स्वामी विवेकानंद के विदेश प्रवास के दौरान एक बार एक विदेशी पत्रकार ने स्वामी जी से भारत की नदियों के बारे में बात करते हुए प्रश्न किया था- आपके देश में किस नदी का पानी सबसे अच्छा है? स्वामी जी ने उत्तर दिया- यमुना। इस पर वह पत्रकार स्वामी जी को विस्मय से देखते हुए बोला- पर आपके देश के लोग तो गंगा नदी के पानी को सबसे अच्छा बताते हैं! इस पर स्वामी जी ने मुस्कुराते हुए कहा,‘‘कौन कहता है गंगा नदी हैं ? गंगा तो हम भारतीयों की माँ हैं जो जीवनदायिनी की तरह भारतभूमि के सभी जड़ चेतन प्राणियों का भरण पोषण करती हैं।” निःसंदेह मां गंगा हिंदू सभ्यता और संस्कृति की सबसे अनमोल धरोहर हैं।
शास्त्रीय उद्धरण के अनुसार मां गंगा की उत्पत्ति बैशाख शुक्ल सप्तमी के दिन हुई थी। विष्णु महापुराण की कथा कहती है कि सतयुग में भगवान विष्णु द्वारा वामन रूप में राक्षसराज बलि से तीनों लोकों को मुक्त कराने की खुशी में ब्रह्मदेव ने भगवान विष्णु के चरण धोये थे और उस जल को अपने कमंडल में भर लिया था और श्रीहरि का वह चरणोदक पवित्र गंगाजल में रूपांतरित हो गया। कालांतर में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के पूर्वज राजा भगीरथ के महापुरुषार्थ से इस दिव्य सुरसरि का महाप्रसाद पृथ्वीलोक को प्राप्त हुआ।
इसी दिव्य गंगा के जागृत तटों पर ऋषियों ने गहन तप साधना की। वेद-पुराण, श्रुति, उपनिषद, ब्राह्मण व आरण्यक जैसे ज्ञान के अनमोल खजाने मां गंगा की दिव्य गोद में ही सृजित हुए थे। पावन गंगा के तटों पर आश्रम विकसित कर हमारे तत्वदर्शी ऋषियों ने पर्यावरण संतुलन के सूत्रों के द्वारा नदियों, पहाड़ों, जंगलों व पशु-पक्षियों सहित समूचे जीवजगत के साथ सहअस्तित्व की अद्भुत अवधारणा विकसित की थी। सनातनधर्मियों की प्रगाढ़ मान्यता है कि कलिमलहारिणी गंगा मैया के निर्मल जल में स्नान से सारे पाप सहज ही धुल जाते हैं और यदि जीवन के अंतिम क्षण में मुंह में दो बूंद गंगाजल डाल दिया जाए तो बैकुंठ मिल जाता है। इसीलिए हमारे मनीषियों ने गंगा को भारत की सुषुम्ना नाड़ी की संज्ञा दी है। मध्य युग में काशी में दश्वाश्वमेध घाट पर ‘गंगा लहरी’ की रचना करने वाले पंडित जगन्नाथ मिश्र गंगा मैया का महिमागान करते हुए कहते हैं कि देव नदी गंगा अपनी तीन मूल धाराओं भागीरथी, मन्दाकिनी और भोगावती के रूप में क्रमशः धरती (मृत्युलोक), आकाश (देवलोक) व रसातल (पाताल लोक) को अभिसिंचित करती हैं। तीनों लोकों में प्रवाहित होने के कारण इन्हें त्रिपथगा या त्रिपथगामिनी कहा जाता है।
गंगाजल और विदेशी शोध
ज्ञात हो कि दो हजार साल पहले सम्राट चन्द्गुप्त मौर्य के शासनकाल में भारत आये यूनानी राजदूत मेगस्थनीज के यात्रा वृत्रांत ‘‘इंडिका’’ में भारतवासियों के मन में गंगा के प्रति गहन श्रद्धा का विस्तृत वर्णन मिलता है। यह विदेशी विद्वान लिखता है कि सत्यता व शुद्धता का प्रमाण देने के लिए भारतवासी गंगा की सौगंध लिया करते थे। जानना दिलचस्प हो कि जापान के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. मसारू इमोटो गंगाजल की अलौकिक गुणों से इस कदर प्रभावित हुए थे कि उन्होंने रामायण में उल्लेखित श्राप की घटनाओं को अपने शोध का विषय बना लिया था। डॉ. इमोटो के शोध का विषय था – ‘‘पानी के सोचने समझने की क्षमता’’। नदी विशेषज्ञ डॉ. अभय मिश्र के मुताबिक डॉ. मसारू गंगाजल की उस क्षमता को जानना चाहते थे जिसे हमारे ऋषि मुनि हथेली में लेकर संकल्प लेते थे या श्राप दे दिया करते थे।
इंसानी लालच और गहराते प्रदूषण से छीज गयी जीवनी शक्ति
अठारहवीं सदी के उतरार्द्ध में विकसित हुए पाश्चात्य सभ्यता के ‘जड़ के साथ जड़ जैसे व्यवहार’ के अमानवीय जीवन दर्शन ने प्रकृति व पर्यावरण को आज इस कदर क्षतिग्रस्त कर दिया है कि मानवी अस्तित्व पर ही खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। दुनिया की सर्वाधिक पावन पवित्र नदी गंगा भी इस दुष्प्रभाव से अछूती नहीं रही। आजादी के बाद देश में हुए अनियोजित व एकांगी विकास और मानकविहीन औद्योगिकीकरण तथा मानव की गहराती लालची वृत्ति के कारण देश के तरकरीबन 40 करोड़ लोगों का भरण पोषण करने वाली गंगा मैया देखते-देखते विगत तीन-चार दशकों में दुनिया की सबसे प्रदूषित नदियों में से एक बन गयी। अविरल प्रवाह बाधित किये जाने के कारण ही नहीं अपितु गंगा तटों पर बने कल कारखानों से छोड़े जाने वाले बेहिसाब जहरीले रासायनिक कचरे व मल-मूत्र को अपने उदर में समाहित करते करते जलामृत देने वाली देव सरिता ‘सुपरबग’ तक पैदा करने लगी। ‘सुपरबग’ यानी ऐसा जीवाणु जिस पर एंटीबायोटिक्स का कोई असर नहीं होता। ऐसा तब है जब प्रयोगशालाओं में साबित हो चुका है कि गंगाजल में पाया जाने वाला ‘बैक्टीरियोफेज’ नामक जीवाणु इसे सड़ने नहीं देता। है न कितना विरोधाभासी तथ्य! फिर भी उदास, निराश माँ गंगा हम पापियों का सतत उद्धार करती आ रही है।
पांच सालों में गंगा सफाई की दिशा में उल्लेखनीय काम
केन्द्रीय जल शक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत का कहना है कि बीते पांच सालों में गंगा सफाई की दिशा में उल्लेखनीय काम हुआ है। भारत सरकार की नमामि गंगे परियोजना की विफलता के विपक्ष के आरोपों को नकारते हुए वे कहते हैं कि 1984 से शुरू हुई गंगा स्वच्छता के शुरुआती कदमों से लेकर 2014 तक करीब 30 वर्षों में चार हजार करोड़ रुपये खर्च से गंगा की जितनी जलमल शोधन क्षमता विकसित हुई, उससे काफी अधिक नमामि गंगे परियोजना के तहत 2014 से 2022 तक आठ वर्ष के दौरान विकसित की गयी। वर्ष 2014 से 2022 के मध्य जितनी जलमल शोधन क्षमता सृजित हुई, उतनी क्षमता केवल एक साल में 2022-23 के दौरान विकसित हुई है। राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार 31 मार्च 2023 तक नमामि गंगे कार्यक्रम के तहत कुल मंजूर परियोजनाओं में से अब तक 58 प्रतिशत पूरी हो चुकी हैं। गंगा किनारे के गाँवों को शौच मुक्त किया जा चुका है। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान राज्यों में 54 सीवेज प्रबंधन परियोजनाएं कार्यान्वित की जा रही हैं। उत्तर के 14 जिलों में नये सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट शुरू होने जा रहे हैं। साथ ही यूपी के अलग अलग क्षेत्रों में निर्माणाधीन 62 एसटीपी भी जल्द ही तैयार होकर गंगा के साथ ही अन्य नदियों की स्वच्छता अभियान से जुड़ जाएंगे। इन नए ट्रीटमेंट प्लांट के शुरू होने से राज्य में एसटीपी से लैस जिलों की संख्या कुल यूपी में 41 हो जाएगी।
फिलहाल उत्तर प्रदेश में कुल 104 एसटीपी संचालित हो रहे हैं जिनकी कुल क्षमता 3298.84 एमएलडी है। इसी क्रम में 265 गंगा घाटों/ श्मशान घाटों और कुंडों/तालाबों के निर्माण, आधुनिकीकरण और जीर्णोद्धार के लिए 67 घाट/श्मशान घाट परियोजनाएं शुरू की गयी हैं। इसके साथ ही विभिन्न मंत्रालयों के सहयोग से गंगा संरक्षण की दीर्घकालिक योजनाओं पर काम किया जा रहा है। पर्यटन मंत्रालय गंगा के किनारे वाले क्षेत्रों में पर्यटन सर्किट के विकास के लिये बड़ी योजना पर काम कर रहा है, तो वहीं कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय गंगा के तटवर्ती इलाकों में ऑर्गेनिक फार्मिंग और नेचुरल फार्मिंग कॉरिडोर के निर्माण के साथ पर्यावरण हितैषी कृषि को बढ़ावा दे रहा है। आवासन एवं शहरी मामले मंत्रालय स्वच्छ भारत मिशन 2.0 और अमृत 2.0 (कायाकल्प और शहरी परिवर्तन के लिये अटल मिशन) के अंतर्गत शहरी नालों की मैपिंग तथा गंगा शहरों में ठोस और तरल कचरे के प्रबंधन पर विशेष ध्यान दे रहा है और पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय गंगा बेल्ट में वनीकरण गतिविधियों और ‘प्रोजेक्ट डॉल्फिन’ को बढ़ावा देने की एक व्यापक योजना पर काम कर रहा है।
करीब 30 हजार हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र में गंगा किनारे वनीकरण कर इसके जरिए गंगा के किनारे मिट्टी के कटान को रोका जा रहा है। इसी तरह गंगा किनारे मलबा डाले जाने या गांवों का गंदा पानी नदी में गिराने से प्रदूषण के बढ़ते स्तर को संज्ञान में लेते हुए चार हजार गांवों से निकलने वाले लगभग चौबीस सौ नालों को चिन्हित कर उनकी ‘जियो टैगिंग’ कर इनसे ठोस कचरा प्रवाहित होने से रोकने के लिए एक ‘एरेस्टर स्क्रीन’ की योजना लगाने की योजना भी बनायी है। नमामि गंगे परियोजना के तहत तमाम गंगा प्रहरी भी काम कर रहे हैं, जो गंगा की सफाई के साथ लोगों की जागरूकता में भी अहम योगदान दे रहे हैं। अच्छी खबर यह है कि अब वैज्ञानिकों को कई जगहों पर जलीय जीवों के प्रजनन के सबूत मिले हैं। वैज्ञानिक कहते हैं कि गंगा में जलीय जीवों की स्थिति बेहतर हुई है और यह गंगा के पानी के स्वच्छ होने को बयां करता है; लेकिन जरूरत है कि लगातार गंगा की स्वच्छता को लेकर ऐसे ही कार्यों को आगे बढ़ाया जाए ताकि गंगा में जलीय जीवों के लिए और बेहतर स्थिति पैदा की जा सके।
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