सत्ता का नशा कितना क्रूर होता है, भारत ने इसे 1975 में कांग्रेस के शासन में देखा। 25 जून 1975 को पूरे देश को बंधक बना लिया गया। संविधान का गला घोंट दिया गया। जिस लोकसभा सीट रायबरेली से इंदिरा गांधी ने सत्ता का स्वाद चखा, उसी रायबरेली पर सत्ता की हिटलरशाही भी दिखी। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी इस चुनाव में संविधान को खतरे में बता रहे थे, उन्हीं के परिवार ने, उन्हीं की दादी इंदिरा गांधी ने संविधान का गला घोंट दिया था।
पूरे 21 महीने देश ने आपातकाल का क्रूर चेहरा देखा। जिस रायबरेली ने उन पर दुलार लुटाया, वह रायबरेली भी सिसक रही थी। यूपी के पूर्व मंत्री गिरीश नारायण पांडेय उन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तहसील कार्यवाह थे। वह बताते हैं कि 3 जुलाई 1975 की रात 1.30 बजे मैं लालगंज स्थित घर पर सो रहा था। पुलिस का दारोगा दरवाजे पर आया, उसने कुंडी खटखटाई । घर से नीचे उतरकर आया तो पूछा कि क्या काम है। वह बोला कि एसडीएम साहब बुला रहे हैं, कोई जरूरी काम है। मैंने कहा कि इतनी रात में क्या काम होगा, उनसे कह दीजिए कि सुबह आएंगे। वह बोला कि आप चले चलिए मैं छोड़ जाऊंगा। मैंने कहा कि झूठ मत बोलो, तुम गिरफ्तार करने आए हो। सीढ़ी से नीचे उतरे तो उसने हाथ से कुछ इशारा किया। करीब एक दर्जन पुलिसवाले खड़े थे। उनके पास लाठी और बंदूक थीं। उन्होंने घेर लिया। कहा कि गाड़ी में बैठिये। मैंने कहा कि पैदल चलेंगे। हम पैदल थाने पहुंचे। वहां एसडीएम बैठे थे, शायद सलोन तहसील के थे। उन्होंने कहा कि आप मिल गए तो सांस में सांस आई, डीएम और एसपी ने कहा था कि ये खतरनाक आदमी हैं, अगर पकड़ कर नहीं ला सके तो हम मानेंगे कि आप इनसे मिले हुए हैं। आपको जो असुविधा हो वह बताइयेगा। रात में थाने में रहिये सुबह पहुंचा दिया जाएगा। थाने में फोन आ रहे थे। एक नंबर मिल गया, दो नंबर मिल गया, तीन नंबर नहीं मिला, चार नंबर नहीं मिला, वहां नंबरों से बातचीत हो रही थी। सुबह एक प्राइवेट बस में बैठाकर रायबरेली ले गए। रायबरेली में थाने में संघ के और कार्यकर्ता भी थे। वहां दस बजे से बैठे थे। शाम तीन बजे से वहां से रायबरेली जेल के लिए रवाना किया।
वहां एलआईयू के इंस्पेक्टर मिले, वह घूम-घूमकर एक-एक आदमी को ढूंढ रहे थे। वह बोले कि रॉ वालों ने रिपोर्ट दी है, उस पर कार्रवाई की गई। जेल में चाय तक नहीं दी गई। 24 घंटे अनशन किया तब हम लोगों को नाश्ता और चाय आदि दी गई। जेल में करीब 11 महीने था। हमें यह पता नहीं था कि कहां ले जा रहे हैं। 15 दिन तक घर वालों को पता ही नहीं चला था कि हम कहां है। इतना आतंक था कि कोई आता ही नहीं थी। मिलने पर पुलिस पकड़ लेगी।
ये थी झूठी एफआईआर
जमानत की अपील रायबरेली कोर्ट से भी खारिज हो गई थी। डीएम का सख्त आदेश था कि जब तक शासन नहीं कहेगा तब तक जमानत भी नहीं दी जाएगी। मेरे खिलाफ झूठी एफआईआर लिखाई गई थी। उसमें लिखा था कि मैं अपने घर के दरवाजे पर मीटिंग कर रहा था और पुलिस एवं फौज के रिटायर्ड लोगों का एक सम्मेलन था। उसमें शासन के खिलाफ भड़काने के लिए हथियार लेकर गए और हथियार बांट रहे थे। शासन के खिलाफ विद्रोह करने के लिए भड़काने की बात लिखी गई।
एक मामला फैजाबाद का आया। एक वकील साहब का एप्लीकेशन आया था। उनका एक ही हाथ था, उन पर अभियोग था कि खंभे पर चढ़कर बिजली का तार काट रहे थे। न्यायाधीश ने कहा कि कोई एक हाथ से कैसे खंभा पकड़ेगा और कैसे तार काटेगा।
इंदिरा गांधी के खिलाफ दी थी ये गवाही
इंदिरा गांधी के खिलाफ राज नारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा दायर किया था। राज नारायण की तरफ से मैं भी अहम गवाह था। इसी गवाही के ग्राउंड पर इंदिरा गाधी के खिलाफ फैसला आया था। मैंने गवाही दी थी कि 1971 के चुनाव में सरकारी साधनों का दुरुपयोग किया गया। इंदिरा गांधी के सचिव थे यशपाल कपूर थे। वह सरकारी कर्मचारी थे, लेकिन वह दौड़-दौड़कर चुनाव का सारा कार्यक्रम देखते थे। मीटिंगों में सक्रिय रूप से भाग लेते थे। एसडीएम-डीएम मीटिंग की व्यवस्था करते थे। सरकारी कर्मचारी चुनाव कार्यक्रमों में भाग नहीं ले सकते थे। सरकारी कागजों का दुरुपयोग किया गया। और भी बातें थीं। हाईकोर्ट में मुझसे डेढ़ घंटे तक जिरह की गई। गवाही न दूं, इसलिए धमकी दी जाती थी।
फैसला लिखने वाले जस्टिस सिन्हा पर था कितना दबाव
गिरीश नारायण पांडेय बताते हैं कि जब मैं मंत्री ( न्याय विधि मंत्री, उत्तर प्रदेश) था तो इलाहाबाद दौरे पर गया था। वहां एक कार्यक्रम में इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला देने वाले जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा से मुलाकात हुई थी। उन्होंने बताया था कि जब जजमेंट लिख रहा था तो फोन आ रहे थे कि जजमेंट क्या लिख रहे हो। जो भी चाहो वह दे देंगे। हमने कोई जवाब नहीं दिया। फोन आते थे कि कुछ भी ले लो, लेकिन यह बता दो कि जजमेंट पक्ष में करोगे या विपक्ष में। हमने कुछ भी नहीं बताया। जजमेंट पर कोई असर न पड़े, इसलिये अपने सहयोगी से कहा कि दो महीने तक मेरे साथ मेरे घर में अलग रहोगे। किसी से कोई टेलीफोन संपर्क नहीं होगा। मैं जो जजमेंट बोलूंगा वह लिखोगे। सुनवाई के बाद दो महीने तक परिवार में किसी से बात नहीं की। एक कमरे में रहा। कोई फोन नहीं था। एक-आध दिन किसी जरूरी काम से बाहर जाना पड़ता था तो 2 गनर लेकर जाते थे। धमकियां मिलती थीं, लेकिन हम डरे नहीं।
गिरीश नारायण पांडेय बताते हैं कि इमरजेंसी के बाद चुनाव हुआ। इंदिरा गांधी चुनाव लड़ीं। हम चुनाव प्रचार के लिए जहां भी जाते थे वहां लोग एक ही बात कहते थे कि डिब्बा ताक्यो उहां और इहां चिंता न करयो (बैलेट बॉक्स पर नजर रखिये, यहां की चिंता न करें)। चुनाव का नतीजा सबके सामने था। इंदिरा गांधी को रायबरेली की जनता ने नकार दिया।
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