इस बार संसद में बरसों से चली आ रहीं परंपराएं तोड़ते कुछ नारे गूंजे तो उनके साथ इतिहास की गड़गड़ाहट और महापुरुषों की कुछ सीखों की कौंध भी थी। भारतीय लोकतंत्र को चेताने वाली गड़गड़ाहट और समाज को झकझोर वाली कौंध!
कुछ सांसदों ने सदन में शपथ ग्रहण के दौरान भाषण दिए, तो कुछ ने तरह-तरह के नारे लगाए। चूंकि लंबे अंतराल के बाद विपक्ष का आत्मविश्वास जागा है, इसलिए यह उत्साह समझा जा सकता है। किंतु हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने शपथ लेने के बाद जो नारा लगाया, उस पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
पहली बात, सांसद के रूप में ओवैसी ने पहली बार वितंडा खड़ा करने का प्रयास नहीं किया है। 2016 में भी उन्होंने कहा था कि वह ‘भारतमाता की जय’ कभी नहीं बोलेंगे, भले ही कोई उनकी गर्दन पर छुरी क्यों न रख दे। दो वर्ष पहले ओवैसी ने कानपुर रैली में खुलेआम पुलिस को धमकाते हुए कहा था कि ‘‘योगी हमेशा मुख्यमंत्री और मोदी हमेशा प्रधानमंत्री नहीं रहेंगे। हम खामोश जरूर हैं, लेकिन तुम्हारे जुल्म याद रखेंगे।’’
दूसरी बात, आज ओवैसी जिस आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) की नुमाइंदगी कर रहे हैं, उसका वैचारिक आधार और इतिहास हिंदुओं के प्रति घृणा और खून से रंगा है। याद रखना चाहिए कि इस राजनीतिक जत्थेबंदी की वैचारिक विरासत वही है, जो इस देश की संस्कृति को रौंदने का विष पालती रही। जिस समय पूरे देश में ब्रिटिश राज को हटाने के संघर्ष चले, हैदराबाद के निजाम गोरों से अपनी वफादारियां निभा रहे थे। हैदराबाद के स्वतंत्रता संग्राम में ‘वंदे मातरम्’ आंदोलन पर जब निजाम ने प्रतिबंध लगाया तो एमआईएम (एआईएमआईएम का पुराना नाम) ने उसका समर्थन किया था। उस समय बहादुर यार जंग नामक कट्टरपंथी एमआईएम का अध्यक्ष (1938-44) था, जिसे एआईएमआईएम अपना सबसे बड़ा नेता बताती है।
फिर जब हैदराबाद के भारत में विलय की बात उठी तो इसके अध्यक्ष सैयद कासिम रजवी की अगुआई में अलगाववादी, आतंकी मुस्लिम रजाकारों ने हिंदुओं का नरसंहार किया। वे निजाम का शासन जारी रखने की वकालत कर रहे थे और निजाम पर पाकिस्तान में शामिल होने का दबाव भी बना रहे थे। लेकिन रजवी के मंसूबे धराशायी हो गए, तब उसने निजाम को विद्रोह के लिए उकसाया और रजाकारों को हैदराबाद के भारत में विलय का विरोध करने का निर्देश दिया कि ‘हाथ में तलवार लेकर मरना हमेशा कलम के एक वार से मरने से बेहतर है।’
खैर, ‘आपरेशन पोलो’ के बाद 1948 में एमआईएम पर पाबंदी लगा दी गई। कासिम को जेल (1948-57) में डाल दिया गया और इस शर्त पर रिहा किया गया कि वह पाकिस्तान चला जाएगा। पाकिस्तान जाने से पहले रजवी ने पार्टी की जिम्मेदारी ओवैसी के दादा अब्दुल वाहिद ओवैसी को सौंपी थी। तो यह है ओवैसी की पार्टी का इतिहास।
जिस पार्टी ने रजाकारों को हिंदुओं के नरसंहार के लिए उकसाया, साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने के लिए अभियान चलाया, ओवैसी उसी पार्टी का नेतृत्व करते हैं। आज तक उन्होंने अपनी पार्टी के कलंकित इतिहास पर, हिंदुओं की बर्बर हत्याओं पर कभी पश्चाताप व्यक्त नहीं किया। उलटे, आज भी उनके तेवर, चाहे पुलिस को धमकाने का मामला हो या संसद में ‘फिलिस्तीन जिंदाबाद’ नारा लगाने का, इस देश के प्रशासन और प्रभुसत्ता को चुनौती देने वाले ही हैं।
प्रश्न है कि जिस दल और उसके नेताओं का दिल भारत के लोगों के लिए नहीं पिघलता, वह फिलिस्तीन के लोगों के लिए क्यों और कैसे पिघल रहा है?
इस दल के दागी इतिहास के अतिरिक्त यह भी तथ्य है कि संवैधानिक पद पर रहते हुए ‘फिलिस्तीन’ या किसी अन्य देश के प्रति निष्ठा का प्रदर्शन सांसद के रूप में अयोग्य ठहरने का कारण भी हो सकता है, क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 102 (1)(डी) इसकी अनुमति नहीं देता।
तीसरी बात, आज जो ओवैसी ‘जय भीम’, ‘जय मीम’ का नारा लगा रहे हैं, वे उस समय मौन कैसे रह सकते हैं, जब नामी शिक्षण संस्थानों में दलित (भीम) का कोटा मुस्लिम (मीम) खा जाते हैं? दरअसल, इन नारों के प्रपंच, या कहिए, ढकोसले को बाबासाहेब के प्रखर विचारों की रोशनी में समझने की आवश्यकता है। वास्तव में मुस्लिम ब्रदरहुड केवल मुस्लिम हितों के संरक्षण तक सीमित संकीर्ण अवधारणा है।
बाबासाहेब आंबेडकर ने अपनी पुस्तक Pakistan or the Partition of India में इस पर विस्तार से लिखा है। वह लिखते हैं कि ‘मुस्लिम भाईचारा’ एक बंद निकाय की तरह है, जो मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच भेद करता है। वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भाईचारा मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भाईचारा है। यह बंधुत्व है, परंतु इसका लाभ अपने ही समुदाय के लोगों तक सीमित है और जो इस समुदाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा और शत्रुता ही है।
इस देश से बाहर अगर दूसरे देश में भी मुसलमान हैं तो हम एक हैं, उम्मत या बिरादरी का यह विचार मानवता नहीं, बल्कि नस्ल और मजहब आधारित है। सरकार और विदेश मंत्रालय से इतर किसी सांसद द्वारा राष्ट्र से बाहर निष्ठा प्रकट करना, यह विचार अत्यंत खतरनाक है, क्योंकि यह परोक्ष रूप से भारत की संप्रभुता को चुनौती देता है।
कुछ ऐसे भी समाचार हैं कि असदुद्दीन ओवैसी के बयान से आक्रोशित कुछ लोगों ने उनके दिल्ली स्थित सांसद निवास पर कालिख पोत दी। इस मुद्दे पर जनता का आक्रोश और उसका कारण समझ में आता है, किंतु इस प्रकार के उपद्रव की बजाय आवश्यकता नारे के जवाब में एक सवाल उछालने की है- क्या संवैधानिक पद पर रहते हुए इस देश के संविधान और देश की प्रभुसत्ता को चुनौती दी जा सकती है?
@hiteshshankar
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