इस बार लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के मुस्लिम उम्मीदवारों को अपने समुदाय के बीच अपेक्षित समर्थन नहीं मिल रहा। पार्टी ने 20 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव में उतारे हैं। बसपा ने उत्तर प्रदेश में पश्चिम से लेकर पूरब तक हर बार से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है। यहां तक कि योगी आदित्यनाथ की सीट रहे गोरखपुर में भी बसपा का मुस्लिम उम्मीदवार है। वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और लखनऊ में राजनाथ सिंह के खिलाफ भी बसपा का मुस्लिम उम्मीदवार है। दूसरा, जहां-जहां बसपा का उम्मीदवार कमजोर है, वहां-वहां गैर-जाटव दलित और अति पिछड़ी जातियों के मतदाता दूसरा विकल्प तलाश रहे हैं। ये दोनों ही बातें यही संकेत देती हैं कि मायावती और उनकी पार्टी का जनाधार सिकुड़ रहा है।
सहारनपुर, मेरठ, बिजनौर, नगीना, अमरोहा, मुरादाबाद और रामपुर आदि सीटें ऐसी हैं, जहां मुसलमान और बहुजन मतदाता यदि एक तरफ हो जाएं तो बिना किसी खास मशक्कत के बड़े अंतर से जीत हासिल कर सकते हैं। पीलीभीत, बुलंदशहर, गाजियाबाद, अलीगढ़ और गौतमबुद्ध नगर में मतदाताओं के यह दो बड़े समूह, जिस उम्मीदवार की तरफ हो जाएं, समीकरण उनके पक्ष में झुक जाते हैं। संभल, हाथरस, आगरा, फतेहपुर सीकरी, फिरोजाबाद, मैनपुरी, एटा, बदायूं, आंवला और बरेली, इन दस में से आठ सीटों पर 2019 में भाजपा ने जीत हासिल की थी, शेष 2 सीटों पर सपा जीती थी।
उत्तर प्रदेश को केंद्र की सत्ता की चाबी माना जाता है, इसलिए प्रदेश पर सब की निगाहें टिकी हैं। पिछली बार प्रदेश में भाजपा और उसके सहयोगियों को मिली 64 सीटों में से 13 सीटें ऐसी थीं, जो भाजपा ने 181 वोट (0.0 प्रतिशत, मछलीशहर) 4,729 वोट (0.4 प्रतिशत, मेरठ) और कई अन्य सीटें 15,000, 22,000 या 28,000 या 35,000 के अंतर से जीती थीं। इन सीटों पर तीसरा उम्मीदवार जीत के अंतर से बहुत ज्यादा वोट लिए हुए था। मतलब ये सीटें करीबी मुकाबले वाली हैं। इसलिए भाजपा की जीती 64 सीटों में से 13 पर कांटे का मुकाबला निश्चित है।
इन 13 सीटों के इलावा ऐसी 27-28 सीटें हैं, जिनमें कुल मिलाकर भाजपा ने कुछ हजार वोटों यानी 10 प्रतिशत वोट से कम अंतर से जीत दर्ज की थी। ये सीटें हैं- मुजफ्फरनगर (0.6%), कन्नौज (1.1%), चंदौली (1.3%), बलिया (1.6%), बदायूं (1.7%), बागपत (2.2%), रामपुर (2.5%), फिरोजाबाद (2.7%), बस्ती (2.9%), संत कबीरनगर (3.4%), भदोही (4.2%), कौशाम्बी (4.7%), सीतापुर (5%), रॉबर्ट्सगंज (5.5%, अपना दल), बांदा (5.7%), अमेठी (5.8%), इटावा (6%) फैजाबाद, (6%), मोहनलालगंज (7%), मुरादाबाद (7.8%), कैराना (8.2%), कैसरगंज (8.3%), मिसरिख (8.8%), कुशीनगर (9%), बाराबंकी (9.5%), नगीना (9.8%), खीरी (10.2%) और आंवला (10.8%) सीटों को भाजपा ने 2019 में कम अंतर से जीता था।
हालांकि अलीगढ़ से भी मायावती ने पहले मुसलमान प्रत्याशी को टिकट दिया था, इसी तरह बसपा ने बिजनौर से जाट, गाजियाबाद और गौतमबुद्ध नगर से राजपूत, मेरठ से त्यागी, अलीगढ़ से ब्राह्मण तथा बागपत से गुर्जर उम्मीदवार को टिकट दिया। अगर इन उम्मीदवारों के पक्ष में मुसलमान और गैर-जाटव दलित व अति पिछड़ी जातियों के मतदाता लामबंद हो जाते, तो शायद बसपा अपने खोए गौरव को वापस पाने में कामयाब हो जाती। लेकिन हालात बता रहे हैं कि पार्टी तमाम समीकरणों के अपने पक्ष में होने के बावजूद अल्पसंख्यकों का भरोसा नहीं जीत पाई।
टिप्पणियाँ