लोकसभा चुनावों के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत असम की डिब्रूगढ़ जेल में बन्द खालिस्तानी अलगाववादी अमृतपाल के खडूर साहिब से नामांकन पत्र दाखिल करने की देशभर में चर्चा है। अमृतपाल दिल्ली की सीमा पर चले किसान आंदोलन के एक नेता दीप सिद्धू के अलगाववादी संगठन ‘वारिस पंजाब दे’ का सर्वेसर्वा है और यह पद उसने सिद्धू की सड़क दुर्घटना में हुई मौत के बाद प्राप्त किया। अमृतपाल ने कई महीनों तक इस संगठन के मंच से सिख युवाओं के मनों में खालिस्तानी व अलगाववादी जहर भरा लेकिन अजनाला में थाने पर हमले के आरोप में उसे साथियों सहित गिरफ्तार कर डिब्रूगढ़ जेल भेज दिया गया। केवल अमृतपाल ही नहीं अमृतसर में शिवसेना के नेता सुधीर सूरी की हत्या करने वाला संदीप सिंह, दिवंगत प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के हत्यारे बेअंत सिंह का बेटा सरबजीत सिंह खालसा भी इस चुनाव में ताल ठोक चुके हैं।
इसी वर्ग में शामिल अपने भड़काऊ भाषणों के चलते चर्चा में रहने वाले अकाली दल (अमृतसर) के अध्यक्ष सिमरनजीत सिंह मान खुद संगरूर की सीट से चुनाव लड़ रहे हैं और वे वहां से वर्तमान सांसद भी हैं। उनके दल के अन्य उम्मीदवार खुशहाल सिंह मान, बलदेव सिंह, अमृतपाल सिंह चंद्रा, मनिन्द्रपाल सिंह क्रमश: आनन्दपुर साहिब, फरीदकोट, लुधियाना व पटियाला से चुनाव मैदान में हैं। पूर्व आईपीएस अधिकारी सिमरनजीत मान खालिस्तान के पक्ष में केवल अपने देश में ही नहीं बल्कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भारत के खिलाफ विषवमन करते रहे हैं। आखिर इतने सारे खालिस्तानी अलगाववादियों का चुनाव लड़ना किस बात का संकेत है? क्या यह खालिस्तानी आतंक की वैचारिक पराजय है या अलगाववादियों की नई कोई रणनीति। इसीलिए जहां इसका स्वागत किया जाना बनता है वहीं सावधान रहने की भी अत्यन्त आवश्यकता है।
असल में खालिस्तान एक विकृत सोच है जिसका जन्म विदेशी पोषण और सिख पंथ की मनमाफिक व्याख्या के अवैध सम्बन्धों से हुआ। इस सोच से न केवल पंजाब में हजारों की संख्या में निर्दोषों को जान गंवानी पड़ी बल्कि देश-विदेश में सिखों की छवि को आघात भी पहुंचा। किसी समय विकास की दौड़ में देश में सबसे आगे दौड़ता दिख रहा पंजाब दो दशकों चले आतंकवाद के दौर में हांफने लगा। खालिस्तान पंजाब के सीने पर ऐसे जख्म का नाम बन चुका है जो रह-रह कर रिसना शुरू कर देता है।
चाहे पंजाब के अलगाववादी चुनाव तो लड़ रहे हैं लेकिन अभी तक ये तत्व भारतीय संविधान व यहां के दस्तावेजों को नकारते रहे हैं। अमृतपाल तो यहां तक कहता रहा है कि उसके लिए भारतीय पासपोर्ट तो केवल हवाई यात्रा का दस्तावेज मात्र है। देश की एकता-अखण्डता व सम्प्रभुता को चुनौती देने वाले खालिस्तानी अगर भारतीय संविधान की मर्यादा के अन्तर्गत चुनाव लड़ते हैं तो इस परिवर्तन का स्वागत होना चाहिए। भारतीय संविधान की परिधि में रह कर अलगाववादी तत्व संसद में कुछ भी मांग उठाते हैं तो इसका स्वागत होना चाहिए। स्वागत इसलिए क्योंकि यह भारतीय सार्वभौमिकता और लोकतंत्र की जीत और खालिस्तानी अलगाववाद की सैद्धान्तिक पराजय होगी।
ऐसा नहीं कि देश में किसी अलगाववादी संगठन या व्यक्ति ने पहली बार चुनाव लड़ा हो या इस तरह के संगठनों से सरकारों ने समझौते न किए हों। वर्तमान सरकार के कार्यकाल में ही असम में सक्रिय आतंकी संगठन यूनाइटेड लिब्रेशन फ्रण्ट आफ असम (उल्फा), नागालैण्ड में सक्रिय रहे अलगाववादी संगठन नार्थ ईस्ट सोस्लिट आफ नागालैण्ड (एनएससीएन), पिपुल्स डेमोक्रेटिक साउंसिल आफ कार्बी, कार्बी, लॉंगरी नोर्थ ईस्ट हिल्स लिब्रेशन फ्रण्ट, कार्बी पिपुल्स लिब्रेशन फ्रण्ट, कुकी लिब्रेशन फ्रण्ट, यूनाइटिड पुपिल्स लिब्रेशन फ्रण्ट सहित अनेक आतंकी व अलगाववादी संगठन विभिन्न समझौतों के तहत देश की मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं। पूर्वोत्तर ही क्यों खुद पंजाब व जम्मू-कश्मीर में बहुत से पूर्व आतंकियों का भी प्रत्यक्ष व गुप्त रूप से पुनर्वास किया जा चुका है। अगर अलगाव व आतंक का मार्ग छोड़ कर कोई भटका हुआ नागरिक देश की मुख्यधारा में शामिल होना चाहे तो उसका स्वागत होना चाहिए। इस मार्ग पर चलने वालों को यह भान भी होना चाहिए कि आतंकवाद का मार्ग किसी समस्या का समाधान नहीं, यह देश विभिन्न विचारधाराओं, विविध आस्थाओं का पुष्पगुच्छ है, हां पर किसी को हिंसा व देश को तोडऩे का अधिकार नहीं दिया जा सकता। देश को तोडऩे की बात करने वालों को पहले भारत से टूट कर अलग हुए पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान, म्यांमार की हालत देखनी चाहिए कि वहां के लोग किस तरह नारकीय जीवन व्यतीत करने को विवश हैं।
इस मामले में सतर्क रहने की भी आवश्यकता है, क्योंकि कहीं चुनावों के माध्यम से अलगाववादी व आतंकी शक्तियां एकजुट होने का प्रयास करती हैं तो इसे सफल नहीं होने देना चाहिए। सांसद सिमरनजीत मान इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं, वो संसद में संविधान की शपथ भी लेते हैं और देश को तोडऩे का भी सपना देखते हैं। हाल ही में उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि वे खालिस्तानी तत्वों को विदेश में शरण दिलवाने का काम करते हैं। वे अब तक पचास हजार खालिस्तानी तत्वों को विदेश में राजनीतिक शरण दिलवा चुके हैं और हर केस के पैंतीस हजार रूपये की फीस लेते हैं। सांसद बनने के बाद अगर खालिस्तानी अपने पद का दुरुपयोग करते हैं और विदेशों में भारत को बदनाम करते हैं तो इसको भी रोका जाना चाहिए। ज्ञात रहे कि जब कोई भारतीय सांसद अपने लैटरहैड पर किसी खालिस्तानी तत्व को पीडि़त बताता है और भारत से उसकी जान का खतरा बताता है तो इससे इस की पुष्टि हो जाती है कि भारत में यह लोग सुरक्षित नहीं। पंजाब में लोग येन,केन प्रकारेण विदेश जाने को ललायित रहते हैं और वे इस तरह के झूठे लैटरहैडों से भी परहेज नहीं करते। ऐसा करते हुए शार्टकट से विदेश जाने के चाहवान भूल जाते हैं कि उनके इस कदम से देश की कितनी बदनामी होती है। देशविरोधी शक्तियों के कुप्रचार को कितना प्रोत्साहन मिलता है? इसलिए पंजाब के अलगाववादियों के चुनाव लड़ने के मामले को पूरी सतर्कता से लेने की जरूरत है।
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