भारत की स्वतंत्रता के लिए हजारों लोगों ने अपने जीवन का बलिदान दिया। अमर बलिदानी सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु का नाम साथ लिया जाता है। सुखदेव का पूरा नाम सुखदेव थापर था। उनका जन्म 15 मई 1907 को पंजाब के लुधियाना शहर में हुआ था। पिताजी का नाम रामलाल और माताजी का नाम श्रीमती लल्ली देवी था। पिता के देहांत के बाद इनका पालन-पोषण माँ और ताऊ अचिन्तराम ने किया था। सुखदेव की तायी जी भी इन्हें अपने पुत्र की तरह प्यार करती थीं। इनके ताऊ आर्य समाज से काफी प्रभावित थे, जिसके कारण सुखदेव भी समाज सेवा व देशभक्तिपूर्ण कार्यों में आगे बढ़ने लगे। बचपन से ही सुखदेव ने ब्रिटिश राज के अत्याचारों को देखा, जिसके कारण अपने देश में स्वतन्त्रता की आवश्यकता बहुत पहले ही समझ आ गई थी ।
वर्ष 1919 में, जब सुखदेव महज 12 वर्ष के थे तो अमृतसर के जलियाँवाला बाग में भीषण नरसंहार हुआ। इससे देश में भय तथा आतंक का वातावरण बन गया था, पंजाब के प्रमुख नगरों में मार्शल लॉ लगा दिया गया था। स्कूली बालक सुखदेव के मन पर इस घटना का बहुत गहरा असर हुआ। स्कूल की पढाई समाप्त करने के बाद इन्होंने 1922 में लाहौर के नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया। वहां भगत सिंह से इनकी मुलाकात हुई। दोनों एक ही राह के पथिक थे, अत: शीघ्र ही दोनों के बीच गहरी दोस्ती हो गई। सितंबर 1928 में, दिल्ली स्थित फिरोजशाह कोटला के खंडहर में उत्तर भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई। इसमें एक केंद्रीय समिति का निर्माण हुआ और समिति का नाम “हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी” रखा गया। सुखदेव को पंजाब की समिति का उत्तरदायित्व दिया गया।
1927 में ब्रिटिश सरकार ने एक कमीशन का गठन किया, जिसका काम भारत में आकर यहाँ की राजनीतिक परिस्थितयों का विश्लेषण करना था। इसका नेतृत्व साइमन कर रहे थे, इसलिए इसे “साइमन कमीशन” के नाम से जाना जाता हैं। क्रांतिकारी गरम दल के नेता लाला लाजपत राय साइमन कमीशन के विरोध में एक रैली में अंग्रेजी जेम्स स्कॉट द्वारा किए गए लाठी चार्ज के कारण गंभीर रूप से घायल हो गए। 17 नवम्बर 1928 को देश ने एक महान स्वतन्त्रता सेनानी खो दिया। इस पूरी गतिविधि पर सुखदेव और उनके साथी नजर रखे हुए थे। लालाजी की देहांत ने उन लोगों को बहुत आक्रोशित कर दिया। स्कॉट से बदला लेने के लिए सुखदेव ने भगत सिंह और राजगुरु के साथ मिलकर एक योजना बनाई।
18 दिसम्बर 1928 को भगत सिंह और शिवराम राजगुरु ने स्कॉट की गोली मारकर हत्या करने का प्लान बनाया था, लेकिन ये प्लान उस तरीके से सफल नहीं हो सका जैसा सोचा गया था और गोली गलतफहमी में जे.पी. सांडर्स को लग गयी। इसमें भगत सिंह का सहयोग सुखदेव और चन्द्रशेखर आज़ाद ने किया था। इस कारण इस घटना के बाद ब्रिटिश पुलिस सुखदेव, आज़ाद, भगतसिंह और राजगुरु के पीछे लग गयी। पुलिस से बचकर भागने के लिए भगवती चरण वोहरा ने अपनी पत्नी (जिनका नाम दुर्गा था और जो क्रान्तिकारियों में दुर्गा भाभी नाम से विख्यात थीं) और अपने बच्चे की जान जोखिम में डालकर इनकी मदद की और भगत सिंह वहां से बच निकले।
सुखदेव थापर ने मात्र 24 वर्ष की आयु में अपने प्राणों की आहुति देकर देशवासियों को जो मातृभूमि पर बलिदान होने का संदेश दिया उसके लिए सदियों तक देश उनका आभारी रहेगा।
8 अप्रैल 1929 की दोपहर भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश सरकार के बहरे कानों में आवाज पहुंचाने के लिए दिल्ली में केंद्रीय सभा में बम फेंककर धमाका किया। इन्कलाब जिंदाबाद के नारे लगाये। हालांकि बम से किसी को चोट नहीं आई थी, इसका पुष्टिकरण खुद ब्रिटिश सरकार ने भी किया था। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने इसके बाद पुलिस के समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया। 15 अप्रैल 1929 को सुखदेव, किशोरी लाल तथा अन्य क्रांतिकारियों को पकड़ा गया।
इन क्रांतिकारियों के खिलाफ सेक्शन 307 इंडियन पैनल कोड और कोर्ट ऑफ़ एडीएम दिल्ली के अंदर विस्फोटक गतिविधियों के लिए सेक्शन 3 के अंतर्गत 7 मई 1929 को चालान पेश किया गया। 12 जून 1929 को कोर्ट ने भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को जीवन भर कारावास की सजा दी। उसी समय इन पर लाहौर का भी केस चल रहा था, इसलिए इन्हें लाहौर भेजा गया। 10 जुलाई 1929 को लाहौर की जेल में सुनवाई शुरू हुयी। 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 24 मार्च 1931 को फांसी देने का निर्णय सुनाया गया।
देश के सभी बड़े क्रांतिकारी तब भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु की फांसी का विरोध कर रहे थे, जिनमे वीर विनायक दामोदर सावरकर भी शामिल थे। लेकिन गांधीजी इस पूरे मामले पर खामोश थे, और तब भी वे देश की जनता और क्रांतिकारियों से शांति की अपील कर रहे थे। सुखदेव ने जेल से ही गांधीजी को एक पत्र भी लिखा जोकि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के बलिदान के बाद 23 अप्रैल 1931 को “यंग इंडिया” समाचार पत्र में छपा था। इस पत्र में सुखदेव ने साफ़ शब्दों में अपने विचार व्यक्त किये थे, और गांधीजी को इस बात से अवगत कराया था कि उनका उद्देश्य केवल बड़ी-बड़ी बातें करना ही नहीं है बल्कि सच ये है कि देशहित के लिए क्रांतिकारी किसी भी हद तक जा सकते हैं।
17 मार्च 1931 को पंजाब के होम सेक्रेटरी ने इनकी फांसी की सजा 23 मार्च 1931 कर दी क्योंकि ब्रिटिश सरकार को डर था कि यदि फांसी समय पर हुई तो एक और बड़ी क्रांति हो जायेगी, जिससे निपटना अंग्रेजों के लिए मुश्किल होगा। इस कारण सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को निर्धारित समय से एक दिन पूर्व ही चुपचाप फांसी दे दी गई और पार्थिव शरीर को जेल के पीछे केरोसिन डालकर सतलुज नदी के तट पर जला दिया गया।
इस तरह सुखदेव थापर ने मात्र 24 वर्ष की आयु में अपने प्राणों की आहुति देकर देशवासियों को जो मातृभूमि पर बलिदान होने का संदेश दिया उसके लिए सदियों तक देश उनका आभारी रहेगा।
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