चिकित्सा विज्ञान की आधुनिक उपलब्धियां निःसंदेह चमत्कृत करने वाली हैं। आज गंभीर से गंभीर रोगों का इलाज व आधुनिकतम तकनीकें देश दुनिया में उपलब्ध हैं। देश-दुनिया के चिकित्सा वैज्ञानिक तमाम तरह की दवाएं, वैक्सीन और एंटीबायोटिक्स ईजाद कर चुके हैं। लेकिन; जिंदा रहने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी तत्व “रक्त” को अभी तक बनाया नहीं जा सका है। रक्त जीवन का आधार है। किसी स्वस्थ व्यक्ति के रक्त की कुछ बूंदें किसी मरते हुए व्यक्ति की जान बचा सकती हैं। रक्त अनमोल है। इसका कोई दूसरा विकल्प नहीं है क्योंकि न ही इसका निर्माण किया जा सकता और न ही मनुष्य को किसी मनुष्येत्तर जीव का रक्त चढ़ाया जा सकता है। इसीलिए रक्तदान को ‘महादान’ की संज्ञा दी जाती है ताकि खून की कमी से मरने वाले लोगों का जीवन बचाया जा सके। हर दूसरे सेकण्ड में दुनिया भर में कोई न कोई जिंदगी मौत से जूझ रही होती है, ऐसे में हमारा रक्तदान किसी को जीवनदान दे सकता है।
शरीर में रक्त की कमी से गंभीर बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं। एक अनुमान के अनुसार रक्ताल्पता के कारण भारत में प्रति वर्ष 16 लाख लोग मौत के मुंह में चले जाते हैं। हर तीसरे सेकेण्ड में अपने यहां किसी न किसी को रक्त की आवश्यकता पड़ती है और अस्पतालों में भर्ती हर दस रोगी में से एक रक्त की कमी से जूझ रहा होता है। खून की यह आवश्यकता केवल रक्तदान यानी ब्लड डोनेशन से ही पूरी हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के तहत भारत में सालाना एक करोड़ यूनिट रक्त की जरूरत है लेकिन केवल 75 लाख यूनिट रक्त ही उपलब्ध हो पाता है। यानी करीब 25 लाख यूनिट रक्त के अभाव में हर साल लाखों मरीज दम तोड़ देते हैं। विशेषज्ञों के अनुसार भारत में कुल रक्तदान का केवल 59 फीसदी रक्तदान स्वैच्छिक होता है।
रक्त से हमारी जिंदगी तो चलती ही है, हम अन्य लोगों का जीवन भी बचा सकते हैं। मगर दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में अभी भी बड़ी संख्या में लोगों के मन में रक्तदान को लेकर अनेक भ्रान्तियां फैली हुई हैं। लोग यह समझते हैं कि रक्तदान से शरीर कमजोर हो जाता है और नियमित खून देने से रोग प्रतिकारक क्षमता कम हो जाती है जिससे बीमारियां जल्दी जकड़ लेती हैं। इस बारे में लखनऊ के केजीएमयू मेडिकल कालेज की पैथालॉजी से सेवानिवृत चिकित्सक डा. जी. एस. राणा कहते हैं कि यह धारणा कि रक्तदान से शरीर कमजोर हो जाता है, पूरी तरह गलत है। सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है। स्वस्थ लोग स्वैच्छिक रक्तदान कर कितने ही अन्य के जीवन को बचा सकते हैं। आमजन को यह ज्ञात होना चाहिए कि मनुष्य के शरीर में रक्त बनने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है और रक्तदान से कोई भी नुकसान नहीं होता। रक्तदान के सम्बन्ध में चिकित्सा विज्ञान कहता है कि कोई भी स्वस्थ व्यक्ति जिसकी उम्र 16 से 60 साल के बीच हो, जो 45 किलोग्राम से अधिक वजन का हो, जिसका हीमोग्लोबिन 12.5 हो और जिसे ‘एचआईवी’, ‘हेपाटिटिस’ ‘बी’ या ‘सी’ तथा ब्लड शुगर जैसी बीमारी न हो; बिना किसी भय के रक्तदान कर सकता है। जो व्यक्ति नियमित रक्तदान करते हैं उन्हें हृदय सम्बन्धी बीमारियां कम परेशान करती हैं क्योंकि रक्तदान करने से करने से खून में कोलेस्ट्रॉल जमा नहीं होता। तीसरी अहम बात यह है कि हमारे रक्त की संरचना ऐसी है कि उसमें समाहित लाल रक्त कणिकाएं तीन माह में स्वयं ही मर जाती हैं। इस कारण प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति तीन माह में एक बार रक्तदान कर सकता है। आधा लीटर रक्त से तीन लोगों की जान बच सकती है। हालांकि बड़ी संख्या में लोग सोचते हैं इतने लोग रक्तदान कर रहे हैं तो मुझे अपना खून देने की क्या जरूरत है? मेरा ब्लड ग्रुप तो बहुत आम है इसलिए यह तो किसी को भी आराम से मिल सकता है तथा कई लोग यह सोचते हैं कि मेरा ग्रुप तो “रेयर” है इसलिए जब किसी को इस ग्रुप की जरूरत होगी तभी मैं रक्त दूंगा। इस संकुचित सोच को बदलने की जरूरत है। किसी की जान बचाने से बड़ा पुण्य दूसरा नहीं हो सकता।
यह सच है कि बीते एक दशक में जागरूकता अभियानों के कारण देश में रक्तदान को लेकर भ्रातियां काफी कम हुई हैं। इस दिन देशभर में जगह जगह रक्तदान शिविरों का आयोजन कर प्रसार और जागरूकता कार्यक्रमों के माध्यम से अधिक से अधिक लोगों को रक्तदान के लिए प्रोत्साहित किया जाता है; ताकि हादसों, ऑपरेशन तथा गंभीर रोगों के इलाज के दौरान खून की कमी को पूरा किया जा सके। पर अब भी इस दिशा में लोगों का जागरूक होना बहुत जरूरी है।
ज्ञात हो कि रक्त की इसी प्राणदायिनी महत्ता के प्रति जन जागरूकता फैलाने के लिए प्रति वर्ष 14 जून को “विश्व रक्तदान दिवस” मनाया जाता है। गौरतलब हो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रक्तदान को बढ़ावा देने के लिए 14 जून का दिन इसलिए चुना क्योंकि इस दिन सुविख्यात ऑस्ट्रियाई जीवविज्ञानी और भौतिकीविद कार्ल लेण्ड स्टाइनर (14 जून 1868 -26 जून 1943) का जन्मदिन हुआ था; जिन्होंने इंसानी खून के ‘ए’, ‘बी’, व ‘ओ’ रक्त समूह और रक्त में मिलने वाले एक अहम तत्व ‘आरएच फैक्टर’ की खोज की थी। इस खोज के लिए उन्हें 1930 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। चिकित्सा विज्ञान में इस महान योगदान के लिए उन्हें ट्रांसफ्यूजन मेडिसन का पितामह भी कहा जाता है।
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