भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हुए भारत माता के वीर सपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दी। किसी को फांसी दी गई तो किसी को आजीवन कारावास। कई स्वतंत्रता सेनानियों को काला-पानी की सजा, जहां इंसान को कोल्हू का बैल बनाया जाता था। लेकिन इन अमर सेनानियों ने कभी भी अंग्रेजी शासन के सामने घुटने नहीं टेके। ऐसे ही क्रांतिकारियों में से एक थे रासबिहारी बोस। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की और सुभाष चंद्र बोस को आजाद हिंद फौज की कमान सौंपी। रासबिहारी बोस आजादी के लिए सशस्त्र आंदोलन में विश्वास रखते थे, इसके लिए उन्होंने जापान जाकर इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की। वह उन लोगों में से थे जो देश से बाहर जाकर दूसरे राष्ट्रों की सहायता से अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण तैयार कर भारत की मुक्ति का रास्ता निकाला।
रासबिहारी बोस का जन्म 25 मई 1886 को बंगाल के वर्धमान जिले के सुबालदाह गांव के बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। मां का नाम भुवनेश्वरी देवी और पिता का नाम विनोद बिहारी बोस था। आरम्भिक शिक्षा सुबालदह में हुई। तीन वर्ष की आयु में रासबिहारी ने मां को खो दिया। मामी ने उनका पालन-पोषण किया। उनके बचपन के समय महामारी और सूखे का दौर था। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के जुल्म भी देखे। इससे उनके मन में अंग्रेजों के प्रति गुस्सा था। बोस की कॉलेज शिक्षा चंदननगर के डुप्लेक्स कॉलेज में हुई, जहां के प्राचार्य चारू चंद्र रॉय ने उन्हें क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए प्रेरित किया। बोस ने फ्रांस और जर्मनी से मेडिकल साइंसेस और इंजीनियरिंग की डिग्री भी हासिल की।
वाराणसी से सिंगापुर तक क्रांतिकारियों को जोड़ा
देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान में बोस ने कुछ दिनों तक काम किया। वह वहां हेड क्लर्क रहे। इसी बीच वह क्रांतिकारी जतिन मुखर्जी के नेतृत्व वाले संगठन युगान्तर के अमरेन्द्र चटर्जी के संपर्क में आए। फिर वह बंगाल के क्रांतिकारियों से जुड़ गए। बाद में वह अरबिंदो घोष के राजनीतिक शिष्य रहे यतीन्द्रनाथ बनर्जी उर्फ निरालम्ब स्वामी के सम्पर्क में आने पर संयुक्त प्रान्त और पंजाब के प्रमुख आर्य समाजी क्रांतिकारियों के निकट आये। 1907 के बंग भंग के समय से ही वे क्रांतिकारी गतिविधियों में सम्मिलित होने लगे। सरकारी नौकरी में रहते हुए भी रासबिहारी बोस ने क्रांतिकारी दल का संगठन किया। इसका गठन करने के लिए बड़ी ही सतर्कता से भ्रमण करना पड़ता था। उनके क्रांतिकारी कार्यों का एक प्रमुख केंद्र वाराणसी रहा। वाराणसी से सिंगापुर तक क्रांतिकारियों को जोड़ने में सफलता मिली।
वायसराय हार्डिंग को ऐसे दिया चकमा
1912 में देश की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित किए जाने पर अंग्रेजों ने एक कार्यक्रम का आयोजन किया था। 23 दिसम्बर,1912 को हाथी पर सवार वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की सवारी दिल्ली के चांदनी चौक में निकाली जा रही थी। तब रास बिहारी बोस ने उन पर बम फेंकने की योजना बनाई। युगांतर दल के सदस्य बसन्त कुमार विश्वास ने हार्डिंग की बग्गी पर बम फेंका, लेकिन निशाना चूक गया और पुलिस ने बसंत तो पकड़ लिया। बम की वजह से मची भगदड़ का लाभ उठाकर रास बिहार वहां से बच निकले और रातों-रात रेलगाड़ी से देहरादून चले गए। बम फेंकने के अगले ही दिन अपने कार्यालय में इस तरह काम करने लगे जैसे कुछ हुआ ही न हो। अंग्रेजों को उन पर शक न हो इसलिए उन्होंने देहरादून में ही शोक सभा बुलाई और अंग्रेजों को दिखाने के लिए हार्डिंग पर हुए हमले की निंदा की। इस हमले ने पूरी ब्रिटिश सत्ता की नींव हिला कर रख दी थी। हमले के बाद अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों पर शिकंजा कसना शुरू किया। ब्रिटिश पुलिस रासबिहारी बोस के पीछे लग गयी। ब्रिटिश खुफिया पुलिस ने रासबिहारी बोस को पकड़ने की कोशिश की, लेकिन वह उनके हाथ नहीं लगे। हमले के कुछ महीनों बाद वायसराय लॉर्ड हार्डिंग मेहमान के तौर पर देहरादून के फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट आए। उनके सम्मान में रास बिहारी ने एक शानदार रिसेप्शन भी रखवाया था। इन तमाम बातों की किसी को भनक नहीं थी कि वायसराय पर हुए हमले के पीछे इसी शख्स का हाथ था। पुलिस की सख्ती के देखते हुए जून 1915 में राजा पी. एन. टैगोर के छद्म नाम से जापान पहुंचे और वहां रहकर भारत की आजादी के लिए काम करने लगे। उन्होंने जापान में अंग्रेजी अध्यापन के साथ लेखक व पत्रकार के रूप में भी काम प्रारम्भ कर दिया। इन्होंने वहां न्यू एशिया नाम से एक समाचार-पत्र भी निकाला। जापानी भाषा भी सीखी और 16 पुस्तकें लिखीं। इन्होंने टोकियो में होटल खोलकर भारतीयों को संगठित किया।
जापान में यहां मिला आश्रय
जब ब्रिटिश सरकार को विदित हुआ कि रासबिहारी बोस जापान में हैं तो उन्हें सौंपने की माँग की। जापान सरकार ने मांग मान ली, लेकिन वहां की राष्ट्रवादी संस्था ब्लेड ड्रैगन के अध्यक्ष टोयामा ने उन्हें अपने यहां आश्रय दिया। इसके बाद किसी का साहस न था कि उन्हें गिरफ्तार कर सके। 1916 में जापान के प्रसिद्ध पैन एशियाई समर्थक सोमा आइजो और सोमा कोत्सुको की पुत्री तोशिको सोमा से उन्होंने विवाह किया। सोमा से उन्हें एक बेटा और एक बेटी हुई। बेटे ने जापान की ओर से दूसरे विश्व युद्ध में हिस्सा लिया, जिसमें वह बलिदान हो गए। बोस ने 1923 में वहां की नागरिकता ले ली। जापान में वह पत्रकार और लेखक के रूप में रहने लगे। भारतीय स्वातंत्र्य संघ की स्थापना की। जापानी अधिकारियों को भारतीय राष्ट्रवादियों के पक्ष में खड़ा करने और देश की आजादी के आन्दोलन को उनका सक्रिय समर्थन दिलाने में रासबिहारी बोस की अहम भूमिका रही। उन्होंने 28 मार्च 1942 को टोकियो में एक सम्मेलन बुलाया, जिसमें ‘इंडियन इंडीपेंडेंस लीग’ की स्थापना का निर्णय किया गया। फिर उन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए सेना बनाने का प्रस्ताव रखा।
आजाद हिंद फौज का गठन
22 जून 1942 को रासबिहारी बोस ने बैंकाक में लीग का दूसरा सम्मेलन बुलाया, जिसमें सुभाष चंद्र बोस को लीग में शामिल होने और उसका अध्यक्ष बनने के लिए आमन्त्रित करने का प्रस्ताव पारित किया गया। जापान ने मलय और बर्मा के मोर्चे पर कई भारतीय युद्धबन्दियों को पकड़ा था। इन युद्धबन्दियों को इंडियन इंडिपेंडेंस लीग में शामिल होने और इंडियन नेशनल आर्मी (आई०एन०ए०) का सैनिक बनने के लिये प्रोत्साहित किया गया। लीग की सैन्य शाखा के रूप में सितम्बर 1942 इसका गठन किया गया और सुभाषचंद्र बोस को अध्यक्ष बनाया गया। रासबिहारी बोस ने एक झंडे का भी चयन किया जिसे आजाद नाम दिया गया। इस झंडे को उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के हवाले किया। जापानियों की सहायता से नेताजी की फौजें चटगांव, कोहिमा, इंफाल तक जा पहुंचीं। लेकिन जापान पर हुए आक्रमण ने विश्वयुद्ध की दिशा बदल दी। जापानी सैन्य कमान ने रास बिहारी बोस और जनरल मोहन सिंह को आईएनए के नेतृत्व से हटा दिया। लेकिन आईएनए का संगठनात्मक ढांचा बना रहा। 21 जनवरी 1945 को रास बिहार बोस का निधन हो गया। उनके निधन के 2 साल बाद आजाद भारत का उनका सपना पूरा हुआ। निधन से कुछ समय पहले जापानी सरकार ने उन्हें आर्डर ऑफ द राइजिंग सन के सम्मान से अलंकृत भी किया था।
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