गत 10 जून, 2024 को नागपुर में कार्यकर्ता विकास वर्ग द्वितीय के समापन अवसर पर अपने विस्तृत उद्बोधन में सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने भारत और विश्व के सामने उपस्थित चुनौतियों की चर्चा की। उन्होंने विशेष रूप से भारत के आम समाज का आह्वान किया कि वह अपनी संस्कृति और धर्म के मार्ग पर चलते हुए देश को एक दिशा दिखाए, सबको साथ लेकर, मन में सबके प्रति प्रेम और आदर का भाव रखकर चले। राजनीति, पर्यावरण और कुटुंब प्रबोधन के विषयों को स्पर्श करते हुए सरसंघचालक ने कहा कि भारतवासी अपने देश को विश्व में अग्रणी बना सकते हैं, लेकिन इसके लिए अपने में आवश्यक परिवर्तन करने को सन्नद्ध होना होगा। इस कार्यक्रम में श्रद्धेय रामगिरी जी महाराज मुख्य अतिथि के नाते उपस्थित थे। यहां प्रस्तुत है सरसंघचालक श्री भागवत के उसी उद्बोधन का संपादित स्वरूप
इस वर्ष वर्ग के समापन कार्यक्रम का विशेष योग बना है। आज सिख पंथ के पांचवें गुरु महाराज सद्गुुरु श्री अर्जुन देव जी महाराज का शहीदी दिवस है। लाहौर में उनको बहुत प्रताड़नाएं देकर शहीद किया गया था। धर्म के लिए वे हंसते-हंसते शहीद हो गए। कल ही महाराणा प्रताप की भी जयंती थी और भगवान बिरसा मुंडा का निर्वाण दिवस भी था। महापुरुषों के स्मरण के दिन यहां देश हित में अपने आप को योग्य बनाने की साधना करने वालों का उपक्रम देखना और राष्ट्र के विचार में उनके साथ सहयोगी होना हमारे लिए अत्यंत शुभ योग है।
हालांकि बाहर वातावरण कुछ अलग है। पिछले दिनों चुनाव संपन्न हुए हैं। उनके परिणाम आए और केन्द्र में कल सरकार भी बन गई। ये सब हो चुका है, लेकिन उसकी चर्चा अभी तक जारी है। जो हुआ वह क्यों हुआ, कैसे हुआ, क्या हुआ? ये अपने देश के प्रजातांत्रिक तंत्र में प्रत्येक पांच वर्ष में होने वाली घटना है। उसके अपने नियम और आयाम हैं। यह सब उसके अनुसार होता है। यह अपने देश के संचालन के लिए कुछ तय करने वाला प्रसंग है, इसलिए महत्वपूर्ण है। लेकिन इतना महत्वपूर्ण क्यों है? समाज ने अपना मत दे दिया, सब उसके अनुसार होगा। क्यों, कैसे, इसमें हम संघ के लोग नहीं पड़ते। हम लोकमत परिष्कार का अपना कर्तव्य करते रहते हैं। प्रत्येक चुनाव में करते हैं। इस बार भी किया है। बाकी, जो हुआ क्यों हुआ, क्या हुआ, इस चर्चा में हम नहीं पड़ते।
मर्यादापूर्वक कर्म
कबीर कहते हैं, ‘‘निर्बंधा बंधा रहे बंधा निर्बंधा होई, कर्म करे करता नहीं दास कहाय सोई’’। यानी जो सेवा करता है, जो वास्तविक सेवक है, जिसको वास्तविक सेवक कहा जा सकता है उसकी एक मर्यादा रहती है यानी वह मर्यादा से चलता है। काम सब लोग करते हैं, लेकिन कार्य करते समय मर्यादा का पालन करना जरूरी है। जैसा कि तथागत ने कहा है-कुशलस्य उपसंपदा, यानी अपनी आजीविका, पेट भरने का काम सबके साथ लगा ही है, यह करना ही चाहिए। अपने शरीर को भूखा नहीं रखना है, लेकिन कौशलपूर्वक जीविका कमानी है, लेकिन कार्य करते समय दूसरों को आघात नहीं पहुंचना चाहिए। यह मर्यादा भी उसमें निहित है। ऐसी मर्यादा रखकर हम लोग काम करते हैं। काम करने वाला उस मर्यादा का ध्यान रखता है। वह मर्यादा ही अपना धर्म है, संस्कृति है। जो पूज्य गुरुवर्य महंत रामगिरी महाराज ने बहुत मार्मिक कथाओं से संक्षिप्त में बताया, उस मर्यादा का पालन करके जो चलता है, कर्म करता है, कर्मों में लिप्त नहीं होता, उसमें अहंकार नहीं आता। वही सेवक कहलाने का अधिकारी रहता है।
‘सामाजिक समरसता का बोध कराता है संघ’
-श्रद्धेय रामगिरी जी महाराज
कार्यक्रम को संबोधित करते हुए श्रद्धेय रामगिरी जी महाराज ने कहा कि भारत युद्ध की नहीं, बुद्ध की भूमि है। पिछले अनेक वर्ष से हिन्दू धर्म व संस्कृति पर आक्रमण होता आया है, किन्तु यह भारत की संत परम्परा और धर्मात्मा वीर हैं जिन्होंने इसकी रक्षा करने का महान कार्य किया। इसमें संदेह नहीं है कि संघ परिवार से संस्कार, समर्पण भाव तथा सामाजिक समरसता का बोध होता है। पिता के वचन का पालन करने वाले प्रभु श्रीराम हमारे आदर्श हैं। उन्होंने विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से भारतीय संस्कृति की अवधारणा हमें समझायी है। रामगिरी जी महाराज ने बलपूर्वक कहा कि हमें समाज जीवन में सामाजिक समरसता का भाव प्रसारित करने की आवश्यकता है।
‘समाज में सौहार्द बहाल करने की कोशिश में जुटा है संघ’
मई 2023 में चर्च की कथित शह पर मणिपुर में आगजनी और उपद्रवों की शुरुआत हुई थी। कुकी और मैतेई समुदायों के बीस वर्षों से रहे सौहार्द को कुछ स्वार्थी तत्वों ने पलीता लगा दिया और एक दूसरे का शत्रु बना दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उत्तर-पूर्व में वर्षों से काम है, अत: संघ के अ.भा. प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने तब जुलाई में कहा था कि मणिपुर में संघ के स्वयंसेवक समाज के प्रबुद्ध लोगों के साथ मिलकर शांति तथा परस्पर विश्वास का वातावरण बनाने और पीड़ित बंधुओं की आवश्यक सहायता करने का हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। स्वयंसेवक पीड़ितों के लिए सहायता कार्य चलाए हुए हैं। संघ की ओर से समाज के सभी वर्गों से अनुरोध किया गया कि परस्पर सौहार्द एवं शांति स्थापित करने के प्रयासों को गति दें।
प्रजातंत्र की आवश्यक प्रक्रिया है चुनाव
यह उक्ति सुनकर मेरे मन में आया कि अपना विचार क्या है, संघ कैसे चलता है, उसको बताने का दूसरा कौन सा उपाय है? सरल उपाय यही है। चार पंक्तियों में संघ की वृत्ति ध्यान में आती है। चुनाव प्रजातंत्र की आवश्यक प्रक्रिया है। उसमें दो पक्ष रहते हैं, इसलिए स्पर्धा रहती है। स्पर्धा रहती है तो दूसरे को पीछे करने और स्वयं को आगे बढ़ने का काम होता ही है, होना ही चाहिए। परंतु उसमें भी एक मर्यादा है। असत्य का उपयोग नहीं करना। चुने हुए लोग संसद में बैठकर देश को चलाएंगे, सहमति बनाकर चलाएंगे। हमारे यहां तो परंपरा सहमति बनाकर चलने की है—‘‘…समानो मंत्र: समिति: समानी। समानम् मन: सह चित्तमेषाम’’। इस सहज चित्त पर विनोबा भावे जी कहते हैं कि ऋग्वेदकारों को मानवी मन का कितना ज्ञान था, यह समझ में आता है। सब जगह उन्होंने ‘सम’ कहा है (समानो मंत्र: समिति समानी समानम् मन:…), लेकिन चित्त के बारे में सम नहीं कहा, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का चित्त, मानस अलग होता ही है। इसलिए 100 प्रतिशत मतों का मिलान संभव नहीं है। लेकिन जब चित्त अलग-अलग होने के बाद भी एक साथ चलने का निश्चय करते हैं तो सह चित्त बन जाता है।
संघ पर अकारण प्रहार क्यों?
वास्तव में संसद क्यों है? उसमें दो पक्ष क्यों हैं? वे इसलिए हैं ताकि दोनों पहलू उजागर हों। किसी भी सिक्के के दो पहलू रहते ही हैं। इसी तरह किसी भी प्रश्न के दो पहलू रहते हैं। एक पक्ष एक पहलू का विचार करता है तो दूसरे पक्ष दूसरा पहलू उजागर करता है ताकि जो होना है वह पूर्णत: ठीक हो। सहमति बने, इसलिए संसद बनती है। लेकिन स्पर्धा करके आए लोगों में ऐसी सहमति बनना थोड़ा कठिन भी रहता है। इसलिए हम बहुमत का आसरा लेते हैं। उसके लिए स्पर्धा चलती है। यह स्पर्धा है, कोई आपस का युद्ध नहीं है। प्रचार के दौरान हमारे कुछ कहने से समाज में मन-मुटाव बढ़ेगा, दो गुट बंटेंगे, आपस में शंका-संशय उत्पन्न होगा, इसका भी ख्याल नहीं रखा गया। बिना कारण संघ जैसे संगठनों को भी उसमें खींचा गया। टेक्नोलॉजी का सहारा लेकर असत्य बातें परोसी गईं। नितांत असत्य। क्या शास्त्र का, विज्ञान का, विद्या का यह उपयोग है? सज्जन विद्या का ऐसा उपयोग नहीं करते। ‘विद्या विवादाय’, यह खलस्य यानी दुर्जन का काम कहा गया है—
‘‘विद्या विवादाय धनं मदाय, शक्ति: परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधो विपरीतमेतद् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय’’॥
विद्या का उपयोग प्रबोधन करने के लिए होता है, लेकिन आधुनिक विद्या (टेक्नोलॉजी) का उपयोग असत्य परोसने के लिए किया गया।
ऐसे देश कैसे चलेगा! आखिर सबको देश ही चलाना है ना। दो पक्ष हैं। लोग जिसे विरोधी पक्ष कहते हैं, मैं प्रतिपक्ष कहता हूं। वह विरोधी नहीं है। उसको विरोधी मानना भी नहीं चाहिए। वह प्रतिपक्ष है। वह एक पहलू उजागर कर रहा है। उसका भी विचार होना चाहिए। ऐसा होना है तो चुनाव लड़ने में भी एक मर्यादा होती है। उस मर्यादा का पालन नहीं हुआ। उसका पालन होना इसलिए आवश्यक है क्योंकि हमारे देश के सामने चुनौतियां समाप्त नहीं हुई हैं। अब सरकार बन गई है। वही सरकार फिर से आ गई है। पिछले दस वर्ष में बहुत कुछ अच्छा हुआ है। आधुनिक दुनिया जिन मानकों को मानती है, जिनके आधार पर आर्थिक स्थिति को मापा जाता है उनके अनुसार भी हमारी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी हो रही है। हमारी सामरिक स्थिति निश्चित रूप से पहले से अधिक अच्छी है। दुनियाभर में हमारे देश की प्रतिष्ठा बढ़ी है। कला क्षेत्र में, क्रीड़ा क्षेत्र में, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में, संस्कृति के क्षेत्र में हम सब लोग विश्व के सामने आगे बढ़ रहे हैं। विश्व के विकसित देशों ने भी हमको धीरे-धीरे मानना शुरू किया है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम चुनौतियों से मुक्त हो गए।
विकास पथ में बदलाव जरूरी
चुनाव के आवेश या अतिरेक में हमसे जो हो गया, उससे मुक्त होकर हमको आने वाली बातों का विचार करना है। समस्याओं से मुक्त होना है। अभी हम बैठे हैं, गर्मी लग रही है। कुछ दिन पहले कितनी गर्मी थी! इस वर्ष हर वर्ष से बहुत अधिक गर्मी हुई और सर्वत्र हुई। पर्वतीय क्षेत्रों में भी हुई। बेंगलुरु जैसे महानगर में जल का संकट आ गया। हिमालय की हिम नदियों के पिघलने के बारे में तरह-तरह की बातें छप रही हैं। पर्यावरण का यह संकट सारी दुनिया पर है। जो भारत संस्कारों से ही पर्यावरण का मित्र बनकर चलता रहा है, कृतज्ञतापूर्वक नदियों को, वृक्षों को, पहाड़ों को, पशुओं को, पक्षियों को पूजता है, उनके साथ अपना संबंध मानता है, वहां भी यह संकट खड़ा हुआ है। कारण? विकास पथ की दृष्टि अधूरी है। उसको बदलना होगा, सबको बदलना होगा। जिसके पास यह दृष्टि पहले से है वह भारत अपने आप को कैसे बदलता है, यह देखकर दुनिया उसका अनुकरण करने वाली है। इसलिए हमको स्व के आधार पर अपना एक विकास पथ ठीक से बनाना है। उस स्व का विचार करके भी बहुत सी बातें हो रही हैं। लेकिन हमको मूल से विचार करके सारी बातें बदलकर इसे करना पड़ेगा। ज्ञान-विज्ञान का जो आधुनिक प्रवास और प्रयास है, उसको भी ध्यान में रखकर चलना होगा। अपनी परंपरा का ज्ञान जो काल सुसंगत है, उसको साथ लेकर, ‘वसुधैव कुटुंबकम्’, सृष्टि अपनी माता है, हम सृष्टि के विजेता नहीं हैं, हम सृष्टि के अंग हैं, वह माता है, उसका दोहन करना है, उसका पोषण होना चाहिए, इस पर ध्यान देना है।
उस ढंग से विकास के प्रतिमान हमको बनाने पड़ेंगे। उसके लिए देश में शांति चाहिए। समाज में जगह-जगह कलह नहीं चलनी चाहिए। एक साल से मणिपुर शांति की राह देख रहा है। उससे पहले 10 साल शांत रहा। ऐसा लगा कि पुराना ‘गन कल्चर’ समाप्त हो गया। परन्तु अचानक जो कलह वहां पर उपज गई या उपजाई गई, उसकी आग में वह अभी तक जल रहा है, त्राहि-त्राहि कर रहा है। कौन उस पर ध्यान देगा? प्राथमिकता देकर उसका विचार करना हमारा कर्तव्य है।
जीवन मूल्यों का हस्तांतरण
समाज में कितनी तरह की बातें आ रही हैं! हमारे संस्कार कहां गए! हमारी संस्कृति कहां है! जो संस्कृति अभी तक दुर्जेय सी बनी है, अभी भी उसको कोई नहीं जीत सकता, लेकिन उस संस्कृति के वाहक हम लोग उसकी परवाह रखेंगे तभी…। इसलिए समाज में पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले, संपूर्ण सृष्टि की धारणा करने वाले धर्म के संस्कार जो संस्कृति हमको सिखाती है, उस संस्कृति के पनपने का और उसके आगे की पीढ़ी तक पहुंचने का प्रश्न खड़ा हो गया है। भले ही भौतिक वैभव होगा, लेकिन परिवार टूट रहे हैं, मन में अशांति है, छोटे बच्चे बंदूक लेकर अपने विद्यालय के सहपाठियों को गोलियों से भून डालते हैं, ऐसी परिस्थितियां आती हैं। पिताहीन मातृत्व जैसी कितनी ही बातें हैं! क्या हमको वैसा बनना है? क्या हमको अपना परिवार प्यारा नहीं है? क्या हमारे सगे-संबंधी हमारे कुछ नहीं लगते? आज उस संस्कृति के संरक्षण का प्रश्न है। उसके लिए समाज में बात करने वाले, समाज में विभिन्न कार्यक्रम करने वाले, समाज का प्रबोधन करने वाले माध्यम, सबको अपने ऊपर संयम का बंधन लाना पड़ेगा। वे ऐसा बंधन लाएं, क्योंकि आज के तंत्र में सरकार बहुत सी बातें देखती है। उसके लिए भी सरकारों को प्रावधान करने पड़ेंगे। और बहुत काम करने हैं। ये काम केवल सरकारों को नहीं करने हैं। इसके लिए समाज को सिद्ध होना चाहिए।
समाज खड़ा हो तो आएगा परिवर्तन
प्रजातंत्र में समाज ही राजा को बनाता है और समाज ही अपनी स्थिति को बनाता है। इसलिए समाज अपने आप खड़ा हो, यह पहली आवश्यक बात होती है। समाज परिवर्तन से व्यवस्थाओं का परिवर्तन होता है। दुनिया में सर्वत्र यही हुआ है। जब कोई परिवर्तन आया तो पहले समाज में आया और उसके कारण व्यवस्था में आया। नेतृत्व खड़ा हुआ, लेकिन नेतृत्व को समाज का प्रतिसाद मिले, इसके लिए समाज का परिवर्तन हुआ। फ्रांसीसी राज्य क्रांति में फ्रांस के गरीबों का असंतोष शिखर पर पहुंच गया था, इसलिए क्रांति की बात करने वालों के पीछे सारी जनता खड़ी हो गई। यही रूस में हुआ। समाज में यह भाव पैदा हुआ कि इससे छूटना है, इससे बाहर आना है। अब वहां यह संस्कृति नहीं है; संयम, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य हमारे पास हैं। हमारे पास यही था, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति अलग प्रकार थी और वह भारतीय अभिव्यक्ति थी।
बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर कहते हैं कि कोई बड़ा परिवर्तन होने से पहले समाज में एक बड़ा आध्यात्मिक जागरण होता है। यह नियम है। अपने देश में तो है ही। शिवाजी महाराज से पहले सैकड़ों वर्ष तक संतों ने आध्यात्मिक जागरण किया। भक्ति की बुनियाद पर सारे समाज के भेद मिटाकर, वर्ण अभिमान का विसर्जन करके समाज खड़ा किया तो शिवाजी महाराज ने स्वराष्ट्र का विचार रखा। उसके पीछे सामान्य आदमी खड़ा हुआ। अपनी घर गृहस्थी संभालते हुए उनके लिए लड़ा। इसलिए दुनिया की बलशाली ताकतें भी उसको पराजित नहीं कर सकीं। ऐसे समाज के निर्माण का काम करना है। समाज में एकात्मता चाहिए, समाज में संस्कार चाहिए।
मूल में हम सब एक
हमारा समाज विविधताओं से भरा हुआ है और यह जानने वाला समाज है कि ये विविधताएं मिथ्या हैं। कुछ दिन चलती हैं। बाद में विविधता नहीं रहती। मूल में तो हम एक ही हैं। विविधता भी हमारी एकता का आविष्कार है, अभिव्यक्ति है। इसलिए उसको स्वीकार करो, मिल-जुलकर चलो, सब सही है। अपने-अपने मत पर पक्के रहो। दूसरों के मत का उतना ही सम्मान करो। उनका भी मत सत्य है, यह स्वीकार करो और मिलकर धर्म की राह पर चलो। मैं धर्म यानी पूजा की बात नहीं कर रहा हूं। अपनी-अपनी पूजा पर श्रद्धा रखकर, बाकी पूजाओं को भी उतना ही सत्य मानकर सब लोगों को मिलकर सबकी धारणा करनी है, सबको जिलाना है, सृष्टि को भी जिलाना है। पूरे अस्तित्व के विचार से अपने जीवन को चलाना है। यह धर्म है। उस धर्म मार्ग पर बढ़ते हैं तो उन्नति होती है।
हमारे देश में विविधता में एकता की दृष्टि बहुत पुरानी है। ‘कूर्म पुराण’ में यहां की जनता का वर्णन है। उसमें कहा गया है कि भारत भूमि की प्रजा अनेक देवी-देवताओं की पूजा करती है और अनेक प्रकार के रीति-रिवाज रखती है, अनेक भाषाएं बोलती है, फिर भी मिल-जुलकर चलती है। ‘अथर्ववेद’ की ऋचा भी प्रसिद्ध है:‘‘जनं विभ्रति बहुधा, विवाचसम्, नाना धर्माणं पृथ्वी यथौकसम्’’। ये हमारी रीति है। जब से हम इस रीति को भूले, तब से हमारा पतन हुआ। तब हमने अपने ही भाइयों को अस्पृश्य कहकर दूर रखा। इसके पीछे कोई न्याय नहीं है, कोई शास्त्र नहीं है। ना इसको वेदों का आधार है, न उपनिषदों का। यह तो स्वार्थी लोगों का बुना हुआ जाल है। अथवा कोई काल ऐसा आया होगा, जिसमें ऐसा चलना पड़ा होगा। जो भी था, अब वह कालबाह्य है और गलत है। समाज में एकता चाहिए। लेकिन अन्याय होता रहा है, इसलिए आपस में दूरी है, मन में अविश्वास है। हजारों वर्षका काम होने के कारण चिढ़ भी है।
स्वयं से हो बदलाव की शुरुआत
अपने देश में बाहर से आक्रामक आए तो आते समय अपना तत्वज्ञान भी लेकर आए। यहां के कुछ लोग विभिन्न कारणों से उनके विचारों के अनुयायी बन गए। ठीक है, अब वे लोग चले गए, उनके विचार रह गए और उनको मानने वाले भी रह गए। वे हैं तो यहीं के। विचार वहां के हैं, लेकिन यहां की परंपरा को उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बस एक बात है कि भारत के बाहर के विचारों में जो ‘हम ही सही बाकी सब गलत है’ की दृष्टि है उसको छोड़ो। मतांतरण वगैरह करने की जरूरत नहीं है। सब मत सही हैं। सब समान हैं, तो फिर अपने मत पर ही रहना ठीक है। दूसरों के मत का भी उतना ही सम्मान करो। इनका तत्त्व देने वाले बाहर से आए थे तो लड़ाई हुई, संघर्ष हुए। संघर्ष का लंबा इतिहास है। बहुत गहन संघर्ष हुए, बहुत कटु संघर्ष हुए। उसकी यादें हम भूले नहीं हैं। उन यादों को भूले नहीं, इसलिए देश टूट गया। वे भी इन दूरियों को और बढ़ाती हैं।
घाव बहुत गहरे हैं। उसकी पीड़ा है। अन्याय के प्रति जो चिढ़ है, उसके कारण अपने ही समाज के लोग रूठे हुए हैं, गुस्से में हैं, मन में आशंका है, दूरी है। इतिहास के कारण जो घाव हुए, उसकी पीड़ा है। इसलिए हम दूर हैं। तो पास आने और एक होने का मार्ग क्या होगा? मार्ग तो यही होगा कि उसको भूतकाल में जमा कर दो। डर है तो दुर्बल मत बनो। शक्ति संपन्न बनो, डर नहीं रहेगा। लेकिन शक्ति के साथ शील संपन्न बनो। शील अपने धर्म और संस्कृति से आता है, जो सत्य के बाद अहिंसा को कहता है, सबके प्रति सद्भावना को कहता है। सबके प्रति सद्भावना को लेकर, पुरानी बातों को भूलकर सबको अपनाना और हम एक-दूसरे को अपना सकें, इसलिए अपने को जो बदल अपने में करनी है, उसकी शुरुआत अपने घर से करनी है, स्वयं से करनी है।
विकृतियों को सुधारने का समय
अपने ही बंधुओं को, जो हमने ही दूर किए, उनको पास लाने के लिए जाति-पाति की बात ‘शुड गो आउट लॉक स्टॉक एंड बैरल’। बालासाहब देवरस जी ने यह कहा है। भाषण और कार्यक्रमों में यह बात दिखती है, परंतु मेरे आचरण और मेरे घर के आचरण से भी यह दिखनी चाहिए। उसकी जगह समताधिष्ठित व्यवहार की प्रतिस्थापना होनी चाहिए। यह कठिन होगा, लेकिन देश के लिए करना पड़ेगा। हजारों वर्ष से जो पाप हमने किया उसके प्रक्षालन के लिए यह करना पड़ेगा। ऐसे ही आपस में मिलना-जुलना है। एक ही बुनियाद है। वही यम, नियमात्मक आचरण का पुरस्कार सर्वत्र है और एक से सब निकला है—‘‘एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति’’। यही सबकी श्रद्धा है। इसलिए वह संबंध रखना, आना-जाना, अभेद बरतना, रोटी-बेटी आदि सब प्रकार के व्यवहार होने दो। बाहर की विचारधाराएं आईं। उनकी प्रकृति ऐसी थी कि ‘हम ही सही बाकी सब गलत’। अब उसको ठीक करना पड़ेगा, क्योंकि वह आध्यात्मिक नहीं है।
इन विचारधाराओं में जो अध्यात्म है, उसको ग्रहण करना पड़ेगा। पैगंबर साहब का इस्लाम क्या है, सोचना पड़ेगा। ईसा मसीह की ईसाइयत क्या है, सोचना पड़ेगा। भगवान ने सबको बनाया है। भगवान की बनाई इस प्रकृति के प्रति अपनी भावना क्या होनी चाहिए, सोचना पड़ेगा। सोच-समझकर, जो समय के प्रवाह में विकृतियां आई हैं उनको हटाकर और यह जानकर कि मत अलग हो सकते हैं, तरीके अलग हो सकते हैं, सब अलग हो सकता है, लेकिन हमको इस देश को अपना मानकर उसके साथ अपना भक्तिपूर्ण संबंध स्थापित कर, इस देश के पुत्र सब अपने भाई हैं, यह जानकर व्यवहार करना पड़ेगा। यह करने के लिए आदत की आवश्यकता रहेगी। क्योंकि विचार तो अच्छे होते हैं, मन को भी अच्छे लगते हैं, बुद्धि भी उनको मान्य करती है, लेकिन दशकों की, शतकों की जो आदत है उसको सुधारने में समय लगता है। इसलिए उसके लिए रोज व्यायाम करने की आवश्यकता है। वह व्यायाम ही संघ की शाखा है। ये सारी बातें संघ की शाखा में होती हैं। हंसते—खेलते होती हैं। करने वाले को ध्यान में भी नहीं आता कि जो मैं कर रहा हूं, उससे यह हो रहा है। दस-बारह साल के बाद पीछे मुड़कर वह जब उस समय के स्वयं के चित्र को देखता है तो उसको लगता है कि मैं कितना बदल गया हूं। संघ यही काम करता है। संघ इसी के लिए है। यह करते हुए अपने विश्व के सारे जीवन का आधार बनने वाले भारत को फिर से उस रूप में खड़ा करना है।
पांच बातों का आग्रह
हम पांच बातों का आग्रह समाज के सामने रख रहे हैं। स्वयंसेवक अपने से प्रारंभ करेंगे। इनमें पहली बात है सामाजिक समरसता का व्यवहार। अपने कार्य क्षेत्र में जितने प्रकार का समाज रहता है, उन सबमें अपने मित्र और मित्र कुटुंब होने चाहिए। जहां शक्ति है और लगता है कि समाज हमारे कहने से मान सकता है वहां मंदिर, पानी, श्मशान सबका एक होना चाहिए। पर्यावरण के बारे में हम प्रयास करेंगे-पानी बचाओ, प्लास्टिक हटाओ, पेड़ लगाओ, अपना घर हरित घर बनाओ। स्व-आधारित सारा व्यवहार हो। स्व-आधारित जीवन की कल्पना में उपभोग के लिए जीवन नहीं है। समृद्धि चाहिए, अय्याशी नहीं चाहिए। श्रीसूक्त में हम लक्ष्मी जी की स्तुति करते हैं। उसमें जैसे ‘धान्यम धनम् बहू पुत्र लाभम्’ वगैरह कहा है, वैसे ही ‘‘न क्रोधो न लोभो न मात्सर्यं नाशुभामति:’’ भी कहा गया है। हम नीति युक्त लक्ष्मी की पूजा करते हैं। उपभोग की अंधी दौड़ में हम नहीं दौड़ते, संयम रखते हैं। संयमित उपभोग पर हमारा विश्वास है। इसलिए फिजूल खर्च नहीं करना। बहुत ज्यादा तामझाम की आवश्यकता नहीं। सादगी से रहना, मितव्ययता से रहना, आवश्यकताएं सारी पूरी हों। समाज है तो उसमें थोड़ा—बहुत स्थान, मान सबका रहता है। उसके अनुसार अपना रहना-सहना हो, परंतु अनावश्यक खर्च नहीं करेंगे। सादगी से रह सकते हैं, रहेंगे। स्व-आधारित स्वदेशी का व्यवहार यही है। जो अपने घर में बन सकता है, बाहर से नहीं लाना। एकाध बार रविवार को चले गए पिज्जा खाने, ठीक है। लेकिन यह नियम नहीं बनना चाहिए। जो अपने देश में बनता है वह बाहर से नहीं लाना। बाहर से लेना तो पड़ता है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार है, लेकिन देश की नीतियां ऐसी बनें कि जो लेना है वह हम अपनी शर्तों पर लें। कोई हमको दबाए और उस दबाव के चलते हम उसकी चीज लें, ऐसा न हो।
घर का वातावरण बने सांस्कृतिक
अपने देश की व्यवस्था, कानून, संविधान, अनुशासन आदि सारी बातों का पालन करना। नगर पालिका से लेकर राज्य सरकार व केंद्र सरकार तक जो कर भरण होता है, वह समय पर करना। कोई नियम नहीं तोड़ना, कोई व्यवस्था नहीं तोड़ना, अनुशासन में रहना। ये सब मैं और मेरा परिवार कर सके इसके लिए हफ्ते में एक दिन अपने परिवार के साथ बैठना। अपने कुल की परंपरा, देश की संस्कृति और उसके मूल्यों पर आधारित व्यवहार कैसे करें, इसका स्मरण करना। उनको अपने जीवन में परिश्रम से जुड़ा कोई प्रसंग बताना, प्राण देकर भी निभाने वाले अपने कुल और अपने देश के पूर्वजों का स्मरण करना। उसके अनुसार अपना घर है अथवा नहीं इसकी चर्चा करना और सहमति से जो तय होता है वह लागू करना। घर के सब लोग एक बार बैठें और श्रद्धानुसार सप्ताह में एक बार भजन करें, घर में बनाया हुआ भोजन आनंद से करें और तीन-चार घंटे गपशप करके सारी बातों की चर्चा करें, धीरे-धीरे अपने घर का वातावरण सांस्कृतिक बनाएं। युगों से अपनी ऐसी परंपरा है। उस परंपरा की विश्व को आवश्यकता है। हम उसको कालसुसंगत रीति से, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और अपनी परंपरा दोनों का समन्वय करते हुए चरितार्थ करेंगे तो दुनिया को राहत मिलेगी। अपना देश भी अच्छा बनेगा, हमारा जीवन भी सुंदर होगा, सार्थक होगा।
संघ कार्य में सहयोगी बनें
ऐसे जीवन को बनाने का रास्ता सीखने के लिए स्वयंसेवक संघ की शाखा में आता है। पूरा समाज संघ की शाखा में आए, ऐसा आग्रह इसीलिए संघ रखता है। वहां क्या-क्या होता है, कैसे कार्यक्रम होते हैं, कौन से गीत होते हैं, कैसे सुभाषित होते हैं, यह सब ऐसे कार्यक्रमों से आपको देखने को मिलता है। परंतु दूर से देखने से तो कुछ होने वाला है नहीं। इसमें सहयोगी बनें, सहभागी बनें, इसकी आवश्यकता है। यह संघ की शाखा का कार्यक्रम आपने देखा है। लेकिन संघ के स्वयंसेवक अनेक काम करते हैं। नित्य चलने वाले छोटे-बड़े सेवा कार्य और सेवा की गतिविधियां, सब मिलाकर 1,22,000 से अधिक काम चल रहे हैं। भीड़ होती है तो अलग श्रेणियां बनाकर गिनने की कुछ बातें छोड़नी पड़ती हैं। वह कार्य इतना बड़ा है। जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जिसमें संघ के स्वयंसेवक कोई मंच या संगठन बनाकर सक्रिय नहीं हैं। उन सबमें आप आ सकते हैं। परंतु यह जो रोज का व्यायाम है हमारे शरीर, मन, बुद्धि का, ऐसे काम में हम रहें, उन कामों से अपने आप को बांध लें, कर्तव्य समझकर इन्हें करें। लेकिन बांधकर भी निर्बंध रहें। काम करें, लेकिन मैंने किया, यह अहंकार न पालें। अपने देश को इस सच्ची सेवा की आज आवश्यकता है। विश्व को भी इसकी आवश्यकता है। पूरे विश्व की सेवा भारत का जीवन ध्येय है।
भगवान काम करते नहीं, करवाते हैं
निर्माण हमेशा बुनियाद से शुरू होता है। पहले शिखर बाद में बुनियाद, यह चमत्कार केवल भगवान ही कर सकते हैं। भगवान दुनिया में कोई काम करते नहीं, करवाते हैं। बैठे-बैठे सुदर्शन चक्र चला देते रावण मर जाता। लेकिन मनुष्य रूप लिया, इतने कष्ट सहन किए, सुदूर जंगलों में, ग्रामों में जाकर जागृति की। चाहते तो द्रोपदी के चीरहरण प्रसंग के वक्त ही कौरवों को भस्म कर देते। लेकिन भगवान ‘पहले शिखर बाद में बुनियाद’ का चमत्कार बहुत कम करते हैं। भगवान की रीति यह है कि वह हमको बुद्धि देता है, हमको स्वतंत्रता देता है, संस्कारों द्वारा शुद्ध बुद्धि के प्रकाश में काम करने का अवसर देता है। हमारे काम करने पर भगवान की उंगली लगती है। हमारी लकड़ी पर गोवर्धन उठ रहा है, ऐसा हमको लगता है, लेकिन उंगली भगवान की लगती है, ध्यान रहे वह उंगली तभी लगती है जब हमारी लकड़ी लगती है। यही सर्वत्र दुनिया के इतिहास में हुआ है। यही अपने यहां होना चाहिए, होने जा रहा है। हमको उसका निमित्त बनकर काम करना है। इसलिए संघ के इस महाअभियान में मैं आप सबको आमंत्रित करता हूं।
टिप्पणियाँ