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सबके हित की चिंता हो

आकाश में लगातार बढ़ते विमान, जंगल के बीच बढ़ते रास्ते पूरी मानवता के सामने प्रश्न खड़ा कर रहे हैं, यह प्रश्न प्राणी जगत के सह अस्तित्व से जुड़ा है।

by हितेश शंकर
May 29, 2024, 10:56 am IST
in भारत, सम्पादकीय
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देश में चुनावी सरगर्मी चरम पर है। हर ओर राजनीति पर चर्चा हो रही है। परंतु इन सब चर्चाओं से इतर कुछ जगहों से ऐसे समाचार आए, जो किसी भी संवेदनशील मन को विचलित करने वाले हैं-

  • मेक्सिको के दक्षिण-पूर्व उष्णकटिबंधीय जंगलों में हाउलर बंदर गर्मी की तपन से बेहोश होकर पेड़ों से गिर रहे हैं, विलुप्तप्राय प्रजाति के सात दर्जन से भी ज्यादा बंदरों की मौत की खबरें आई हैं।
  • महाराष्ट्र के नागझिरा वन्यजीव अभयारण्य में एक तेज रफ्तार कार ने बाघ को टक्कर मारी और पांव टूटे बाघ ने घिसट-घिसटकर दम तोड़ दिया।
  • दुबई से उड़कर मुंबई आ रहे विमान से टकरा कर तीन दर्जन से भी ज्यादा फ्लेमिंगो पक्षियों की मौत हो गई।
    इन सारी दिल दुखाने वाली खबरों के बीच प्रश्न उठता है कि प्राकृतिक वातावरण का इंसान के दुख और सुख से भला क्या नाता है?
हितेश शंकर

लन्दन स्कूल आफ इकोनॉमिक्स से जुड़े जॉर्ज मैक्केरां और सुजाना मौरातो का 10 बरस पहले का एक शोध याद आता है। यह शोध हरियाली, प्राकृतिक वातावरण के साथ मानव की खुशी बढ़ने के अंर्तसंबधों की बात करता है।
पश्चिम के लिए ऐसा शोध नया हो सकता है किंतु हमारे लिये! हम तो –
‘माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:
पर्जन्य: पिता स उ न: पिपर्तु॥’
का उद्घोष करने वालों की सन्तति हैं!
अथर्ववेद के 12वें कांड, सूक्त 1 की इस 12वीं ऋचा का अर्थ है-यह भूमि (पृथ्वी) हमारी माता है और हम सब इसके पुत्र हैं। ‘पर्जन्य’ अर्थात मेघ हमारे पिता हैं। और ये दोनों मिल कर हमारा ‘पिपर्तु’ अर्थात पालन करते हैं।
धरती और आकाश संपूर्ण सृष्टि से मनुष्य को जोड़ देने वाला कैसा अद्भुत दर्शन है!

ठीक है, राजनीति और दूसरे अन्य सभी विषयों पर चर्चा होनी चाहिए, लेकिन मनुष्य और प्राणिमात्र के बीच जो बारीक ताना-बाना है, जिससे हम परस्पर जुड़े हैं, क्या उसकी समझ और आवश्यकता अन्य विषयों से अधिक महत्वपूर्ण नहीं है? भले ही हम महानगरों, गांवों या कस्बों में रहते हों, लेकिन इसी प्रकृति, इसी पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा तो हैं।

कोई यह कह सकता है कि हवाई जहाज आकाश में उड़ेंगे तो यदा-कदा पक्षी भी उससे टकरा सकते हैं। किंतु प्रश्न है कि दुर्घटनाओं के सामान्यीकरण के ऐसे तर्क हमें कहीं बड़ी दुर्घटना की ओर तो नहीं ले जा रहे? फ्लेमिंगो जैसे दुर्लभ राजहंसों या अन्य पक्षियों के प्रभाव, व्यवहार और आवश्यकता के क्षेत्र और मार्ग कौन-कौन से हैं? वे किस दिशा से आवाजाही करते हैं? या उनके उड़ने की कोई निश्चित ऊंचाई है, इसे लेकर क्या कोई अध्ययन हुआ है या इस तरह के अध्ययनों की कोई आवश्यकता ही अनुभव नहीं की गई।

बढ़ती जनसंख्या के कारण नगर फैल-पसर रहे हैं। विकास के अन्य पैमानों पर भी हम बढ़ रहे हैं। किन्तु किस कीमत पर? जंगलों की ताबड़तोड़ कटाई, राह बदलती नदियों का उफान और पहाड़ों में गहराती खदान का दर्द क्या केवल उन्हीं पेड़, नदी, पहाड़ों तक सीमित रहना है? जंगल कटता है, पानी घटता है, गर्मी बढ़ती है तो आसपास के पूरे क्षेत्र में तेंदुए और दूसरे वन्यजीवों के हमले बढ़ जाते हैं। बंदरों के झुंड तो आवासीय क्षेत्रों में हमेशा ही आते रहते हैं। हम इसे हमले की तरह देखते हैं, लेकिन उनके आवास पर पहला हमला तो हमारी तरफ से हुआ, तब ही तो उनका मुंह और रास्ता इधर घूमा।

आकाश में लगातार बढ़ते विमान, जंगल के बीच बढ़ते रास्ते पूरी मानवता के सामने प्रश्न खड़ा कर रहे हैं, जो प्राणी जगत के सह अस्तित्व से जुड़ा है।

संरक्षित वन क्षेत्र में वाहन कब, कितने और क्यों निकलने चाहिए, गति सीमा क्या होनी चाहिए? क्या इन प्रश्नों पर प्रतिबंधात्मक नियमों से परे जाकर भी हमें संवेदनशीलता से सोचना नहीं चाहिए?

ऊपरी तौर पर इक्का-दुक्का दिखने वाली इन घटनाओं में हम एक-दो प्राणियों की जानें ही नहीं गंवा रहे बल्कि अपनी संवेदनशीलता भी घटाते-गिराते जा रहे हैं। यह संवेदनशीलता ही सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि व्यक्ति को प्रकृति से उसका संबंध बताने वाला, उसे भावनात्मक रूप से जोड़ने वाला भारतीयता का जो आध्यात्मिक दर्शन इस संवेदना का आधार है, यदि वह समझ-सूझ छीजी तो हम मानव और सृष्टि को संतुलित करने वाले सुनहरे अनुपात (Golden Ratio) को खो देंगे। यही वह समझ है जो धरती पर जीवन के लिए आवश्यक है। यही वह संतुलन है, जो प्राणी जगत में मानव को विशिष्ट स्थान प्रदान करता है और अधिक समझदारी की अपेक्षा भी रखता है।

मानव और उसके भौतिक आयाम  के इर्द-गिर्द सोचते हुए प्रसन्नता की कसौटियों को देखने- समझने के पश्चिमी शोध और पर्यावरणीय चेतना से जुड़े प्रयास भले आज के और सीमित विचार पर आधारित हों, परंतु हमारे लिए यह विचार हमारी सहस्राब्दियों पुरानी जीवन शैली का हिस्सा है।

चुनाव संपन्न होने को हैं, परिणाम आने को हैं। भारत का भविष्य गढ़ती वैचारिक राजनीति अपनी गि और दर्शन से अपना सकारात्मक काम करेगी ही, सही दिशा में मतदान करके आप अपने हिस्से का काम पूरा कीजिए। और हां! सब काम राजनैतिक क्षेत्र की ओर छोड़ने की बजाय जरा लंबे चलने वाले और आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ अधिक महत्वपूर्ण कार्यों का हिस्सा आप स्वयं बनिये।

यह भारत की दृष्टि है, जो मनुष्य ही नहीं, प्राणी मात्र और जड़-चेतन को भी समान और समन्वित दृष्टि से देखता है। यह दर्शन ही भारत को अद्वितीय बनाता है।

राजनीति के मौसम में हर बात को राजनीतिक चश्मे से देखने वालों के लिए एक बात और- आप राजनीति को देखते-देखते यदि सारी चीजों को राजनीतिक दृष्टि से देखने लगे हैं तो जरा नजर घुमाइये।

आसपास की और चीजों को, और हां, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी, नए दृष्टिकोण से देखिए -पर्यावरण गतिविधि के लिए संघ कितना काम कर रहा है।

आज इस गतिविधि के अंतर्गत लगभग 75 विश्वविद्यालयों के 4,000 से अधिक विद्यार्थियों को पर्यावरण बचाने की आनलाइन शिक्षा दी जा रही है। ‘एक पेड़ देश के नाम’ अभियान चलाकर देश में लगभग 575 सघन वन लगाए गए। मध्य भारत में मालवा प्रांत की शंकरगढ़ पहाड़ी पर 50,000 पेड़ लगाकर उसे ‘पितृ पर्वत’ नाम दिया गया। बेंगलुरु में इसी कार्य से प्रेरित हरित अपार्टमेंट प्रतिवर्ष 12.60 लाख लीटर पानी बचा रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से पर्यावरण रक्षा की दिशा में शुरू हुए और भी सैकड़ों काम दिखाए, गिनाए जा सकते हैं। पूरे देश में पर्यावरण के प्रति लोगों को सजग करने के लिए ऐसे अनेक कार्य हो रहे हैं।

बहरहाल, चुनाव संपन्न होने को हैं, परिणाम आने को हैं। भारत का भविष्य गढ़ती वैचारिक राजनीति अपनी गति और दर्शन से अपना सकारात्मक काम करेगी ही, सही दिशा में मतदान करके आप अपने हिस्से का काम पूरा कीजिए। और हां! सब काम राजनैतिक क्षेत्र की ओर छोड़ने की बजाय जरा लंबे चलने वाले और आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ अधिक महत्वपूर्ण कार्यों का हिस्सा आप स्वयं बनिये।

फिर से सोचिए, संघ ने यह काम हाथ में क्यों लिया?
क्या यह उसके संगठन के लिए आवश्यक काम है?
क्या यह केवल हिंदुओं के हित का काम है?
क्या यह केवल देश विशेष के लोगों के हित का काम है?
नहीं! मानव ही नहीं, यह काम पूरे प्राणी जगत के लिए है। यह काम आवश्यक है!
हाउलर के हाथों से पेड़ों की छूटती शाखें,
आकाश से गिरते क्षत-विक्षत राजहंस,
सड़कों पर घिसटकर दम तोड़ते वनराज
… ये आखिरी चीखें और खून के छींटे भी अगर मानवता की नींद न तोड़ सके तो सबके लिए आगे की रात बड़ी गहरी और काली है।

@hiteshshankar

Topics: चुनावी सरगर्मी चरमIdeological politicsrooted consciousnessराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघcommon and coordinated visionRashtriya Swayamsevak Sanghincreasing populationपाञ्चजन्य विशेषphysical dimensionवैचारिक राजनीतिelection excitement at its peak.जड़-चेतनसमान और समन्वित दृष्टिबढ़ती जनसंख्याभौतिक आयाम  के इर्द-गिर्द
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