लोकसभा चुनावों के उपरांत नई लोकसभा के गठन के बाद संसद के सत्र में आपातकाल पर चर्चा हुई। लोकसभा ने प्रस्ताव भी पारित किया। 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने निर्वाचन को चुनौती देने वाली याचिका पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अपने विरुद्ध आए निर्णय के खिलाफ देश की आजादी ही छीन ली थी। वह ऐसा दिन था और दौर था, जिसे याद करके देशवासी आज भी सिहर उठते हैं। जो लोग आज तानाशाही की बात करते हैं क्या वे यह बता सकते हैं कि आपातकाल के दौर में अखबारों की क्या स्थिति थी? उन 21 महीनों में आम जनता की क्या स्थिति थी?
राजनीतिक विरोधियों का जिस प्रकार दमन किया जा रहा था, वह क्या था? मगर चूंकि आपातकाल का जिन नेताओं ने विरोध किया था या आपातकाल के दौरान जो नेता जेल गए थे, उनके शिष्यों में से कई नेताओं ने आज उसे पार्टी के साथ हाथ मिला लिया है, जिसने यह आपातकाल जनता पर थोपा था। यह बहुत बड़ी विडंबना है। परंतु उससे भी बड़ी विडंबना है कांग्रेस का गुणगान करने वाले लेखकों एवं कथित बुद्धिजीवियों का इस आपातकाल के समर्थन में आ जाना।
ऐसा प्रचारित किया जा रहा है कि आपातकाल से पहले इंदिरा गांधी का विरोध करने वाले विपक्षी नेता सेना, पुलिस और छात्रों को सत्ता के खिलाफ भड़काने लगे थे और जिस कारण अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो रही थी, और उसी से निबटने के लिए आपातकाल लगाया गया था। और इसके लिए राम मनोहर लोहिया के उस कथन को आगे किया जा रहा है, जिसमें उन्होंने कहा था कि
”जिंदा कौमे पाँच साल इंतजार नहीं करतीं।”
यदि उस समय के घटनाक्रम पर दृष्टि डाली जाए, तो यह पूरी तरह से स्पष्ट होता है कि वह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की किसी भी कीमत पर सत्ता में बनी रहने की जिद थी। दरअसल उन पर चुनावों में धांधली का आरोप लगा था। और जब उनके विरुद्ध चुनाव लड़ने वाले राज नारायण ने न्यायालय में याचिका दायर की थी। आपातकाल श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए लगाया था क्योंकि जस्टिस सिन्हा ने अपने आदेश में लिखा था कि इंदिरा गांधी ने अपने चुनाव में भारत सरकार के अधिकारियों और सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया था।
जो लेखक और कथित बुद्धिजीवी यह कहते हैं कि अराजकता विपक्ष फैला रहा था, तो क्या न्यायालय के सामने जाना अराजकता फैलाना है? और वह भी तब जब निर्णय उन नेताओं के पक्ष में आया जिन्होंने इस चुनावी धांधली पर आवाज उठाई थी। इंदिरा गांधी के विरुद्ध राज नारायण का मुकदमा लड़ने वाले और कोई नहीं बल्कि वकील शशि भूषण थे। उनके बेटे प्रशांत भूषण उस बैलेट वाली चुनावी पद्धति को वापस लाने के लिए न्यायालय में लगातार जा रहे हैं, जिस बैलेट पद्धति से हुए चुनावों में धांधली के खिलाफ शशि भूषण ने ही उस मुकदमे को लड़ा था, जिसने पूरे देश को 21 महीनों के लिए कैद कर दिया था।
विपक्ष ने ईवीएम को लेकर जनता के मन में एक निष्पक्ष पद्धति के विरुद्ध संदेह उत्पन्न करने का कार्य किया। अराजकता वह होती है, तानाशाही वह होती है, जब कांग्रेस के युवराज यह कहते हैं कि यदि “हिंदुस्तान में मैच-फिक्सिंग का चुनाव भाजपा जीतती है और उसके बाद संविधान को उन्होंने बदला तो इस पूरे देश में आग लगने जा रही है।” आपातकाल लगने से पहले ऐसे बयान किसी भी नेता के नहीं मिलते हैं, जो यह कहें कि इंदिरा गांधी यदि चुनाव जीतती हैं तो देश में आग लग जाएगी।
मगर देश में ईवीएम को मैच फिक्सिंग कहना अराजकता फैलाने का प्रयास करना है, क्योंकि भरे चुनावों के बीच ही ईवीएम पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आया था कि ईवीएम एकदम ठीक है और बैलेट पेपर नहीं लौटेगा। और ऐसा नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय ने एकतरफा निर्णय दिया हो। लगातार बहसें हुई थी और चुनाव आयोग ने लगातार हर प्रक्रिया को माननीय सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख प्रदर्शित किया था, समझाया था। बैलेट पेपर की खामी के विषय में सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता को फटकार भी लगाई थी।
अराजकता यह होती है, जो कांग्रेस के इकोसिस्टम वाले लोग उस समय फैलाने का प्रयास कर रहे थे जब देश में चुनाव हो रहे थे। आपातकाल का समर्थन करने वाले लोग इस बात का उत्तर क्यों नहीं देते हैं कि आखिर वह क्या कारण था कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय स्वीकार नहीं किया था और उस निर्णय के विरुद्ध जाकर आपातकाल थोप दिया था।
वही कार्य कांग्रेस के नेता और राहुल गांधी स्वयं कर रहे थे कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ईवीएम को क्लीन चिट दिए जाने के बाद भी जनता के मन में उसके प्रति अविश्वास फैलाना। अराजकता इसे कहते हैं, न कि अराजकता वह थी जिसमें एक प्रत्याशी न्यायालय की शरण में जाकर कानूनी तरीके से चुनाव लड़ता है और जीतता है। जो न्यायालय में हारती हैं वे पूरे देश को 21 महीनों के लिए आपातकाल में धकेल देती हैं।
और जब आज इस काले दिन के 49 वर्ष पूरे होने पर उसी संसद में इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को याद किया जाता है तो यह कहा जा रहा है कि इतने वर्षों बाद इसे याद करने से क्या लाभ? ऐसा भी कहा जा रहा है कि शायद विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने लोकसभा स्पीकर के पद से आपातकाल के उल्लेख पर आपत्ति व्यक्त की है। कांग्रेस का समर्थन कर रहे कथित लेखक जब यह कहते हैं कि उसे याद करने से क्या लाभ? लाभ यह है कि वर्ष 1975 के बाद पैदा होने वाली, और इस समय की पीढ़ी को यह जानना आवश्यक है कि आपातकाल, तानाशाही दरअसल होती क्या है? अराजकता होती क्या है? नहीं तो वह भी उन नेताओं के बहकावे में आ जाएगा जिनके वरिष्ठ नेताओं का अतीत न्यायपालिका के विरोध का रहा है और तानाशाह का रहा है। और फिर यह प्रश्न भी स्वाभाविक है, कि यदि जब इंदिरा गांधी की उपलब्धियों पर चर्चा होती है तो आपातकाल पर क्यों नहीं? क्यों उन कारणों पर चर्चा न हो जिनके कारण आपातकाल लगा था?
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