यह एक संयोग था कि 2024 के जिस जून मास में लोकसभा चुनाव संपन्न हुए, उसी मास में 49 वर्ष पूर्व पूरे देश में आपातकाल लगा दिया गया था। विडंबना यह रही कि लोकसभा चुनाव में उस पार्टी ने लोकतंत्र और संविधान की दुहाई दी, जिसने 1975 में लोकतंत्र का गला घोंटा था और संविधान का मजाक उड़ाया था। 25 जून, 1975 को कांग्रेस की एकछत्र नेता व देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने केवल संविधान की एक धारा का दुरुपयोग करते हुए आपातकाल लागू किया था, अपितु आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना से भी छेड़छाड़ की गई थी और एक अन्य प्रावधान का दुरुपयोग करते हुए लोकसभा चुनाव को एक साल के लिए टाल दिया गया था।
अब यह सर्वविदित है कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने सत्ता में बने रहने के लिए आपातकाल लगाया था। ऐसा उन्होंने दो कारणों से किया था। पहला था जून, 1975 के पूर्व के डेढ़ वर्ष में प्रभावी हुआ बिहार आंदोलन और दूसरा था 12 जून, 1975 का इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय, जिसमें उन्हें 1971 के चुनावों में भ्रष्ट तरीकों से चुनाव जीतने का दोषी पाया गया था।
थोड़ा विस्तार में जाएं तो 1973 के अंत में गुजरात के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रावास में महंगाई के कारण भोजन शुल्क बढ़ाया गया। इसके विरोध में छात्रों ने आंदोलन किया। अन्य महाविद्यालयों में भी शुल्क बढ़ाया गया और आंदोलन बढ़ता गया। महंगाई के लिए भ्रष्टाचार को जिम्मेदार माना गया। छात्रों का आंदोलन प्रदेशव्यापी हो गया। आंदोलन को नवनिर्माण आंदोलन कहा गया। प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री को महंगाई और भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार माना गया और उनके त्यागपत्र की मांग जोर पकड़ती गई। आखिरकार मुख्यमंत्री को त्यागपत्र देना पड़ा।
इसके दो-तीन मास बाद ही गुजरात आंदोलन की आग बिहार पहुंच गई। महंगाई और भ्रष्टाचार से वहां की जनता भी त्रस्त थी। वहां भी छात्रों ने आंदोलन प्रारंभ कर दिया और कांग्रेसी मुख्यमंत्री का त्यागपत्र मांगा। वह आंदोलन बिहार आंदोलन कहलाया। आंदोलन को प्रभावी बनाने के लिए नेतृत्व कर रहे छात्र नेताओं ने बाबू जयप्रकाश नारायण से आंदोलन का नेतृत्व करने का आग्रह किया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।
बिहार आंदोलन प्रदेश तक सीमित नहीं रहा। महंगाई और भ्रष्टाचार से पूरा देश त्रस्त था। बिहार आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन में परिवर्तित हो गया और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से त्यागपत्र मांगा जाने लगा। जून, 1974 से शुरू हुआ एक साल के भीतर देशभर में आंदोलन फैल गया। स्वाभाविक ही इंदिरा गांधी परेशान हो गईं। कांग्रेसी नेताओं को आंदोलन को दबाने के लिए आपातकाल का उपयोग करने की सूझी।
12 जून,1975 को आए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय ने इंदिरा गांधी को भीतर तक हिला दिया। नैतिकता का तकाजा था कि वे त्यागपत्र देतीं पर उन्होंने वैसा नहीं किया। कानूनी प्रावधानों के अनुसार उनकी लोकसभा की सदस्यता रद्द हुई थी, पर वे उसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय जा सकती थीं, जो उन्होंने किया। साथ ही प्रधानमंत्री पद पर वे बनी रह सकती थीं। (यद्यपि बाद में उन्हें सर्वोच्च न्यायालय से राहत मिली) अत: वे प्रधानमंत्री बनी रहीं और दो सप्ताह बाद आपातकाल लागू कर दिया।
जून, 1975 में लागू किया गया आपातकाल मार्च, 1977 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की हार के पश्चात् समाप्त हुआ। 21 मास का औपचारिक आपातकाल 19 मास तक प्रभावी रहा। वह तानाशाही का काल था। बड़ी संख्या में लोग मीसाबंदी बनाए गए। मीसा के प्रावधान के अंतर्गत सरकार जितना चाहे, किसी व्यक्ति को बंदी रख सकती थी। डीआईआर के प्रावधान के अंतर्गत लोगों पर झूठे मुकदमे बनाकर उन्हें जेलों में रखा जाता था। वह प्रावधान ऐसा था कि व्यक्ति को न्यायालय में पेश करना आवश्यक नहीं था और इसलिए अनाप-शनाप आरोपों के अंतर्गत व्यक्ति को जेल में रखा जाता था।
प्रेस पर सेंसरशिप लगा दी गई थी। इसलिए समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में सरकार विरोधी सामग्री नहीं छप सकती थी। संसद के सत्र होते थे, पर विपक्षी दलों के अधिकांश सांसद जेलों में बंद थे। इंदिरा गांधी ने एक 20सूत्रीय कार्यक्रम देश को दिया था। कांग्रेस विरोधी दलों के कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता 20 सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करने पर जेल जाने अथवा कांग्रेसी नेताओं के कोपभाजन से बच जाते थे। इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी, जिनके पास कोई संवैधानिक पद नहीं था, देश के शासन तंत्र पर हावी थे।
आज आपातकाल को समाप्त हुए 49 वर्ष हो चले हैं। सोचकर हैरानी होती है कि देश ने कैसे 21मास की तानाशाही को झेला। पूरा सरकारी तंत्र कांग्रेस पार्टी के अनुसार चलता था, पर न्यायालय भी उससे बचे नहीं थे। विश्व में अनेक देशों में तानाशाही थी। इसलिए भारत में भी यह मालूम नहीं था कि तानाशाही कितनी लंबी चलेगी। यह तो देश का सौभाग्य था कि आपातकाल बहुत देर तक नहीं चला।
आपातकाल के दौरान उसका विरोध भी साथ-साथ चला। सर्वाधिक सशक्त विरोध रा.स्व. संघ के कार्यकर्ताओं ने किया। भूमिगत आंदोलन भी चला और प्रत्यक्ष सत्याग्रह भी किया गया। संघ परिवार के हजारों कार्यकर्ताओं ने सत्याग्रह किया। विरोध का सिलसिला जनवरी, 1977 तक चलता रहा। 18 जनवरी, 1977 को सरकार ने पहली बार आपातकाल में ढील दी जब बड़ी संख्या में जेलों में बंद लोगों को छोड़ा गया। सरकार ने लोकसभा चुनावों की घोषणा कर दी। मार्च में चुनाव हुए और कांग्रेस हार गई। आश्चर्य तो यह हुआ कि स्वयं इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी लोकसभा चुनाव हार गए। फरवरी-मार्च में बनी नई पार्टी-जनता पार्टी चुनाव जीत गई और आपातकाल समाप्त हो गया।
आपातकाल के एक प्रमुख घटनाक्रम का ज्ञान संभवत: आज तक देश को नहीं हुआ। इसका प्रमुख कारण ताजा राजनीति में मिलता है। वामपंथी तो संघ परिवार को सदा कठघरे में खड़ा करते ही हैं, परंतु जो वामपंथी नहीं हैं पर संघ परिवार को श्रेय देने में कंजूसी करते हैं, वे भी देश के जीवन में संघ परिवार के योगदान को छोटा दिखाने की कोशिश करते हैं।
आपातकाल के पश्चात् भी यही तत्व बौद्धिक जगत और प्रचार माध्यमों में हावी रहे और आपातकाल में निभाई गई संघ परिवार की भूमिका को श्रेय नहीं दिया गया। जैसे, आपातकाल के विरुद्ध सबसे बड़ा सत्याग्रह संघ कार्यकर्ताओं ने किया पर उस सत्य को दबाया गया। गुजरात, बिहार व राष्ट्रीय (जयप्रकाश नारायण) आंदोलनों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद व भारतीय जनसंघ की सबसे बड़ी भूमिका थी पर उसे अनदेखा किया गया।
पर जिस चीज का उल्लेख इतिहास में दर्ज होना चाहिए वह थी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक द्वारा लिखे गए तीन पत्र, जो उन्होंने सामान्य स्थिति की बहाली के लिए लिखे थे। उन्होंने 2 पत्र प्रधानमंत्री को व एक पत्र आचार्य विनोबा भावे को लिखा, जिनके द्वारा उन्होंने सरकार को रचनात्मक सहयोग की पेशकश की, क्योंकि आपातकाल पूर्व के आंदोलनों में संघ परिवार ने बढ़-चढ़कर भूमिका निभाई थी। इसलिए सरसंघचालक ने यह उचित समझा कि सामान्य स्थिति की बहाली के लिए सरकार को संघ के सहयोग का आश्वासन दिया जाए। परंतु सरसंघचालक के पत्रों का कोई प्रभाव नहीं हुआ। तानाशाही जारी रही। आपातकाल क्यों समाप्त हुआ, इसकी एक अलग कहानी है।
वह गवाही जिससे गई इंदिरा की सत्ता
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