यूरोपीय यूनियन में यूरोपीय संसद के लिए सम्पन्न हुए चुनावों में राष्ट्रवादी दलों का दबदबा रहा और फ्रांस और जर्मनी में सत्ताधारी दलों को हार का सामना करना पड़ा। इससे क्षुब्ध होकर फ्रांस में राष्ट्रपति मैक्रों ने नेशनल असेंबली को भंग कर दिया और देश में मध्यावधि चुनावों की घोषणा कर दी। ध्यान देने वाली बात यह है कि यूरोप में पिछले कुछ समय से जैसे-जैसे शरणार्थियों द्वारा वहां के नागरिकों के प्रति अपराध और हिंसा बढ़ी है, वैसे-वैसे राष्ट्रवादी दलों का उभार भी हुआ है।
इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी की पार्टी की सीट यूरोपीय यूनियन संसद में दोगुनी हो गयी। उनकी पार्टी का दबदबा भी काफी बढ़ा है। जर्मनी में भी दक्षिणपंथी दल “अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी’ को जीत हासिल हुई है। ऐसा कई वर्षों से कहा जा रहा था कि यूरोप में कथित उदार राजनीति के दिन लद गए हैं, क्योंकि मानवता के नाम पर बुलाए गए शरणार्थियों ने देश की पहचान के साथ खिलवाड़ करना आरंभ कर दिया था। आए दिन फ्रांस जैसे देशों से दंगों की खबरें आती रहती थीं।
हाल ही में जर्मनी में धुर राष्ट्रवादी दल के नेता जो राजनीतिक इस्लाम का विरोध करते रहते हैं, उनकी रैली में हमला हुआ था। हमले में एक पुलिसकर्मी की मृत्यु हो गई थी। हमला अफगान मूल के व्यक्ति ने किया था और उसके बाद जर्मनी में इस बात को लेकर बहस आरंभ हो गई कि क्या युद्धग्रस्त क्षेत्रों में शरणार्थियों को वापस भेज दिया जाए। अफगानिस्तान में लोगों को वापस भेजना की प्रक्रिया वर्ष 2021 में रोक दी गई थी, जब तालिबानी शासन सत्ता में आया था। ऐसा माना गया कि वह लोगों के साथ अत्याचार करेगा। हालांकि हाल ही में हुई इस घटना को लेकर लोगों के भीतर बहुत गुस्सा है, क्योंकि वह रैली किसी मजहब के विरुद्ध नहीं, बल्कि जर्मनी के इस्लामीकरण के विरोध में थी।
यूरोप के इस्लामीकरण को लेकर मुस्लिम समाज के कई दावे सामने आते रहते हैं और जब ऐसी घटनाएं होती हैं तो राजनीतिक इस्लाम के प्रति लोगों की नाराजगी बढ़ती है। मगर यह भी सच है कि जर्मनी और फ्रांस सहित उन सभी यूरोपीय देशों में कट्टर इस्लामी और कम्युनिस्ट हिंसा बढ़ रही है, जिन्होंने मानवता के नाम पर युद्धग्रस्त देशों के नागरिकों को शरण दी थी, फिर चाहे वे सूडान के हों, अफगानिस्तान के हों या फिर यमन के। यूरोपीय देशों में फिलिस्तीन के समर्थन मे हुए आंदोलन इसका प्रमाण है कि कितनी तेजी से कट्टर कम्युनिस्ट एवं इस्लामी विचार लोगों को प्रभावित कर रहे हैं।
जैसे ही यूरोपीय यूनियन में फ्रांस में दक्षिणपंथी/राष्ट्रवादी दल की जीत हुई, वैसे ही आजादी का राग अलापने वाले लेफ्ट/कम्युनिस्ट लोग सड़कों पर उतर आए और सड़कों पर दंगे आरंभ कर दिए। फॉर राइट अर्थात कट्टर राष्ट्रवादी लोगों के खिलाफ कट्टर कम्युनिस्ट/लेफ्ट लोग सड़कों पर उतरे हुए हैं। आगजनी हो रही है और लोगों को मारा जा रहा है। लोगों की संपत्ति नष्ट की जा रही है। पेरिस की सड़कों पर लोग उतरकर आगजनी कर रहे हैं।
यह कितनी हास्यास्पद बात है कि वह वर्ग जो अपने लिए हर चीज की आजादी चाहता है, फ्रांस में तो वह मैक्रों का भी विरोध कर रहे हैं। सरकार ने पेरिस ओलंपिक्स को ध्यान में रखते हुए सेने नदी को साफ करवाया है। कुछ लोगों को यह लगता है कि इस सफाई परियोजना की लागत बहुत अधिक है, इसलिए जिस दिन मैक्रों उस नदी में तैरेंगे, उसी दिन एक्टिविस्ट उस नदी में मल त्याग करके उसे गंदा करेंगे। देखते ही देखते इस अभियान के लिए वेबसाइट भी बन गई है और लोगों ने अपना नाम देना भी आरंभ कर दिया है। ये हरकतें कट्टरपंथी कम्युनिस्ट वर्ग की ही होती हैं, जिन्हें न ही देश की सफाई पसंद आती है और न ही देश की सुरक्षा।
तो क्या मैक्रों की नीतियों से न ही जनता और न ही आंदोलनकारी वर्ग संतुष्ट है। मैक्रों ने हालांकि कट्टर राष्ट्रवादी दल को हराकर ही जीत हासिल की थी और उनकी जीत पर लिबरल वर्ग ने कट्टर दक्षिणपंथी दल की हार का जश्न मनाया था। परंतु जब मैक्रों ने इस्लाम विरोधी कुछ कदम उठाए थे, तब से इस्लामिस्ट और कम्युनिस्ट उनसे नाराज थे। और अब जब यूरोपीय यूनियन में फ्रांस और जर्मनी दोनों ही देशों में कट्टर दक्षिणपंथी/राष्ट्रवादी दलों की जीत हुई है तो फ्रांस में होने वाले दंगे बहुत कुछ कहते हैं। यह दंगे बताते हैं कि फिलिस्तीन की आजादी का नारा लगाने वाले लोग यह आजादी नहीं देना चाहते कि लोग अपने मत का प्रयोग अपने मन से करें।
यह वन-वे वाली मानसिकता है, जो लोगों को अपने कब्जे में रखना चाहती है और जो अपना ही राजनीतिक वर्चस्व चाहती है। वह यह सहन नहीं कर सकती है कि राष्ट्र की बात करने वाले और अपने देश को बाहरी शत्रुओं से बचाने वाले लोग सत्ता में आएं। भारत में भी भाजपा विरोधी दलों द्वारा भाजपा समर्थकों के साथ यह हिंसक व्यवहार देखा जा सकता है। कुछ वर्ष पूर्व हुए पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में यह देखा गया था कि कैसे तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने भाजपा के समर्थकों को जीत के बाद मारना आरंभ कर दिया था। वीडियो डराने वाले थे। हालांकि तृणमूल कांग्रेस का राजनीतिक विचार कम्युनिस्ट नहीं है, मगर उसके तौर तरीके कम्युनिस्ट वाले ही हैं, जैसे अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के समर्थकों को उनके मत देने की आजादी का प्रयोग न करने देना। राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखना। पूरब से पश्चिम तक वह वर्ग जो आजादी की बात करता है, जो मानवता की बात करता है वह उतना ही अधिक हिंसक बनकर सामने आया है, फिर चाहे कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं पर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा किया गया हमला हो, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा भाजपा को वोट देने वाली सोसाइटी पर हमला या कचरा फिंकवाना हो या फिर अब फ्रांस में धुर दक्षिणपंथी दल को यूरोपीय यूनियन में जीत हासिल होने पर सड़कों पर दंगे करना, पैटर्न वही है। जो देश हित की बात करे, जो देश की अखंडता की बात करे, जो देश की पहचान के आधार पर नागरिकों की पहचान की बात करे, और जो देश में अलगाववाद की बात न करते हुए देश की एकता की बात करते हैं, उन दलों का विरोध करना और देश को अस्थिर करने का निरंतर प्रयास करते रहना।
परंतु यूरोप में अब लोग जागरूक हो रहे हैं और कथित आजादी के रखवाले दल दक्षिणपंथी दलों पर प्रतिबंध की भी बातें करने लगे हैं। पिछले वर्ष फ्रांस के इंटीरियर मंत्री ने कट्टर दक्षिणपंथी विरोध प्रदर्शनों पर रोक की बात की थी। यूरोपीय यूनियन के इन नतीजों ने कनाडा के राष्ट्रपति को भी विचलित कर दिया है और वे अब जनता के मत पर प्रश्न उठा रहे हैं। जहां एक तरफ फ्रांस में कट्टर लेफ्ट वाले लोग फ्रांस को जला रहे हैं, तो वहीं जनता के मत पर प्रश्न उठाते हुए जस्टिन ट्रूडो का कहना है कि यूरोप में जो हो रहा है, उससे वे चिंतित हैं। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजादी का चोला ओढ़े हुए लोग लोगों को अपने मन के राजनीतिक चयन की आजादी भी नहीं देना चाहते हैं और पूरब से लेकर पश्चिम तक यही परिदृश्य इन दिनों परिलक्षित हो रहा है।
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