भारत की सनातन संस्कृति लोकमंगल की संस्कृति रही है। इस लोकमंगल के महानतम ध्वजावाहक हैं- महामुनि नारद। भारत के पुरा इतिहास का शायद ही कोई धर्मग्रन्थ हो, जिसमें उनकी उपस्थिति लोक कल्याण के पथ को गौरवान्वित न करती हो। नारद जी का विचार आते ही सदैव ‘नारायण’-‘नारायण’ का जप करने वाले ऐसे महामनीषी की छवि मन में उभर आती है जो लोकहित की दृष्टि से तीनों लोकों में सतत भ्रमण करते रहते हैं। ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ उनकी वाणी का मूल स्वर है। लोकमंगल का स्वर नारद मुनि को ईश्वर का सर्वाधिक प्रिय भक्त बनता है।
भारतीय जीवन मूल्यों के सच्चे लोक संचारक
भारत की ज्ञान परंपरा दुनिया के अन्य देशों से भिन्न है क्योंकि हमारे यहां केवल लौकिक ज्ञान को ही नहीं, अपितु आत्म-चिंतन द्वारा अंतस के जागरण को भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है और ज्ञानदान की इस परंपरा के सर्वाधिक सशक्त प्रकाश स्तम्भ हैं देवर्षि नारद। उन्हें भारतीय जनसंचार का पितामह कहा जाता है। अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद्गुणों का गान करते हुए तीनों लोकों में निरंतर विचरण करने वाले नारद मुनि सब जगह की पल- पल की खबर रखते थे। वे देव, दानव और मानव सबके विश्वासपात्र थे और सभी के मध्य सूचनाओं का आदान-प्रदान बिना किसी स्वार्थ के लोकहित को ध्यान में रखकर किया करते थे। ‘‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’’ उनका प्रमुख ध्येय है और लोकहित में सूचनाओं का संग्रह एवं आवश्यकतानुसार उनका संप्रेषण उनका मुख्य कार्य। पर वे मात्र सूचनाओं का प्रसारण ही नहीं करते बल्कि दुःखी एवं दरिद्र प्राणियों के दुःखों का निवारण भी करते हैं। प्रो. संजय द्विवेदी के अनुसार पत्रकारिता में नारदीय दृष्टि मीडिया से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक पथ प्रदर्शक का मार्ग प्रशस्त करती है। नारद जी सही मायनों में लोक संचारक थे जिनके प्रत्येक संवाद की परिणति लोक कल्याण पर आधारित थी। अव्यवस्था, गड़बड़ियों, खामियों को उजागर करने के साथ-साथ सूचना के माध्यम से समाज का प्रबोधन, जागरण करते हुए समाज को ठीक दिशा में ले जाना, समाज की विचार प्रक्रिया को सही दिशा देना मीडिया का मूल कर्तव्य होना चाहिए। पत्रकारिता की यह नारदीय दृष्टि ही मीडिया के स्वर्णिम भविष्य को तय कर सकती है। आज आवश्यकता इस बात की भी है कि तृतीय विश्व युद्ध के साये में जी रहें विश्व में कतिपय देशों के तानाशाहों द्वारा प्रदर्शित किए जाने वाले घातक हथियारों के प्रदर्शन पर रोक लगाने के लिए भी मीडिया को पूरे विश्व में दबाव का वातावरण बनाने के प्रयास करने चाहिए। साथ ही जलवायु एवं पर्यावरण, पारिस्थितिकी तन्त्र, भारतीय योग एवं आयुष पद्धतियों का विकास, देश-विदेश की ज्वलन्त समस्याओं, विभिन्न देशों, प्रदेशों, प्रतिष्ठानों एवं विभिन्न विचारधाराओं के बीच मतभेदों को दूर करने के लिए एक सेतु बनने के प्रयास करने चाहिए।
नारद जी की भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं बताया है। ‘श्रीमदभगवदगीता’ के दशम अध्याय के 26वें श्लोक में कहते हैं- देवर्षीणाम्चनारद ! अर्थात् देवर्षियों में मैं नारद हूं। योगेश्वर श्रीकृष्ण के श्रीमुख से निकले ये शब्द तीनों लोकों में महामुनि नारद की महत्ता स्थापित करते हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण में उन्हें भगवान का मन कहा गया है। महाभारत के सभापर्व के पांचवें अध्याय में नारद जी के व्यक्तित्व का परिचय देते हुए कहा गया है- ‘’वेद-उपनिषदों के मर्मज्ञ, इतिहास व पुराणों के विशेषज्ञ, शिक्षा, व्याकरण, आयुर्वेद, ज्योतिष, खगोल-भूगोल के विद्वान, संगीत के मर्मज्ञ, वाकपटु प्रभावशाली वक्ता, कुशल राजनीतिज्ञ और तीनों लोकों में मन की गति से निर्बाध विचरण की योग्यता रखने देवर्षि नारद सर्वत्र वन्दनीय हैं।‘’
नारद जी ब्रह्मा जी के सात मानस पुत्रों में से एक हैं। उनकी जयंती ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि को मनायी जाती है। वे घोर तपस्या कर देवर्षि (देवताओं के ऋषि) बने। अपने इष्ट भगवान विष्णु की कृपा से ये सभी युगों और तीनों लोकों में कहीं भी प्रकट हो सकते थे। माना जाता है कि लघिमा शक्ति के बल पर वे आकाश में गमन किया करते थे। लघिमा अर्थात लघु और लघु अर्थात हलकी रुई जैसे पदार्थ की धारणा से आकाश में गमन करना। धर्मरक्षा तथा लोक कल्याण के लिए सदा प्रयत्नशील रहने वाले देवर्षि नारद की उपलब्धियों की सूची बहुत लम्बी है। नारद जी ने ऐसे अनगिनत कार्य किये जिन्हें कर पाना दूसरों के लिये असंभव था। नारद जी ने ही भृगु कन्या देवी लक्ष्मी का विवाह श्रीहरि विष्णु के साथ करवाया, देवाधिदेव महादेव द्वारा जलंधर का विनाश करवाया, कंस तथा रावण को आकाशवाणी द्वारा उनके अंत की चेतावनी दी। इन्द्र, चन्द्र, हनुमान व युधिष्ठिर आदि को उपदेश देकर कर्तव्यपथ पर अग्रसर किया। यही नहीं, महामुनि नारद ने ही महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित वेदों का संपादन करके यह सुनिश्चित किया था कि कौन-सा मंत्र किस वेद में जाएगा, अर्थात् ऋग्वेद में कौन-से मंत्र जायेंगे तथा यजुर्वेद व अथर्ववेद में कौन-से मंत्र जायेंगे। कहते हैं कि भगवान सत्यनारायण की कथा का शुभारम्भ भी नारद जी की प्रेरणा से ही हुआ था।
ज्ञात हो कि महामुनि नारद अद्वितीय लेखकीय क्षमता के भी धनी थे। ‘नारद पांचरात्र’, ‘नारद के भक्तिसूत्र’, ‘बृहन्नारदीय उपपुराण संहिता’, ‘नारद-परिव्राजकोपनिषद’ के अलावा 18 महापुराणों में शुमार 25 हजार श्लोकों वाले प्रसिद्ध ‘नारद महापुराण’ की रचना का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। इस ग्रन्थ में भगवान विष्णु की भक्ति की महिमा, मोक्ष, धर्म, संगीत, ब्रह्मज्ञान, प्रायश्चित आदि अनेक विषयों के बारे में विस्तार से बताया गया है। इन श्लोकों में से 750 श्लोक ‘ज्योतिष शास्त्र’ पर आधारित हैं। हालांकि वर्तमान में उपलब्ध नारद पुराण में केवल 22 हजार श्लोक ही मिलते हैं। जानकारों का कहना है कि बाकी के तीन हजार श्लोक प्राचीन पाण्डुलिपि के नष्ट हो जाने के कारण उपलब्थ नहीं हैं।
गर्व का विषय है कि भारत के पुरा इतिहास के इस सर्वाधिक लोकप्रिय चरित्र से जुड़ी अनेक पौराणिक स्थल आज भी उनकी स्मृतियों को जीवंत बनाये हुए हैं। बद्रीनाथ धाम के पास स्थित नारद कुण्ड की महत्ता से अधिकांश सनातनधर्मी परिचित हैं। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि बद्रीनाथ यात्रा के दौरान इस नारद कुण्ड में स्नान करने से महान पुण्य की प्राप्ति होती है। कहा जाता है कि 8वीं शताब्दी के आस-पास आदि शंकराचार्य ने इसी नारद कुण्ड से भगवान विष्णु की एक मीटर ऊंची मूर्ति को निकालकर उसे बद्रीनाथ मंदिर में स्थापित किया था। कहते हैं कि उस प्रतिमा का एक पैर खंडित होने के कारण जगद्गुरु शंकराचार्य को स्थानीय पंडितों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा था किन्तु उन्होंने अपने अकाट्य तर्कों से समूचे विरोधी पुरोहित वर्ग को निरुत्तर कर दिया था। इसी तरह उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले का ‘बनास’ गांव भी उनकी स्मृतियों को जीवंत बनाये हुए है। बताते चलें कि इस गांव से यमुना नदी की एक सहायक नदी नारद गंगा निकलती है। इस नारद गंगा से गर्म जल के कुण्ड के अतिरिक्त एक गर्म पानी का झरना भी गिरता है। इसी क्रम में युमनोत्री धाम यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ाव ‘नारद चट्टी’ के पास नारद गंगा की जलधार यमुना नदी से मिलती है। पौराणिक कथानक कहता है कि चार धाम यात्रा के दौरान नारद मुनि ने इसी ‘नारद चट्टी’ पर तप किया था। उनके तप के बल से ही यहां दो जलधारा निकली थीं जिसमें एक गर्म थी और दूसरी ठंडी। तभी से इन जलधाराओं का नाम नारद गंगा पड़ गया। स्थानीय जानकारों के अनुसार इसी स्थान पर बालक ध्रुव को भगवान विष्णु के दर्शन हुए थे। इसीलिए आज भी बनास गांव में प्रति वर्ष नारद जयंती उत्सव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
जानना दिलचस्प हो कि उत्तराखंड की ही तरह ब्रजभूमि के चौरासी कोस परिक्रमा मार्ग पर भी ‘नारद कुण्ड’ नाम का एक प्रमुख धार्मिक स्थल है। कहा जाता है कि गोवर्धन से राधा कुण्ड मार्ग पर करीब दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस नारद कुण्ड पर नारद मुनि ने देवर्षि की उपाधि पाने से कई वर्षों तक कठोर तपस्या की थी। हालांकि कई शास्त्रों में इस जगह का नाम ‘नारद वन’ दिया गया है लेकिन वर्तमान में इसे ‘नारद कुण्ड’ के नाम से ही जाना जाता है। भविष्य पुराण के अनुसार इसी स्थान पर नारद जी ने दैत्यराज हिरण्यकश्यप की भक्तिमती पत्नी कयाधु को भक्ति-ज्ञान का उपदेश दिया था जिसके फलस्वरूप विष्णु भक्त प्रहलाद का जन्म हुआ था।
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