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‘कबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नांहि’ 

संत कबीरदास  भारतीय साहित्य के एक महान संत एवं दार्शनिक भक्त कवि माने जाते हैं। वह भारतीय समाज में धार्मिक और सामाजिक सुधार के लिए जाने जाते हैं।

by WEB DESK
Jun 22, 2024, 06:00 am IST
in संस्कृति, जीवनशैली
संत कबीरदास

संत कबीरदास

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● संत कबीरदास  का जन्म संवत 1456 अर्थात सन 1399 ई. में हुआ था। संत कबीरदास  भारतीय साहित्य के एक महान संत एवं दार्शनिक भक्त कवि माने जाते हैं। वह भारतीय समाज में धार्मिक और सामाजिक सुधार के लिए जाने जाते हैं। संत कबीर के जीवन के बारे में बहुत सारी विविध बातें हैं, लेकिन उनकी सटीक जन्म तिथि और उनके जीवन के कई पहलुओं के बारे में विवाद रहा है।

●  ऐसा माना जाता है कि संत कबीरदास किसी विधवा-ब्राह्मणी के पुत्र थे। माता ने सामाजिक भय से काशी के लहरतारा तालाब के पास इन्हें छोड़ दिया था, वहीं नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपति ने इन्हें देखा और पाल-पोसकर बड़ा किया। 

● यह जुलाहा जाति नाथपंथी योगियों की शिष्य थी और इस जाति के लोगों में उनके विश्वास और संस्कार पूरी तरह से विद्यमान थे। मुसलमान ये नाम मात्र के ही थे। नाथपंथी प्रभाव की जुलाहा जाति में पले-बड़े होने के कारण संत कबीरदास में नाथपंथी विश्वास सहज रूप में विद्यमान थे। उनका मन योगियों के संस्कार में रमता था।

● लोकप्रसिद्धियों में बताया गया है कि अँधेरे में गंगातट पर सोए हुए संत कबीर के शरीर पर रामानंद जी के खड़ाऊं पड गए थे और वे ‘राम-राम’ कह उठे थे। रामानंद से संत कबीर के दीक्षा लेने की यही कहानी है।

●  संत कबीरदास  के मुसलमान शिष्य बताते हैं कि उन्होंने प्रसिद्ध सूफी फकीर शेख़ तकी से दीक्षा ली थी। संत कबीरदास  के पदों में शेख़ तकी का नाम आया है, किंतु उसमें उस प्रकार कि श्रद्धा का भाव नहीं मिलता जो किसी गुरु के लिए अपेक्षित है। इस बात को कबीर के एक पद से समझा जा सकता है। संत कबीरदास  कहते हैं कि –‘घट-घट है अबिनासी सुनहु तकी तुम शेख़’। इस पद में संत कबीरदास  शेख़ तकी को गुरुभाव से स्मरण करते नहीं जान पड़ते, किंतु संत कबीरदास  ने जहाँ कहीं भी रामानंद का नाम लिया है, वहाँ उनका नाम बड़े गौरव और श्रद्धा के साथ लिया है। जैसे :

“सतगुरु के परताप से मिटि गयो सब दुख दंद। कह कबीर दुविधा मिटी, गुरु मिलिया रामानंद”।।

इससे सिद्ध होता है कि संत कबीरदास  वस्तुतः रामानंद के शिष्य थे और उन्हीं से उन्हें रामनाम का मंत्र मिला था।

●  संत कबीर ने अपने जीवन के दौरान भक्ति में लगातार वैष्णव, सूफी, और नाथ संतों की विचारधारा को अपनाया। उन्होंने धार्मिक तथा सामाजिक बाधाओं का विरोध किया और समाज में एकता और सद्भाव के भाव को प्रसारित किया।

● संत कबीरदास  स्वयं पढ़े लिखे नहीं थे, उनके शिष्यों ने उनकी वाणी का संग्रह किया, जिसे आज हम कबीर के पदों के रूप में पढ़ते हैं। उन्होंने एक पद में कहा भी है कि-“मसि-कागद तौ छुओ नहिं, कलम गही ना हाथ”। संत कबीरदास  ने अपने अनुभवपरक ज्ञान से समाज का मार्गदर्शन किया।

● संत कबीरदास  के पदों को ‘साखी’, ‘सबद’ और ‘रमैनी’ के रूप में पढ़ा जाता है, जिनमें संत कबीरदास  की ‘साखी’ जनमानस में बहुत लोकप्रिय हैं।

संत कबीरदास  और सामाजिक समरसता 

संत कबीरदास ने समाज में सामाजिक सद्भाव लाने का कार्य किया। उन्होंने लोगों को अनुभवपरक ज्ञान के आधार पर समझाने का कार्य किया। कबीर के विचार उनके समय से बहुत आगे के हैं, इसी कारण उन्हें मध्यकालीन संत भक्त होने के बावजूद आधुनिक समय के विचारों से युक्त माना जाता है। संत कबीरदास  ने सामाजिक समरसता को बढ़ाने के लिए अनेक बातें कही हैं जोकि इस प्रकार हैं –

 साईं इतना दीजिये, जामें कुटुंब समाय। मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।।
कबिरा खड़ा बजार में, माँगे सबकी खैर। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।
 चलती चक्की देखि के, दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।।
जाति न पूछो साध की, जो पूछो तो ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दे म्यांन।।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो मन खोजा अपना, तो मुझसे बुरा न कोय।।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ। ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होई।।
संत न छाडै संतई, जे कोटिक मिलै असंत। चंदन भुवंगा बैठिया, तउ सीतलता न तजंत।।
 ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय। औरन को सीतल करै, आपुहिं सीतल होय।।
दुख में सुमिरन सब करैं, सुख में करै न कोई। जो सुख में सुमिरन करैं, तो दुख काहे को होय।।

तेरा मेरा मनुवां कहु कैसे एक होय रे। मैं कहता हूँ आँखिन देखी, तू कहता है कागद लेखी। मैं कहता सुरुझावन हारी, तू राखे अरुझाय रे।

संत कबीरदास और इस्लामिक आडंबर 

संत कबीरदास  ने मुस्लिम मत के आचार-विचार में विद्यमान आडम्बरों का विरोध किया। संत कबीरदास  द्वारा मुस्लिम मत पर किए गए कटाक्ष इस प्रकार हैं –

कबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नांहि।

सीस उतारै भुई धरै, तब पैठे घर मांहि।।

मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गी मुर्गा खाई।

खाला केरी बेटी ब्याहै घरहिं में करै सगाई।

बाहर से इक मुर्दा लाए धोय-धाय चढ़वाई।

सब सखियाँ मिलि जेंवन बैठीं घर-भर करै बड़ाई।

 कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लई बनाय।

ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।
तुरुक रोजा निमाज गुजारै, बिसमिल बांग पुकारै।

इनको भिस्त कहाँ ते होहै, जो सांझे मुरगी मारै।।

दर की बात कहौ दरबेसा, पातसाह है कौने भेसा।

कहाँ कूच कहँ करै मुकामा, कवन सुरति के करहु सलामा।

मैं तोहिं पूछों मुसलमाना, लाल जरद की नाना बाना।

काजी काज करहु तुम कैसा, घर-घर जबह करावहु भैसा।

बकरी मुरगा किन फरमाया, किसके हुकुमतुपछुरी चलाया।

दरद न जानहु पीर कहावहु, बैता पढ़ि-पढ़ि जग भरमावहु।

कहहिं कबीर एक सैयद कहावै, आपु सरीखे जग कबुलावै।

दिन को रोजा रहतु हौ, राति हनत हो गाय।

यह तो खून वह बंदगी, क्यों कर खुसी खोदाय।।

वस्तुतः संत कबीरदास  के पद भारतीय समाज को मार्गदर्शन देते हैं और उनका काव्य समाज में सच्ची प्रेरणा और ध्यान का केंद्र बना हुआ है।

Topics: संत कबीरदासढाई आखर प्रेम कापढ़ै सो पंडित होईइस्लामिक आडंबरएकताऔर सद्भावSant Kabir Dastwo and a half letters of lovewhoever reads them becomes a scholarIslamic pompunity and harmony
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