भारत में दशकों से एक कुटिल खेल चल रहा है। यहां तथाकथित अल्पसंख्यक अधिकारों को लेकर राजनीति होती है। प्रान्तों की परंपरा और भाषा के संरक्षण की बात होती है। जातियों की संख्या की चर्चा उछाली जाती है, लेकिन, जब हिंदुओं की कुल संख्या या हिंदुओं की घटती जनसंख्या पर कोई बात करता है, तो उसे तुरंत चुप करवाने, उसकी आवाज को दबाने की कोशिश शुरू हो जाती है। यहां मुसलमानों को केंद्रित करके सच्चर कमेटी बनाई जा सकती है। उस कमेटी की विवादित रिपोर्ट के आधार पर देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला अधिकार होने की बात कही जा सकती है। अल्पसंख्यकों के नाम पर ”रंगनाथ कमीशन” बनाया जा सकता है लेकिन भारत में हिदुओं की घटती संख्या पर कोई अध्ययन नहीं किया जा सकता।
चिंतित करते आंकड़े
हाल ही में ‘‘शेयर आफ रिलीजस माइनॉरिटी : अ क्रॉस-कंट्री एनालिसिस’’, 1950 -2015 नाम से एक अध्ययन सामने आया। दरअसल अमेरिका के स्नातकों के एक समूह ने ‘‘रिलीजस कैरेक्टरिस्टिक्स आफ स्टेट्स’’ नामक शोध प्रकाशित किया था, जिसमें 167 देशों का अध्ययन किया गया और दुनिया में विभिन्न पूजा पद्धतियों (मुस्लिम, ईसाई, पारसी, यहूदी आदि) के मानने वालों की बदलती जनसंख्या के आंकड़े रखे गए। आठ माह पहले इस रिपोर्ट को आधार बनाकर प्रधानमंत्री की सलाहकार परिषद ने भारत में अल्पसंख्यकों की स्थिति पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करनी प्रारंभ की। इसके आंकड़े चौंकाने वाले थे।
इस रिपोर्ट के अनुसार स्वाधीनता के बाद भारत में हिंदुओं की जनसंख्या लगातार घटती गई है, और 1950 की तुलना में 2015 आते-आते हिंदुओं की जनसंख्या में लगभग आठ प्रतिशत गिरावट आई है। जबकि मुसलमानों की संख्या 43.5 प्रतिशत बढ़ी है। भारत से अलग हुए पाकिस्तान और बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) में भी 1950 की तुलना में हिंदुओं की जनसंख्या घटकर नगण्य रह गई, जबकि वहां भी मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ती गई। पाकिस्तान में मुसलमानों की जनसंख्या 77.45 प्रतिशत से बढ़कर 88.02 प्रतिशत हो गई, जबकि बांग्लादेश में मुसलमानों की जनसंख्या 74.24 से बढ़कर 88 प्रतिशत हो गई। यहां तक कि नेपाल में भी हिंदुओं की जनसंख्या घटी है।
झुठलाना, दबाना और भटकाना
इस शोध के सामने आते ही खास राजनीतिक और वैचारिक समूहों द्वारा इसे नकारने की कोशिशें शुरू हो गईं। देश को बरगलाने के लिए कुछ नेता, कुछ कथित बुद्धिजीवी मैदान में उतर आए। तौर-तरीके वही पुराने कि बात को घुमाने के लिए सबसे पहले कह दो कि यह सब झूठ है, और फिर आंकड़ों को इस ढंग से पेश करो कि असली मुद्दा चर्चा के बाहर हो जाए।
ये लिक्खाड़ और बुद्धिजीवी बखूबी जानते हैं कि रोजमर्रा की भागदौड़ में लगा आम आदमी अमूमन इतनी गहराई में नहींं जाता। इसलिए बात की दिशा को बदलकर, कुछ भ्रम पैदा करके, पूरी बात को ही विवादित बनाकर मामले को दबाया जा सकता है। घटती हिंदू जनसंख्या के सच को छिपाने के लिए कहा जा रहा है कि 2001 से 2011 के बीच मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर हिंदुओं के मुकाबले ज्यादा घटी है, इसलिए घटती हिंदू जनसंख्या की बात व्यर्थ है। वास्तविकता यह है कि 1991 से 2001 के बीच मुसलमानों की जनसंख्या की वृद्धि दर 29.3 प्रतिशत थी जो 2001 से 2011 के बीच 24.6 प्रतिशत रही। वहीं, इसी कालखंड में, हिंदू जनसंख्या की वृद्धि दर 20 से घटकर 16.8 प्रतिशत रह गई।
यानी मुसलमानों की जनसंख्या में वृद्धि दर अभी भी हिंदुओं से बहुत ज्यादा है। 1950 में भारत में हिंदुओं की जनसंख्या 30 करोड़ 36 लाख थी, जो आज 96 करोड़ के लगभग है। वहीं 1951 में मुसलमानों की जनसंख्या 3 करोड़ 53 लाख थी, जो आज 20 करोड़ से अधिक है। यानी पिछले 7 दशकों में हिंदू जनसंख्या तीन गुना बढ़ी और मुसलमानों की जनसंख्या 7 गुना के लगभग।
इतने सीधे से हिसाब को आंकड़ों की बाजीगरी से धुंधला कर दिखाया जा रहा है। बयान दिए जा रहे हैं कि भारत में घटती हिंदू आबादी की बात असत्य है, और एक चाल भी है। जहां एक तरफ सत्य को इस तरह छिपाया जाता है, वहीं दूसरी तरफ यह दुष्प्रचार किया जाता है कि भारत में बहुसंख्यकवाद हावी हैं, अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों पर अत्याचार हो रहे हैं। देश के बड़े-बड़े विपक्षी नेता विदेशों में जाकर इस तरह के बयान देकर आए हैं।
इस तरह की बुद्धिजीविता और सियासत का एक दूसरा रूप भी है। वह पहले इन आंकड़ों की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। फिर कहते हैं कि अगर यह आंकड़े सही हैं, तो भारतवासी के रूप में हमें गर्व होना चाहिए कि हम अल्पसंख्यकों के साथ अच्छा व्यवहार कर रहे हैं। वे कहते हैं कि भारतवासियों को इसके लिए प्रसन्न और संतुष्ट होना चाहिए। यानी घटती हिंदू आबादी पर कोई चिंता नहीं करनी चाहिए। वो हिंदुओं को यह दिलासा देते हैं कि हिंदू आबादी घट नहीं रही है बल्कि मुस्लिम आबादी थोड़ा ज्यादा तेजी से बढ़ रही है।
इतिहास का सबक
कश्मीर घाटी, कैराना, केरल का मलाबार क्षेत्र, पश्चिम बंगाल के बांग्लादेश सीमा के इलाके,असम की जनजातीय पट्टियां, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, म्यांमार वगैरह के सबक बताते हैं कि हिंदू आबादी घटने के परिणाम क्या होते हैं। संख्याबल के महत्व को न समझने के परिणाम बार-बार सामने आते रहे हैं, लेकिन जान-बूझकर, इसे एक वर्जित विषय बना कर रखा गया। एक बहुत बड़े, तथाकथित सेकुलर पत्रकार जो दूसरे पत्रकारों को ईमानदारी या बेईमानी का प्रमाणपत्र देने और लोगों की जाति पूछने के लिए मशहूर हैं, एक टीवी बहस में सवाल दागते हैं ‘‘क्या हो जाएगा अगर भारत में हिंदू कम हो गए, और भारत मुस्लिम बहुल देश बन गया? इसमें इतना बड़ा क्या मुद्दा है?’’
अपनी संस्कृति से घृणा करने वाली इसी सोच ने सत्ता संरक्षण, राजनीतिक गठजोड़ और विश्वव्यापी तंत्र के बल पर दशकों तक विमर्श माध्यमों पर अपना कब्जा बनाए रखा। यही वे लोग हैं, जो पाकिस्तान, बांग्लादेश में हिंदुओं पर होने वाले अत्याचारों, बलात्कारों और हत्याकांडों को चर्चा के लायक नहीं समझते। कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन शिविरों से मुंह मोड़ लेते हैं, और भारत को 1947 में पैदा हुआ ‘‘आइडिया आफ इंडिया’’ बताते हैं। लेकिन भारत यहां की आध्यत्मिक सांस्कृतिक परंपरा के अलावा और है क्या?
हिंदू जनसंख्या घटना, मतलब किसी एक पूजा पद्धति का घटना नहीं, बल्कि यह हजारों पूजा पद्धतियों, एक सर्व समावेशी, सर्व स्वीकार्यता वाली संस्कृति के समाप्त होने का खतरा है। हिंदू हैं तभी तो वेद, उपनिषद्, गीता, जिन सूत्र और धम्म पिटक हैं। तभी तो शांति है। भारत की विविधता, भारत के विभिन्न रंगों की छटा, भारत का लोकतांत्रिक स्वरुप, सहिष्णुता, यह सब यहां की हिंदू संस्कृति के कारण है यह निर्विवाद सत्य है। यहां कुतर्क के चौसर पर एक पासा और फेंका जाता है यूरोप के उदाहरण का। चूंकि भारत की हिंदू जनसंख्या भी उसी राह की ओर बढ़ रही है जिस राह पर यूरोप की स्थानीय जनसंख्या है।
यूरोपीय देशों में भी मुसलमानों की जनसंख्या स्थानीय लोगों की जनसंख्या की तुलना में अत्यंत तीव्र गति से बढ़ रही है। फ्रांस में फ्रेंच, जर्मनी में जर्मन और ब्रिटेन में ब्रिटिश घट रहे हैं, और बाहर से आए मुसलमान अप्रवासियों की जनसंख्या विस्फोटक वृद्धि दर्शा रही है। वामपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा इनकी तुलना हिंदुओं से करके इसे तरक्की की निशानी बताया जा रहा है। उनके कपट तर्क का सार है कि उन्नतशील लोग जनसंख्या में घटते ही हैं, इसलिए हिंदुओं को अपनी घटती संख्या को प्रगति की निशानी मानकर खुश होना चाहिए। इसलिए एक दृष्टि यूरोप के विकराल हो रहे जनसंख्या असंतुलन पर डालनी चाहिए, साथ ही यह भी देखना चाहिए कि क्या यूरोपवासी, स्वयं की घटती जनसंख्या और उनके शहरों में बढ़ती मुसलमानों जनसंख्या को तरक्की या आधुनिकता या सेकुलरिज्म की निशानी मान रहे हैं?
पिछले दशकों में यूरोप के उद्योग जगत को सस्ते श्रमिकों की आवश्यकता महसूस हुई। उद्योग जगत के दबाव में सरकारों ने अप्रवासियों के लिए दरवाजे खोल दिए, जिनमें बड़ी संख्या पश्चिम एशिया, उत्तरी अफ्रीका, पाकिस्तान, बांग्लादेश और दक्षिण पूर्व एशिया के मुसलमान थे। ये अन्य अप्रवासियों की तरह यूरोप के समाज में घुल-मिल नहीं सके। उच्च जननदर व निरंतर योजनाबद्ध अप्रवासी आगमन के चलते इनकी संख्या बढ़ती गई, और मूल यूरोपीय श्वेतों के साथ इनके अलगाव की खाई भी दिन पर दिन स्पष्ट होती गई।
आज यूरोप के शहरों में लेबनान, मोरक्को, इराक, ईरान, पाकिस्तान, बंग्लादेश, अफगानिस्तान व अरब देशों से आए लाखों मुस्लिम अप्रवासी एक प्रभावी व आक्रामक अल्पसंख्यक समुदाय बनकर उभर आए हैं। आने वाले वर्षों में यूरोप के मुस्लिम बहुल महाद्वीप में परिवर्तित होने की प्रबल संभावना है। कुछ यूरोपीय लेखकों ने इस समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए 2030 के बाद के यूरोप को यूरेबिया (यूरोप + अरेबिया) कहना शुरू कर दिया। पिछले पांच दशकों में श्वेतों की जनसंख्या वृद्धि दर में आधुनिक जीवन शैली तथा अनेक सामाजिक बदलावों के कारण बहुत तेजी से गिरावट आई है, जबकि मुस्लिम प्रवासियों की जनसंख्या श्वेतों की तुलना में कई गुना तेजी से बढ़ रही है। यूरोप में यह भय व्याप्त है, कि आज से दो दशक बाद ब्रिटेन में ब्रिटिश और फ्रांस में फ्रेंच अल्पसंख्यक हो जाएंगे।
शरिया की मांग
ऐसी परिस्थितियों के चलते जनता का प्रतिरोध खड़ा होना शुरू हो गया है, जिसकी राजनैतिक प्रतिध्वनि भी सुनाई देने लगी है। पोलैंड ने मुसलमान अप्रवासियों के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए हैं। ट्रम्प, जॉर्जिया मेलोनी के बयान सुर्खियों में हैं, लेकिन हालात इतनी तेजी से बदले हैं, कि यूरोप अभी संभल नहीं पाया है। पेरिस में नववर्ष पर हजारों गाड़ियों को जला दिया जाता है। यूरोप के शहरों में इस्लामी कानून लागू करने के लिए प्रदर्शन होते हैं, मजहबी नारे लगते हैं ‘‘शरिया फॉर ब्रिटेन’’ ‘‘शरिया फॉर फ्रांस’’, ‘‘शरिया फॉर हॉलैंड’’….और ‘‘लॉ आफ द लैंड, गो टू हेल ’’ (देश का कानून जाए जहन्नुम में)। बेल्जियम की राजधानी ब्रूसेल्स में मुस्लिम इलाकों में ‘‘बेल्जिस्तान’’ का बोर्ड देखा जा सकता है।
मुस्लिम जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। नवजात बच्चों के जन्म पंजीयन डेटा के विश्लेषण से पता चलता है कि सबसे ज्यादा रखे जाने वाले नामों में ‘‘मुहम्मद’’ नाम शीर्ष पर है। पाश्चात्य वेशभूषा को गैर इस्लामी बताते हुए श्वेत महिलाओं एवं लड़कियों पर शारीरिक हमले हो रहे हैं। लेकिन सोशलिस्ट-वामपंथी-वोक दुष्प्रचार, पश्चिम एशिया से यूरोप व अमेरिका के मीडिया व शिक्षा संस्थानों को मिलने वाले धन और राजनीतिक स्वार्थों के कारण लंबे समय तक इस सब की अनदेखी की जाती रही। परिणाम यह है कि फ्रांस, ब्रिटेन, हॉलैंड, नॉर्वे, इटली में सड़कों पर सामूहिक नमाज पढ़ी जाने लगी है। रूस के राष्ट्रगीत की धुन में चर्च की घंटियों का विरोध होता है। चेचेन और तार्तार मुस्लिमों से होते हुए वहाबी इस्लाम रूस में पैठ बनाता जा रहा है, और बल्गारिया के ग्रामीण इलाकों में ईसाई बच्चों को मुस्लिम बनाने संबंधी विवाद खड़े हो रहे हैं।
एक अरब की चेतावनी संयुक्त अरब अमीरात के विदेश मंत्री शेख अब्दुल्ला बिन जायद के बयान को यूट्यूब पर देखा जा सकता है जिसमें वे कहते हैं कि ‘वो दिन आएगा जब हम यूरोप से कहीं ज्यादा कट्टरपंथी, चरमपंथी और आतंकी निकलते देखेंगे। इसका कारण वे बताते हैं, अनिर्णय, हमेशा राजनैतिक दृष्टि से सोचना और ये भ्रम पालना कि वे पश्चिम एशिया और इस्लाम को हमसे बेहतर समझते हैं। 2017 में भी बिन जायद का बयान आया था कि ‘‘हम लंदन, जर्मनी, स्पेन और इटली से आवाजें सुन रहे हैं, लोगों को कत्ल करने, खून बहाने और उनकी संपत्ति लूटने की।’’
इसके बाद इन सभी जगहों पर मुस्लिम चरमपंथियों ने उत्पात मचाया तो बिन जायद के द्वारा दी गई चेतावनी की चर्चा होने लगी। कहा गया कि यूरोप और अमेरिका में ईसाइयों की जनसंख्या सिकुड़ रही है, मुसलमानों की जनसंख्या उसका स्थान लेती जा रही है। उदाहरण के लिए 1950 में 24 अफ्रीकी देशों में जीववाद या सर्वात्मवाद (एनीमिजम) को करने वाली बहुसंख्यक आबादी थी। आज इन सभी देशों में ये अल्पसंख्यक हैं। बौद्ध देशों में बौद्ध जनसंख्या का प्रतिशत कम हुआ है। इस तरह स्थानीय संस्कृति और परंपराओं का समाप्त होना चिंता का विषय क्यों नहीं होना चाहिए?
भारत में हिंदू संख्या में आठ प्रतिशत कम हो गई है। जब कभी भारत में घटती हिंदू जनसंख्या की बात चली तो उसे राजनैतिक दांवपेंच, भ्रम फैलाने की कोशिश, हिंदूवादी प्रोपेगेंडा आदि कहकर दरकिनार किया जाता रहा। दूसरी तरफ ‘‘बच्चे अल्लाह की देन हैं’’ वाली सोच और प्रचार की वकालत की जाती है। खुलेआम बोलने वाले लोग हैं कि ‘‘हम दुनिया को जीतेंगे अपनी औरतों के गर्भ से।’’ इस सोच से देश कैसे चलेगा? इस चर्चा से कब तक मुंह मोड़ा जाएगा? सच्चर कमेटी और रंगनाथ कमीशन ने जिस तरह तोड़-मरोड़कर आंकड़े प्रस्तुत किए थे, उन पर कभी कोई व्यापक बहस नहीं हुई। यह खुलकर बात करने का समय है, सवाल करने का समय है कि यदि देश में हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएगा तो क्या भारत, भारत रह जाएगा?
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