सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है, वक्त आने दे बता देंगे तुझे ऐ आसमां, हम अभी से क्या बताएं, क्या हमारे दिल में है
ओज और जोश से भरी इस पंक्ति ने हजारों नौजवानों को देश की स्वतंत्रता के लिए न्यौछावर होने की प्रेरणा दी। महान स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद बिस्मिल जिन्होंने अपना सर्वस्व राष्ट्र के लिए न्यौछावर कर दिया और सदा के लिए भारतवासियों को ऋणी बना गए। राम प्रसाद एक कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाविद्, इतिहासकार व साहित्यकार भी थे। बिस्मिल उनका उर्दू तखल्लुस (उपनाम) था जिसका हिन्दी में अर्थ होता है आत्मिक रूप से आहत। बिस्मिल के अतिरिक्त वे राम और अज्ञात के नाम से भी लेख व कवितायें लिखते थे।
रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को उत्तरप्रदेश के शाहजहांपुर में बेहद साधारण कृषक परिवार में ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी (निर्जला एकादशी) शुक्रवार को हुआ। उनके पिता का नाम मुरलीधर और मां का नाम मूलमती था। बालक की जन्म-कुण्डली व दोनों हाथ की दसों उँगलियों में चक्र के निशान देखकर एक ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि “यदि इस बालक का जीवन किसी प्रकार बचा रहा, यद्यपि सम्भावना बहुत कम है, तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई भी ताकत नहीं रोक पायेगी।” माता-पिता दोनों ही सिंह राशि के थे और बच्चा भी सिंह-शावक जैसा लगता था। अतः ज्योतिषियों ने बहुत सोच विचार कर तुला राशि के नामाक्षर र पर नाम रखने का सुझाव दिया। माता-पिता दोनों ही राम के आराधक थे अतः बालक का नाम रामप्रसाद रखा गया। माँ मूलमती तो सदैव यही कहती थीं कि उन्हें राम जैसा पुत्र चाहिये था। रामप्रसाद बिस्मिल की प्रारंभिक शिक्षा पिता के सानिध्य में घर पर हुई। बाद में उर्दू पढ़ने के लिए वे एक मौलवी के पास गए। अंग्रेजी से आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद रामप्रसाद बिस्मिल जब नौवीं कक्षा में थे, तो वे आर्य समाज के संपर्क में आए। स्वामी दयानंद सरस्वती की रचना सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर उनमें काफी परिवर्तन आया। उन्हें वैदिक धर्म को जानने का अवसर प्राप्त हुआ। किताब से उनके जीवन में नये विचारों और विश्वासों का जन्म हुआ। उन्हें सत्य, संयम, ब्रह्मचर्य का महत्व समझ में आया। रामप्रसाद बिस्मिल ने अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत का प्रण किया। इसके लिए अपनी पूरी जीवनचर्या ही बदल डाली। रामप्रसाद बिस्मिल के जीवन पर सबसे अधिक उनकी मां का प्रभाव पड़ा। वह बहुत ही धार्मिक, सदाचारी, कर्तव्यपरायण और देशभक्त थीं । रामप्रसाद बिस्मिल अपनी आत्मकथा में लिखते हैं “यदि मुझे ऐसी माता न मिलती, तो मैं भी अतिसाधारण मनुष्यों की भांति, संसार चक्र में फंसकर जीवन निर्वाह करता।”
आर्य समाज के सदस्य और देशभक्त भाई परमानंद की गिरफ्तारी और फांसी की सजा होने की खबर ने रामप्रसाद बिस्मिल को झकझोर दिया। उनके भीतर स्वतंत्रता की ज्वाला भड़क उठी। इसके बाद से ही उन्होंने विदेशी ताकत को उखाड़ फेंकने का निश्चय कर लिया। मैनपुरी षड्यंत्र केस के प्रसिद्ध क्रांतिकारी गेंदालाल दीक्षित से, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल काफी प्रभावित हुए। बिस्मिल व दीक्षित दोनों ने मैनपुरी, इटावा, आगरा व शाहजहांपुर आदि जिलों में गुपचुप अभियान चलाया और युवकों को देश की आन पर मर मिटने के लिए संगठित किया। इन्हीं दिनों उन्होंने ‘देशवासियों के नाम संदेश’ नाम का एक पत्र प्रकाशित किया भारत के स्वतंत्रता संग्राम इतिहास में काकोरी की घटना बेहद महत्वपूर्ण है। इस घटना के बाद भारतीय जनमानस, स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए, क्रांतिकारियों की ओर आशा भरी दृष्टि से देखने लगा। क्रांतिकारियों का उद्देश्य ट्रेन से शासकीय खजाना लूटकर, उन पैसों से हथियार खरीदना था, ताकि अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध को मजबूती मिल सके। राम प्रसाद बिस्मिल ने 9 अगस्त 1925 को चंद्रशेखर आजाद सहित अपने नौ साथियों के साथ, डाउन सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर पर शाहजहांपुर में सवार हुए। चेन खींचकर रेलगाड़ी को रोका गया और खजाना लूटा गया। इस कार्य में उनके साथ अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र लाहिड़ी, चन्द्रशेखर आजाद, शचीन्द्रनाथ बख्शी, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुन्दी लाल, केशव चक्रवर्ती, मुरारी शर्मा तथा बनवारी लाल शामिल थे। काकोरी कांड के बाद ब्रिटिश सरकार बेहद गंभीर हो गई और गहन छान-बीन करवाई गई। देशभर से 40 लोगों को गिरफ्तार किया गया। 26 सितंबर 1925 को बिस्मिल भी गिरफ्तार कर लिए गए।
रामप्रसाद बिस्मिल को गिरफ्तार करने के बाद गोरखपुर जेल में कुछ दिनों तक रखा गया। महीनों तक मुकदमा चला। अंततः उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। बिस्मिल को 19 दिसम्बर 1927 को फांसी हुई। उससे पूर्व, सुबह वे स्नान कर तैयार हुए। फांसी के फंदे के समीप पहुंचे। जब रामप्रसाद बिस्मिल से उनकी अंतिम इच्छा के विषय में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि, ब्रिटिश साम्राज्य का सर्वनाश। इसके बाद उन्होंने वैदिक मंत्रों का पाठ किया। भारतमाता की जय और हिंदुस्तान जिंदाबाद का नारा लगाया। देश की स्वतंत्रता के लिए वीर रामप्रसाद बिस्मिल ने फांसी के फंदे को चूम लिया। उनके बलिदान का समाचार समूचे देश में फैल गया। फूलों की चादर ओढ़े बिस्मिल के शव का अंतिम संस्कार किया गया। जब उनके बलिदान की सूचना उनकी मां को मिली, तो उन्होंने कहा, “मैं अपने पुत्र की इस मृत्यु पर प्रसन्न हूँ, दुःखी नहीं। मैं श्री रामचन्द्र जैसा ही पुत्र चाहती थी। वैसा ही मेरा राम था। बोलो श्री रामचन्द्र की जय!” उनकी माता का यह कथन उस दौर के प्रमुख समाचार पत्रों में छपा। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां की दोस्ती बेहद प्रसिद्ध थी। दोनों बेहद अच्छी शायरी और गजल भी लिखते थे। स्वयं रामप्रसाद बिस्मिल बेहतरीन रचनाकार थे। बेहद प्रसिद्ध मेरा रंग दे बसंती चोला नामक गीत उन्होंने ही लिखा था। स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर भी साझा विचार रखने वाले दोनों क्रांतिकारियों ने, देश की आज़ादी के लिए प्राणों की आहुति दे दी। बिस्मिल की फांसी के चंद दिनों बाद ही अशफाक उल्ला खां को भी फांसी दे दी गई। 30 वर्ष की आयु में पौष कृष्ण एकादशी (सफला एकादशी), सोमवार, 1927 को बलिदान हुए। देशभक्तों की ये दोस्ती सांप्रदायिक सद्भाव का सबसे बड़ा उदाहरण बन गया। रामप्रसाद बिस्मिल का त्याग, सदियों तक जन्मभूमि की रक्षा के लिए, सर्वस्व अर्पित करने की प्रेरणा देता रहेगा।
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