर्भावस्था एवं चाइल्ड स्टंटिंग, जनसंख्या वृद्धि, बच्चों के खराब लर्निंग आउटकम और कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी की हानि जैसे परिणाम भी जुड़ जाते हैं। इसलिए सभी इसे रोकने के लिए आज आगे आएं यह बेदह जरूरी हो गया है।
(लेखिका, मध्य प्रदेश बाल संरक्षण आयोग की सदस्य हैं।)
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