इस्लामिक आक्रांताओं ने भारत को लूटा, सनातन संस्कृति को नुकसान पहुंचाया और यहां बसे भी। लेकिन उन्होंने भारतीय संस्कृति को आत्मसात नहीं किया। जब वे भारत से भारतीयता को नहीं निकाल सके तो यहां के लोगों को इस्लाम में कन्वर्ट करना शुरू किया और उन्हें अपना हथियार बनाया। इस्लाम में सभी बराबर हैं, इसकी मुनादी कर कन्वर्जन का दुष्चक्र चलाया और फिर कन्वर्ट हुए लोगों के प्रति ही हीन भावना रखने लगे।
प्रख्यात लेखक डॉ. कुलदीप चंद अग्निहोत्री की पुस्तक कश्मीर का रिसता घाव देसी मुसलमानों की छटपटाहट को दिखाते हुए भारत के मुसलमानों की दशा और दिशा को रेखांकित करती है। पुस्तक का शीर्षक भले ही कश्मीर पर केंद्रित है, लेकिन चर्चा पूरे भारत की है, भारत के मुसलमानों की है।
पुस्तक में अशरफ और अलजाफ के भीतरी संघर्ष को दिखाया गया है। एटीएम बनाम डीएम के बीच खींचतान कैसे चलती है, इसको दर्शाया गया है। एटीएम से तात्पर्य उन मुसलमानों से है जो बाहर से आए। लेखक ने अरब, तुर्क, मंगोल, मुगल मूल के मुसलमानों को एटीएम कहा है। ये लोग ग्यारहवीं शताब्दी से लेकर पंद्रहवीं शताब्दी के बीच अरब प्रायद्वीप और मध्य एशिया से उत्तर-पश्चिम के रास्ते भारत आए। एटीएम कोई संगठन नहीं है, यह एक सोच है। देशी मुसलमानों को डीएम से संबोधित किया गया है।
लेखक ने बताया है कि विदेशी आक्रांताओं के साथ उनके समुदाय के लोग भी भारत में आए और यहीं बस गए। इनमें से अरब मूल के सैयद पैगंबर हजरत मुहम्मद और उनके दामाद हजरत अली के वंश के होने के कारण अपने को श्रेष्ठ मानते थे। भारत में इस्लामिक शासन में इनके पास बड़े पद रहे। ये मस्जिदों और सरकारी दफ्तरों में काम करते थे। कश्मीर में अभी भी ये मौलवी, काजी, मुफ्ती आदि पदों पर हैं। लेखक डीएम यानी देशी मुसलमानों के बारे में कहते हैं कि ये लगभग चौदहवीं शताब्दी तक हिंदू थे। इसके बाद सनातन को त्यागकर इन्होेंने इस्लाम पंथ अपना लिया।
एटीएम अपने को ऊंचा मानते हैं और अशरफ कहलाते हैं। इनमें भी अरबी अपने को सबसे ऊंचा इसलिये मानते हैं क्योंकि वे अरब से हैं, जहां इस्लाम सबसे पहले आया। जो हिंदू से मुसलमान बने उन्हें अलजाफ कहा जाता है। अशरफ की दृष्टि में अलजाफ निम्न कोटि के हैं। डीएम मूल के लोग एटीएम के समुदाय में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं, लेकिन पकड़े जाते हैं। एटीएम उन्हें स्वीकार नहीं करता। उनके यहां रिश्ते भी तय नहीं करता।
लेखक ने पुस्तक के पहले अध्याय में एटीएम बनाम डीएम के संघर्ष को दिखाया है। इसमें बताया है कि कैसे एटीएम में श्रेष्ठता का भाव है। और जब भी भारत में मुसलमानों का अध्ययन किया जाता है तो एटीएम बनाम डीएम को जोड़कर भारतीय मुसलमान कह दिया जाता है। इस प्रकार के अध्ययनों में केस स्टडी के तौर पर एटीएम को लिया जाता है और उसके निष्कर्ष डीएम पर थोपे जाते हैं। देशी मुसलमान 95 प्रतिशत हैं, लेकिन इन पर नियंत्रण एटीएम का है, जिनकी संख्या बहुत कम है।
लेखक ने एटीएम और डीएम के बीच विवाद और पहचान के संकट को कश्मीर के संदर्भ में समझने का प्रयास किया है। उसने कश्मीर को आधार इसलिए बनाया क्योंकि वहां देशी मुसलमानों की संख्या सर्वाधिक है।
पुस्तक के पहले अध्याय में ही कहा गया है कि भारत में एटीएम ही शासक रहा है। उसने बहुत से भारतीयों को कोई भी तरीका अपनाकर इस्लाम में कन्वर्ट किया। इसलिए वह भारतीय मुसलमानों को अपनी जीत की निशानी के तौर पर देखता है। एटीएम ने डीएम के सभी अवसर छीन लिए और उन्हें दिया केवल सैयदी कर्मकांड। लेखक का कहना है कि कश्मीर घाटी में एटीएम और डीएम की खाई और भी गहरी है, क्योंकि वहां बहुमत डीएम का है, लेकिन मजहबी संगठनों पर एटीएम का कब्जा है।
किताब में आठ अध्याय हैं। दूसरा अध्याय – एटीएम बनाम डीएम के आपसी संबंध और उसकी रणनीति, तीसरा अध्याय-भारत में अंग्रेजी राज और एटीएम का मनोविज्ञान, रणनीति व कार्यविधि, चौथा अध्याय- कश्मीर घाटी में एटीएम की आहट, आगमन और प्रभाव, पांचवां अध्याय कश्मीर में एटीएम की राजनीति के शक्ति केंद्र और उनका व्यावहारिक प्रयोग, छठा अध्याय – एटीएम बनाम डीएम के संघर्ष में शेख मुहम्मद अब्दुल्ला की भूमिका, सातवां अध्याय- अनुच्छेद 370 की समाप्ति और एटीएम का विधवा विलाप, आठवां अध्याय-कश्मीर घाटी का समाजशास्त्र और एटीएम है।
-सुधीर पांडेय
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