सदियों से खानाबदोश जीवन जीने वाली जातियां आज भी विकास की मुख्यधारा से दूर उपेक्षित जीवन जी रही हैं। इन जातियों को घुमंतू, अर्धघुमंतू और विमुक्त— तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। स्वभाव से स्वाभिमानी और स्वतंत्रता प्रेमी इन जातियों ने मध्यकाल में मुसलमानों और ब्रिटिश काल में अंग्रेजों से जम कर लोहा लिया। इस कारण इनका बहुत क्रूरता के साथ दमन किया गया और इतिहास में इनके योगदान को पूरी तरह छुपा दिया गया। यही नहीं, इन जातियों को जन्मजात ‘अपराधी’ कह कर शेष हिंदू समाज से दूर करने का षड्यंत्र किया गया। बाहर से आकर भारत पर राज करने वाली शक्तियों के लिए घुमंतू समुदाय स्वाभाविक तौर पर आंख की किरकिरी था, किंतु दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के बाद भी इनकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया।
‘हिंदव: सहोदरा सर्वे, न हिंदू पतितो भवेत’ अर्थात् सभी हिंदू सहोदर भाई हैं, कोई भी हिंदू पतित नहीं है— इस विचार पर चलते हुए राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने इनके बीच कार्य प्रारंभ किया और बहुत कम समय में ही उनके घुमंतू कार्य के प्रयास और परिणाम आज पूरे देश में दिखाई दे रहे हैं।
स्वयंसेवकों की सक्रियता से जयपुर महानगर में घुमंतू कार्य को विशेष गति मिली है। यहां अनेक स्थानों पर शिविर लगाकर इनका पहचानपत्र बनाने का काम किया जा रहा है, ताकि ये सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने में सक्षम हो सकें। इन्हें स्वच्छता एवं स्वास्थ्य के प्रति जागरूक करने के लिए इनकी बस्तियों में नि:शुल्क चिकित्सा शिविर लगाए जा रहे हैं। अनेक बस्तियों में आधारभूत प्रशिक्षण एवं कुछ मानदेय के साथ आरोग्य मित्र नियुक्त किए गए हैं। छात्रावास एवं बाल संस्कार केंद्रों के माध्यम से इनकी नई पीढ़ी को सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ने का काम किया जा रहा है। इनकी बस्तियों में इन्हीं की जातियों से पुजारी नियुक्त किए गए हैं, जो पूजास्थल पर नियत समय पर आरती करवाते हैं। दीपावली एवं रक्षाबंधन जैसे त्योहारों पर अपने कार्यकर्ता इनकी बस्तियों में जाकर त्योहार मनाते हैं।
तीर्थयात्रा : एक अभिनव प्रयोग
21 अप्रैल को घुमंतू समाज के 110 लोगों के जीवन में एक अविस्मरणीय दिन था। अब तक जिन लोगों ने गंगा मैया का केवल नाम ही सुना था, उन्होंने ‘घुमंतू तीर्थ योजना’ के अंतर्गत हरिद्वार और ऋषिकेश की तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान किया। इससे पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,जयपुर के प्रांत प्रचारक बाबूलाल ने तीर्थयात्रियों को संबोधित किया। इस अवसर पर क्षेत्रीय कार्यवाह जसवंत खत्री और महानगर घुमंतू कार्य संयोजक राकेश कुमार शर्मा भी उपस्थित रहे। इसके बाद यह जत्था हरिद्वार के लिए रवाना हुआ। जिन लोगों ने स्वप्न में ही गंगा मैया के दर्शन किए थे, प्रस्थान के समय उनका उत्साह देखने योग्य था। 22 अप्रैल को प्रात: इन्होंने गंगा मैया के प्रथम दर्शन किए। हर की पौड़ी पर गंगा मैया के निर्मल प्रवाह और उसके किनारे खड़ी भगवान भोलेनाथ की विशाल प्रतिमा को देख कई श्रद्धालुओं की आंखों से आंसुओं की ‘गंगा’ बहने लगी।
हर की पौड़ी से आगे बढ़कर ये तीर्थयात्री आचार्य श्रीराम शर्मा की तपोभूमि शांतिकुंज पहुंचे। वहां जिस आत्मीयता के साथ उनका स्वागत किया गया, वह स्वयं इस बात की घोषणा थी कि वे अकेले नहीं हैं, सारा हिंदू समाज उनके साथ है। अपनी पारंपरिक राजस्थानी वेशभूषा में अलग नजर आने वाले ये घुमंतू तीर्थयात्री सभी के लिए आकर्षण का केंद्र थे। जब लोगों को यह पता चला कि ये महाराणा प्रताप की सेना में लड़ने वाले स्वाभिमानी सैनिकों के वंशज हैं, जो अपने पूर्वजों की प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए यायावर जीवन जी रहे हैं, तो यह आकर्षण आस्था में बदल गया। अनेक लोगों ने इनसे मिल कर अपनी आत्मीयता व्यक्त की। यहां इन्होंने सप्तऋषि स्थल के दर्शन किए और अपने पितरों की शांति के लिए सर्वपितृ शांतियज्ञ किया।
तत्पश्चात् ये लोग ऋषिकेश के लिए रवाना हुए। यहां रामझूला पर खड़े होकर इन्होंने इस भाव के साथ गंगा मैया को देखा जैसे वह हिमालय से जमीन पर नहीं, बल्कि सीधे उनके हृदय में उतर रही हों। यहां स्वर्गाश्रम से शिवालिक की पहाड़ियों के बीच इठलाती नृत्य करती गंगा को देखकर जैसे इनकी पीढ़ियों की प्यास तृप्त हो रही थी। यह ऐसा दिव्य दर्शन था जैसे ये केवल आंखों से नहीं, बल्कि अपनी देह के रोम-रोम से गंगा को देख रहे हों। रामझूला से गंगा मैया को पार कर इन्होंने गीता भवन और परमार्थ निकेतन के दर्शन किए। ये लोग हरिद्वार में गंगा स्नान करके आए थे, लेकिन यहां मैया के जादू में बंधे सब एक बार फिर पानी में उतर गए। गंगा मैया ने भी सदियों से उपेक्षित अपनी इन प्रिय संतानों को भरपूर दुलार दिया।
लक्ष्मण झूला पर निर्माण कार्य चालू होने के कारण उधर जाना संभव नहीं हो सका। इसलिए रामझूला से जानकी सेतु होते हुए त्रिवेणी घाट पहुंच कर ये लोग प्रतिदिन शाम को होने वाली गंगा आरती में सम्मिलित हुए। आवागमन, आवास एवं भोजन की व्यवस्था दानदाताओं के सहयोग से पूर्णतया नि:शुल्क थी। पीढ़ी दर पीढ़ी मेहनत-मजदूरी करके जीवन-यापन करने वाले इन लोगों के लिए इस प्रकार की यात्रा के बारे में सोचना तक असंभव था। उनके लिए गंगा मैया के दर्शन जन्म-जन्मांतर की प्यास मिटने जैसा अनुभव था। यात्रा करने वाले श्रद्धालुओं के साथ-साथ यात्रा का प्रबंधन करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए भी यह एक अभूतपूर्व अनुभव था। आज अपने सांस्कृतिक मानबिंदुओं एवं जड़ों के साथ जुड़ाव के लिए निरंतर इस प्रकार के प्रयोग करने की आवश्यकता है।
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