प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी-पीएम) की धार्मिक आधार पर वैश्विक जनसंख्या की स्टडी क्या आई, भारत के प्रबुद्ध वर्ग में चिंता की लकीरें खिंच गई हैं । क्या यह चिंता बेकार है, जो लोग इस आंकड़े की गंभीरता समझकर भविष्य में भारत के भारत रहने पर भी संदेह व्यक्त कर रहे हैं ? क्या ये यूं हीं हैं ? मजहब के आधार पर जिस कौम ने भारत विभाजन कराया, उस इस्लाम को माननेवाले मुसलमानों की वर्तमान भारत में 65 सालों के दौरान आबादी में 43.15 प्रतिशत की बढ़ोतरी को हल्के में लिया जाना चाहिए? या फिर यह जनसंख्या का विस्तार एक सामान्य बात है? आज इस प्रकार के अनेक प्रश्न हैं जिनके उत्तर खोजने एवं स्वाधीनता (1947) के बाद से बीते 78 सालों की समीक्षा वं भविष्य का चिंतन करते वक्त वर्तमान भारत की बहुसंख्यक हिन्दू आबादी अपने को परेशान महसूस कर रही है!
गहराई में जाकर देखा जाए तो यह परेशानी यूं ही नहीं है। भारत के सामने आज विश्व के कई देशों के उदाहरण मौजूद हैं, जहां इस्लाम को माननेवालों की जनसंख्या जैसे ही 20 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, वह अराजकता की ओर बढ़ने लगती है। इसके बाद एक स्थिति ऐसी आती है कि वह पूरा मुल्क ही इस्लामिक हो जाता है। इस संदर्भ में अब तक हुए सभी अध्ययन यही बताते हैं कि दो-चार देशों को छोड़कर कम संख्या होने पर भी इस्लाम को माननेवाले किसी भी देश में शांति से रहने में भरोसा नहीं करते हैं।
बर्कले फोरम पर प्रो. जॉक्लिने सेसरी का इस्लाम और इस्लामफोबिया पर एक अनुसंधानपरक शोधलेख पढ़ने को मिला, ‘‘पश्चिमी यूरोप में शरणार्थी और इस्लामोफोबिया: प्रतिगामी प्रभाव’’में वे लिखती हैं कि मुस्लिम देशों से शरणार्थी अक्सर बहुत ही धर्मनिरपेक्ष स्थानों में पहुंचते हैं जहां नागरिक अपने दैनिक सामाजिक संपर्क या नागरिक कार्यों को समझने के लिए शायद ही कभी किसी धर्म की पहचान करते हैं। यह इस तथ्य के बिल्कुल विपरीत है कि ये शरणार्थी उन देशों (जैसे सीरिया और सोमालिया) से आते हैं जहां इस्लाम सामाजिक और राष्ट्रीय पहचान का प्रतीक है।(यानी कि इन दशों के अलावा भी कई देशों से आते हैं)….मुस्लिम देशों से विस्थापितों की आमद तनाव को बढ़ा देती है। इस संबंध में, इस बात पर ज़ोर देना ज़रूरी है कि यूरोप भर के सभी मुसलमान, शरणार्थियों से लेकर नागरिकों तक, किसी भी अन्य धार्मिक समूहों की तुलना में सबसे अधिक धार्मिक रूप से मुखर हैं, जो इस प्रमुख समझ को बढ़ावा देता है कि “इस्लाम समस्याग्रस्त है।” परिणामस्वरूप, इस्लाम को सांस्कृतिक और राजनीतिक एकीकरण में बाधा के रूप में देखा जाता है।
युरोप में मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियां भी मानती हैं इस्लाम को अपने लिए खतरा
फिर आगे लिखा, अल-कायदा से लेकर आईएसआईएस तक कट्टरपंथी इस्लामी समूहों के अंतरराष्ट्रीय आयाम ने यूरोपीय नागरिकों की असुरक्षा को बढ़ा दिया है जो इस्लाम को एक खतरे के रूप में देखते हैं। न केवल चरम दक्षिणपंथी पार्टियाँ, बल्कि मुख्यधारा की पार्टियाँ भी अब मुस्लिम शरणार्थियों को आतंकवादी जोखिम के रूप में मानती हैं। …क्योंकि इस्लाम अपराध, आतंकवाद, महिलाओं के उत्पीड़न, सम्मान हत्या, पिछड़ेपन और असहिष्णुता से जुड़ा हुआ है। “इस्लामिक आतंक,” “मुस्लिम चरमपंथी,” या “इस्लामवाद का कैंसर/नासूर” जैसे शब्द यूरोपीय समाचार पत्रों में नियमित रूप से दिखाई देते हैं।… यूरोप में “यौन जिहाद” का डर बढ़ रहा है, जिसमें आप्रवासियों और शरणार्थियों से यौन हिंसा का डर इन आप्रवासियों द्वारा सफेद यूरोपीय महिलाओं को यौन और सांस्कृतिक रूप से “कलंकित” करने के डर के साथ जुड़ा हुआ है। जर्मनी के धुर दक्षिणपंथी आंदोलन पैट्रियटिक यूरोपियंस अगेंस्ट द इस्लामिकाइजेशन ऑफ द ऑक्सिडेंट (पेगिडा) ने यूरोप में आप्रवासियों (विशेषकर मुस्लिम आप्रवासियों) द्वारा पैदा किए जाने वाले यौन और नैतिक खतरों के संयोजन को दर्शाने के लिए ” रेपफ्यूजी ” शब्द गढ़ा। “रेपफ्यूजी” की इस अवधारणा का एक दृश्य फरवरी 2016 में पोलिश पत्रिका Wsieci के कवर के माध्यम से प्रदर्शित किया गया था, जिसमें यूरोपीय ध्वज में एक गोरी महिला पर भूरे हाथों से हमला किया गया था, और इसका शीर्षक ” द इस्लामिक रेप ऑफ यूरोप ” था। हालांकि प्रो. जॉक्लिने सेसरी मानवता के लिए यह भी बताती हैं कि सभी मुसलमान एक जैसे नहीं होते और उनकी एक समान तुलना करना गलत होगा, किंतु क्या हम इस धारणा को तोड़ सकते हैं जो बहुसंख्यक इस्लामवादियों ने अपने आचरण से पैदा की है?
पोलिश पत्रिका ने “यूरोप का इस्लामी बलात्कार” शीर्षक के तहत फ्रंट कवर में दिखाया गया है कि कैसे एक श्वेत महिला पर तीन जोड़े काले रंग के पुरुषों द्वारा हमला किया जा रहा है। पत्रिका wSieci (द नेटवर्क) के कवर पर यूरोपीय संघ के झंडे में लिपटी एक गोरी महिला को दिखाया गया है। पुरुष हाथ उसके बालों और बांहों को पकड़ रहे हैं और जाहिर तौर पर झंडे को फाड़ने वाले हैं। पत्रिका के विज्ञापन में “मीडिया और ब्रुसेल्स अभिजात वर्ग यूरोपीय संघ के नागरिकों से क्या छिपा रहे हैं इसके बारे में एक रिपोर्ट” का वादा किया गया है।
जर्मन के अकेले एक शहर कोलोन में ही सैकड़ों महिलाओं का बलात्कार और यौन उत्पीड़न हुआ
अंदर, लेख में नए साल की पूर्व संध्या पर जर्मन शहर कोलोन में सैकड़ों महिलाओं के बलात्कार और यौन उत्पीड़न का जिक्र है। हमलों के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए लोगों में से अधिकांश उत्तरी अफ्रीका से हाल ही में आए प्रवासी थे। रिपोर्ट की लेखिका अलेक्जेंड्रा रायबिंस्का ने लिखा, “कोलोन में नए साल की पूर्वसंध्या की घटनाओं के बाद पुराने यूरोप के लोगों को आप्रवासियों के बड़े पैमाने पर आगमन से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का दर्दनाक एहसास हुआ।”
“हालाँकि, चीजें गलत हो रही थीं, इसका पहला संकेत बहुत पहले ही मिल गया था। सहिष्णुता और राजनीतिक शुचिता के नाम पर उन्हें अब भी नज़रअंदाज़ किया गया या उनका महत्व कम कर दिया गया।” पत्रिका के इस संस्करण में “क्या यूरोप आत्महत्या करना चाहता है?” शीर्षक से लेख भी छपे हैं। और “द हेल ऑफ़ यूरोप”। कोलोन में बड़े पैमाने पर यौन हमलों से निपटने को लेकर जर्मनी में तनाव बढ़ गया है, इसमें बताया गया कि (2016) नए साल की पूर्वसंध्या के बाद कोलोन में 1,000 से अधिक शिकायतें दर्ज की गईं, जिनमें से लगभग आधी यौन प्रकृति की थीं। ये हमले जर्मनी में प्रवासी विरोधी प्रतिक्रिया का एक प्रमुख कारक थे, जिसने हाल के महीनों में सैकड़ों हजारों शरणार्थियों को स्वीकार किया है। कोलोन हमलों के वृत्तांतों ने अन्य यूरोपीय शहरों में महिलाओं को यौन हमलों के समान वृत्तांतों के साथ आगे आने के लिए प्रोत्साहित किया। यानी कि यहां महिलाओं पर हुए यौन हमलों में ज्यादातर शरणार्थियों की संलिप्तता पाई गई।
आप विचार करें; युरोप की यह तस्वीर आज से आठ साल पहले की है। इसके बाद युराप में कितना कुछ हुआ है, वह भी भयंकर है। कहना होगा कि दुनिया के एक बहुत बड़े सभ्य समाज में आज इस्लाम एक डर के रूप में देखा जाने लगा है। भले ही फिर इस्लाम को माननेवाले ज्यादातर लोग सभ्य और सुसंस्कृत हों, किंतु उनके बीच में से ही निकले असभ्य एवं जिहादी तबका (गैर मुसलमानों के साथ) जिस तरह का व्यवहार दुनिया भर में प्रस्तुत कर रहा है, उसने आज पूरी मानवता के लिए संकट खड़ा कर दिया है। तथ्य यह है कि कुछ मुसलमान चरमपंथी हैं और आतंकवादी कृत्यों को अंजाम देते हैं, इस दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करने के लिए सामान्यीकृत किया जाता है कि इस्लाम सामान्य रूप से एक खतरे का प्रतिनिधित्व करता है। आतंकवादी घटनाओं, या सामूहिक हमलों, या बलात्कार के आँकड़ों में मुस्लिम पुरुषों की बढ़ती संख्या, या महिलाओं का उत्पीड़न, या शरिया कानून की कट्टरपंथी प्रथा का संदर्भ, आम तौर पर इस्लाम को एक खतरे के रूप में चित्रित करता है।
प्राचीन मध्य पूर्व बहुसंख्यक-ईसाई दुनिया से बहुसंख्यक-मुस्लिम दुनिया में कैसे बदल गया जिसे हम आज जानते हैं, और इस प्रक्रिया में हिंसा ने क्या भूमिका निभाई? इस प्रश्न का उत्तर धार्मिक हिंसा और मुस्लिम दुनिया का निर्माण (प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस), ऑक्सफोर्ड के ओरिएंटल स्टडीज संकाय के इस्लामी इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर सी. साहनेर की एक किताब इस्लाम के तहत ईसाई शहीद: धार्मिक हिंसा और मुस्लिम दुनिया का निर्माण में बहुत ही विस्तृत रूप से दिया गया है। वे अपनी पुस्तक Christian Martyrs under Islam: Religious Violence and the Making of the Muslim World में प्राचीन काल और प्रारंभिक इस्लामी युग के दौरान ईसाई-मुस्लिम संबंधों में विकसित हो रहे संघर्षों पर गहरी नज़र डालते हुए लिखते हैं कि ईसाईयों ने प्रारंभिक ख़लीफ़ाओं के तहत कभी भी व्यवस्थित उत्पीड़न का अनुभव नहीं किया था, वे अरब विजय के बाद सदियों तक बड़े मध्य पूर्व में आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा बने रहे। फिर आगे जो क्रूर हिंसा की घटनाएं घटीं, इन्हीं ने ईसाई समाजों के भीतर इस्लाम के प्रसार में योगदान दिया और इस रक्तपात ने नए इस्लामी साम्राज्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसका कुल निष्कर्ष यही है कि हिंसा इस्लाम के मूल स्वभाव में है।
नॉर्वे के सामने अपनी संस्कृति को बचाने का संकट खड़ा है
नॉर्वे में नॉर्वेजियन सेंटर फ़ॉर होलोकॉस्ट एंड माइनॉरिटी स्टडीज़ द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि नॉर्वे के एक तिहाई या अधिक सटीक रूप से 31 प्रतिशत लोग इस कथन से सहमत थे कि “मुसलमान यूरोप पर कब्ज़ा करना चाहते हैं”। आधी आबादी इस बात से सहमत थी कि इस्लामी मूल्य नॉर्वेजियन समाज के मूल्यों के साथ पूरी तरह या आंशिक रूप से असंगत थे। इसके अलावा, लगभग एक तिहाई ने खुद को मुसलमानों से सामाजिक रूप से दूर करने की इच्छा व्यक्त की। जबकि इससे पहले की स्थिति यहां की ये रही कि 1970 के दशक में पहली बार नॉर्वे ने बड़ी संख्या में मुस्लिम आप्रवासियों को अपने साथ लेना शुरू किया और फिर 9 सालों में यहां वह स्थिति पैदा हो गई कि इस्लाम का विरोध शुरू होने लगा।
1979 की शुरुआत में, एडवर्ड सईद की पुस्तक ओरिएंटलिज्म के प्रकाशन के एक साल बाद कार्ल आई. हेगन ने समाचार पत्र आफ्टेनपोस्टेन में एक जोरदार इस्लाम विरोधी कॉलम लिखा। अगले वर्ष, नॉर्वे में सलमान रुश्दी की पुस्तक के प्रकाशन के खिलाफ मुस्लिम प्रदर्शनों और बाद में इसके नॉर्वेजियन प्रकाशक, विलियम न्यागार्ड की हत्या के प्रयास पर भी तीखी मुस्लिम विरोधी प्रतिक्रियाएँ हुईं।
इसके साथ ही यहां गुप्त इस्लामीकरण और यूरेबिया जैसी अवधारणाएँ फैलने लगीं जोकि यह दर्शाती हैं कि इस्लाम धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से यूरोपीय समाजों में अपनी पकड़ बना रहा है और उन धर्मनिरपेक्ष और ईसाई मूल्यों की जगह ले रहा है जिन पर ये समाज आधारित हैं। डर में यह विचार शामिल है कि मुसलमानों की बड़े परिवार रखने की प्रवृत्ति के कारण श्वेत आबादी धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी, जिसे जनसांख्यिकीय युद्ध के रूप में जाना जाने वाली प्रक्रिया के माध्यम से प्रतिस्थापित किया जाएगा। ऐसे परिदृश्य के विश्वास को मिस्र-यहूदी लेखिका बैट ये’ओर ने अपनी पुस्तक ‘‘यूरेबिया’’ में बहुत ही तार्किक ढंग से साक्ष्यों के साथ प्रस्तुत किया।
यूरेबिया सिद्धांत के अनुसार, यूरोप में मुसलमानों का एक छिपा हुआ एजेंडा है जिसके तहत वे धीरे-धीरे यूरोप की सत्ता पर कब्ज़ा कर लेंगे। इसी तरह की सोच स्टील्थ इस्लामीकरण की अवधारणा को रेखांकित करती है, जिसे सिव जेन्सेन ने 2009 में प्रोग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन में लॉन्च किया था। इससे एक साल पहले (2008) में एक अमेरिकी ब्लॉगर और स्टॉप इस्लामाइजेशन ऑफ अमेरिका के संस्थापक रॉबर्ट स्पेंसर ने अपनी पुस्तक ‘‘स्टील्थ जिहाद’’ प्रकाशित की थी ।
नॉर्वे के ओस्लो विश्वविद्यालय (यूआईओ) का शोध अध्ययन कहता है कि पिछले दशक में नॉर्वे में हमने शांतिकाल में देश की सबसे भीषण सामूहिक हत्या का अनुभव किया है। 22 जुलाई 2011 को, ओस्लो में सरकारी क्वार्टर पर एंडर्स बेहरिंग ब्रेविक की बमबारी और उटोया द्वीप पर युवाओं की गोलीबारी के पीछे कई वैचारिक उद्देश्यों में यूरोप में इस्लामीकरण का डर भी शामिल था । मार्च 2019 में क्राइस्टचर्च, न्यूजीलैंड में दो मस्जिदों पर ब्रेंटन टैरंट के आतंकवादी हमले ब्रेविक के आतंकवादी कृत्यों से प्रेरित थे, जबकि उसी वर्ष अगस्त में बेरम में एक मस्जिद पर फिलिप मैनशॉस का हमला क्राइस्टचर्च में हुए हमलों से प्रेरित था । तीनों मामलों में, मुस्लिम विरोधी विचार हमलों के कई उद्देश्यों में से केवल एक किंतु शामिल था। इन आतंकवादी हमलों में हम मुस्लिम विरोधी, नस्लवादी साजिश सिद्धांतों के सबसे चरम परिणाम देखते हैं, जो दावा करते हैं कि मुस्लिम आप्रवासन एक बड़े उथल-पुथल में योगदान दे रहा है जो लंबे समय में सफेद (यूरोपियन) आबादी को खत्म कर देगा।
स्वीडन का हो गया बुरा हाल, मुस्लिम शरणार्थी बन गए भस्मासुर
यूरोप के उत्तर में बसे छोटे से देश स्वीडन से आए दिन हिंसक घटनाओं की खबरें आ जाती हैं।आमतौर पर शांत माने जाने वाले इस स्कैंडिनेवियन देश में बीते मुस्लिम समुदाय की तरफ से शुरू हुआ उपद्रव लगातार बढ़ता जा रहा है । पथराव, वाहनों में तोड़फोड़, आगजनी, पुलिस से सीधा टकराव और धार्मिक नारेबाजी यहां समय के साथ सामान्य बात होती जा रही है । आज क्या यह केवल एक यूरोपीय देश का ही नजारा है? 21वीं सदी की यह एक बुरी हकीकत है कि कई देशों में मुस्लिम कट्टरपंथ और उन्माद की घटनाओं में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है।
युरोप के इस देश में शरणार्थियों पर की गई दयालुता की कहानी यूं शुरू होती है; दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से पीड़ित बनकर शरण मांगने यहां आए मुस्लिम लोग जोकि मध्य एशिया और अफ्रीका के अशांत क्षेत्रों से बड़ी संख्या में स्वीडन आए थे, हमेशा के लिए यहीं बस गए । स्पीडन की तरह ही इनकी एक बड़ी संख्या अन्य यूरोपीय देशों में गयी और वहीं बस गई । इन सभी शरणार्थियों को स्वीडिश सरकार ने भी खुले मन से स्वीकारा और तमाम सुविधाएं उपलब्ध कराईं । समय बीतने के साथ शरणार्थी रहे ये मुस्लिम स्वीडन के नागरिक हो गए। इस विषय पर बीबीसी ने अलग-अलग समय में विस्तृत रिपोर्ट की हैं, जिसमें से एक में एक महिला का जिक्र आया है, जो कभी ईसाईयत छोड़कर मतान्तरित होकर इस्लाम अपना चुकी थी और पति के साथ सीरिया में इस्लामिक स्टेट (आइएस) की आतंकी के तौर पर गोलियां चलाने के लिए जा पहुंची थी, वहां जब एक आतंकी घटना के दौरान पति की मौत हो गई और उसके बाद इस्लामिक कट्टरवाद के अन्य पहलुओं को उसने नजदीक से देखा तो जैसे उसके सोचने का संपूर्ण नजरिया ही बदल गया। उसे अब अपनी गलती का अहसास हो रहा था।
दरअसल, जार्डन के एक पायलट को जिंदा जलाने के बाद उसकी अंतरात्मा उसे कचोट रही थी कि वह बहुत ही गलत रास्ते पर चल रही है, उसे समझ आया कि यह मुक्ति का मार्ग नहीं यह तो उसके मूल मानवता के धर्म के सिद्धांतों और भावनाओं के खिलाफ है। तब वह इस्लामिक स्टेट (आइएस) के चंगुल से भागने की योजना बनाती है और फिर किसी तरह से वहां से भागकर वापस स्वीडन पहुंचती है। फिर उसके जीवन की कहानी मीडिया के जरिए सभी के सामने आती है और दुनिया उसके अनुभवों के जरिए यह जान पाती है कि उसको ‘आइएस’ आतंकी बनाने के लिए कैसे उसका ब्रेनवाश किया गया और किस प्रकार से अन्य लोगों के सोचने के नजरिए को बदलने के लिए प्रयास किए जाते हैं, ताकि वे इस्लामिक लड़ाके के रूप में तैयार हो सकें ।
मुस्लिम शरणार्थी हो गए अराजक, आईएस में जाते हैं सबसे ज्यादा लड़ाके
बीबीसी की रिपोर्ट में यह भी सामने आया है कि इन्हीं शरणार्थियों की नई पीढ़ी स्वीडन में अराजकता पैदा कर रही है। यह उन्मादी पीढ़ी केवल स्वीडन तक ही सीमित नहीं रही, विश्व भर में आतंक फैलाने निकली है । आज यही कट्टरपंथ और उन्माद स्वीडन की आंतरिक सुरक्षा पर भारी पड़ रहा है। यह भी एक जानकारी है कि यूरोप से सबसे अधिक जिहादी भेजने वाले देशों में स्वीडन की गिनती होती है। यूरोप में शरणार्थियों द्वारा इस्लामिक आतंकवाद के विस्तार पर एक रपट वेब पर पत्रकार संजय पोखरियाल की भी देखी जा सकती है, जिसमें सविस्तार उन्होंने तर्क एवं आंकड़ों के साथ बताया है कि गोटेनबर्ग जिहादियों की सबसे अधिक भर्ती करने वाला स्वीडिश शहर है। करीब पांच लाख की आबादी वाला यह शहर कभी औद्योगिक शक्ति रहा था और अब एक पोर्ट सिटी है, लेकिन यह दूसरे ही कारण से कुख्यात हो गया। स्वीडन से आइएस में जाने वाले 300 जिहादियों में से 100 इसी शहर से थे। उग्रता की साजिश में महिलाएं भी पीछे नहीं हैं। यहां की तिहाई से ज्यादा आबादी दूसरे देशों से आए लोगों की हैं जिसमें से अधिकांश मु्स्लिम हैं। उत्तर पूर्वी कस्बे एंग्रेड में तो यह संख्या कुल आबादी के सत्तर प्रतिशत से भी अधिक है। कुल तथ्य यह भी है कि इस समय स्वीडन इस धार्मिक कट्टरपंथ से जुड़ी हिंसा को झेल रहा है। स्वीडन ने क्रिसमस पर रोशनी करने पर प्रतिबंध लगा दिया है, ताकि मुस्लिम शरणार्थियों को उग्र होने से रोका जा सके।
इस्लामिक आतंक से सुलग रहा है फ्रांस
युरोप में इसी तरह से फ्रांस वह देश है, जो इस्लामिक आतंक का सबसे अधिक दंश झेल रहा है। बाहर से आए मुस्लिम स्थानीय मुस्लिमों के साथ मिलकर सामुदायिक भावना गढ़ रहे हैं। हमले और हिंसक घटनाओं की संख्या बढ़ने के बाद फ्रांस की सरकार चेती है, लेकिन उसके लिए कुछ भी करना आसान नहीं है। नवंबर 2005 में फ्रांस में पेरिस के आसपास के शहरों, ल्योंस और टूलूज जैसे अन्य बड़े शहरों में दंगे हुए। मार्च 2006 में मोंटफरमील की घटनाओं में इनकी पुनरावृत्ति भी देखी गई। इसके बाद से फ्रांस में हिंसा और अराजकता में लगातार वृद्धि होती हुई दिखाई देती है। 2014 के बाद बढ़े हमलों के कारण आपरेशन सेंटिनेल, आपरेशन विजिलेंट गार्डियन और ब्रसेल्स लाकडाउन चलाए गए, फिर भी फ्रांस में इस्लामिक अतिवादियों का आतंक कम नहीं हुआ। आए दिन वहां किसी को चाकू मारा जा रहा है तो किसी पर गोली बरसाई जा रही है। फ्रांस की मूल महिलाएं लगातार यौन हिंसा की शिकार बनाई जा रही हैं।
द मिडल ईस्ट मीडिया रिसर्च इंस्टीट्यूट (मेमरी) ने 23 जून, 2023 को लिखा, ‘‘14 जून, 2023 को एक प्रो-इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) टेलीग्राम चैनल ने हिज्र (जिहाद छेड़ने के उद्देश्य से किया गया अप्रवास) को बढ़ावा देने और गंतव्य तक मार्ग को सुरक्षित करने संबंधी सुझाव देने वाली एक पोस्ट अरबी भाषा में प्रकाशित की है। (जो युक्तियां सुझाई गई हैं) उनमें शामिल हैं- चोरी हुए मोबाइल फोन का नंबर हासिल करना, इसे दो-चरण वाले प्रमाणीकरण के साथ उपयोग करना, धीरे-धीरे अपना हुलिया बदलना और विश्वसनीय लोगों द्वारा बताए गए ऐसे व्यक्ति से संपर्क करना, जो आगे उनका मददगार रहेगा।’’ पोस्ट में संभावित भर्तीकर्ताओं से आग्रह किया गया है कि वे इस फैसिलिटेटर का फोन नंबर याद रखें और किससे क्या बात हुई, इसके विवरण का कभी खुलासा न करें।
यहां यह भी सामने आया है कि फ्रांसीसी राष्ट्रपति ने जब हिजाब, कट्टरपंथी शिक्षण और प्रशिक्षण, विदेशों से मदरसों के लिए धन लेने, मस्जिदों में तकरीर पर प्रतिबंध और शिक्षण सामग्री पर सरकारी निगरानी आदि के लिए जैसे नियम बनाए, तभी से फ्रांस सरकार से या फ्रांस से मुसलमानों की नाराजगी बढ़ने लगी थी। फ्रांस सरकार की पाबंदी और कानून मुसलमानों को पसंद नहीं आया। इसके बाद से ही गुंडागर्दी, सामूहिक हिंसा, कट्टरपंथी घटनाएं बढ़ती गई।
अभी पिछले साल ही फ्रांस में अल्जीरियाई मूल के 17 वर्षीय किशोर नाहेल एम की पेरिस के पास पुलिस के हाथों मौत के बाद पूरा देश जला दिया गया। फ्रांस के कई शहरों में गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा हो गए थे। कई दिनों तक चला ये हिंसक प्रदर्शन फ्रांस से होते हुए संपूर्ण यूरोप तक में फैल गया था, जिसके परिणाम स्वरूप कई और देशों में इस्लामिक आतंकवाद देखने को मिला, उसमें भी सबसे अधिक प्रभावित हुए बेल्जियम और स्विट्जरलैंड । दंगाइयों ने फ्रांस के पेरिस, मार्सिले और ल्योन सहित अन्य शहरों में जमकर उत्पात मचाया। एप्पल, जारा स्टोर्स और शॉपिंग मॉल में लूटपाट के वीडियो के बाद, मार्सिले में वोक्सवैगन डीलरशिप को लूटने जैसे अनेक वीडियो अलग-अलग स्थानां से वायरल होकर सभी के सामने आए। जिनमें लोगों को शोरूम में घुसकर सामान लेकर यहां तक कि नई कारों को तक को लूटकर भागते हुए देखा गया। आप इन वीडियो में दंगाइयों को मजहबी नारे लगाते हुए भी देख सकते हैं।
इस बीच, एक मौलवी शेख अबू तकी अल-दीन अलदारी का वीडियो वायरल हुआ, जिसमें वह कह रहा था, ‘‘जिहाद के जरिए फ्रांस एक इस्लामिक देश बन जाएगा और पूरी दुनिया इस्लामी शासन के अधीन होगी। फ्रांसीसियो! इस्लाम में कन्वर्ट हो जाओ, नहीं तो जजिया का भुगतान करने के लिए मजबूर किए जाओगे।’’ मेमरी टीवी द्वारा अनुवादित वीडियो में कहा गया है, ‘‘ऐसा कहा जाता है कि 2050 में फ्रांस में मुसलमानों की संख्या फ्रांसीसियों से अधिक हो जाएगी। लेकिन हम फ्रांस को इस्लामिक देश बनाने के लिए इन आंकड़ों पर भरोसा नहीं कर रहे हैं। हम जिस पर भरोसा कर रहे हैं वह यह है कि मुसलमानों के पास एक ऐसा देश होना चाहिए जो अल्लाह की खातिर जिहाद के माध्यम से इस्लाम को अपना मार्गदर्शन, अपना प्रकाश, अपना संदेश और अपनी दया (पश्चिम के) लोगों तक पहुंचाए।’’ किशोर की हत्या पर पांच दिनों की हिंसा में ही 935 इमारतें क्षतिग्रस्त हुई, 5,354 वाहन जलाए गए, आगजनी की 6,880 घटनाएं हुईं। 41 पुलिस थानों पर हमला किया गया, 79 पुलिसकर्मी घायल हुए । अंतत: इस अराजकता को रोकने के लिए फ्रांस को विशिष्ट जीआईजीएन कमांडो की तैनाती करना पड़ी थी । उसके बाद सोशल मीडिया में मुस्लिम प्रवासियों से जुड़े वीडियो शेयर करके उन्हें यूरोप आने से रोकने की मांग तेज होती हुई देखी गई।
वस्तुत: फ्रांस में हाल के दशकों में अल्जीरिया, मोरक्को, ट्यूनीशिया और उप-सहारा अफ्रीका जैसे देशों से मुस्लिम प्रवासियों की लगातार आमद देखी गई है। इस जनसांख्यिकीय वृद्धि का श्रेय आप्रवासन, उच्च जन्म दर और रूपांतरण जैसे कारकों को दिया जाता है। इस गतिशील समुदाय में उत्तरी अफ्रीका, तुर्की, अरब दुनिया और उप-सहारा अफ्रीका में मूल के व्यक्ति शामिल हैं। सांख्यिकीय डेटा फ्रांस में मुस्लिम आबादी की पर्याप्त वृद्धि को रेखांकित करता है, जो अब लगभग 6 मिलियन है, जो कुल फ्रांसीसी आबादी का लगभग 8-9 प्रतिशत है। अनुमानों से पता चलता है कि फ़्रांस की मुस्लिम आबादी में वार्षिक 17 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है।
इस देश में इस्लामिक आतंक किस तरह से हावी है, वह इससे भी पता चलता है कि पेरिस के करीब रामबौलेट में हमलावर ने पुलिस थाने में घुसकर एक महिला पुलिस अधिकारी स्टेफनी की गर्दन पर धारदार हथियार से ताबड़-तोड़ वार किए, जिससे मौके पर ही उसकी मौत हो गई। ट्यूनिशिया का यह 36 वर्षीय हमलावर इस दौरान अल्ला-हो-अकबर का नारा लगा रहा था।
फिलहाल फ्रांस में बढ़ते कट्टरवाद और चरमपंथ का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के प्रशासन ने विदेशी इमामों की देश में एंट्री पर रोक लगा दी है। हालांकि, नई नीति में ये प्रावधान भी किया गया है, कि अगर कोई विदेशी इमाम, फ्रांस में रहना चाहता है, तो वो विदेशों से फंड नहीं ले सकता है और अगर वो फ्रांसीसी मुस्लिम संगठनों से फंड लेकर फ्रांस में रहे, तभी वो देश में रह सकता है। दरअसल, विदेशी इमामों की एंट्री पर प्रतिबंध का ये फैसला साल 2020 में इमैनुएल मैक्रों के चुनावी वादे में था, जब उन्होंने कट्टरपंथी इस्लामी चरमपंथ से निपटने के लिए कई उपायों की घोषणा की थी, जिसमें अन्य प्रस्तावों के साथ-साथ मस्जिदों की विदेशी फंडिंग को खत्म करना भी शामिल था।
मैक्रों ने फरवरी 2020 में एक भाषण के दौरान “इस्लामिक अलगाववाद” पर हमला बोलते हुए कहा भी था कि फ्रांस को अपने गणतंत्रीय मूल्यों को अन्य सभी से ऊपर बनाए रखना चाहिए। फ्रांस में “राजनीतिक इस्लाम का कोई स्थान नहीं है, इस्लामी अलगाववाद स्वतंत्रता और समानता के साथ असंगत है, गणतंत्र की अविभाज्यता और राष्ट्र की आवश्यक एकता के साथ असंगत है।” फ्रांस में हिजाब पहनने पर भी प्रतिबंध लगाया गया है और मुस्लिम महिलाएं सार्वजनिक स्थानों पर हिजाब नहीं पहन सकती हैं।
ब्रिटेन के सामने भी खड़ा है, इस्लामीकरण का असन्न संकट
ब्रिटेन में मुस्लिम अप्रवासन बड़े पैमाने पर हुआ है और यह लगातार जारी है। ज्यादातर मुस्लिम समुदाय यहां ग्रेटर लंदन, वेस्ट मिडलैंड्स, नॉर्थ वेस्ट, यॉर्कशायर और हंबरसाइड जैसे क्षेत्रों में आकर बसता है। ब्रिटिश अधिकारी इनकी लगातार हो रही आमद से कई समस्याओं को भी पैदा होते देख रहे हैं। इनके बारे में वे अपनी सरकार को भी बता रहे हैं। हाल के कुछ वर्षों में यहां जिहादी हिंसा में वृद्धि हुई है। द इंडिपेंडेंट ने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी और यूगॉव (YouGov) के शोधकर्ताओं द्वारा एक सर्वे किया गया था जोकि उनके द्वारा प्रकाशित भी किया गया । इसके अनुसार, एक तिहाई ब्रिटिश मतदाताओं का मानना था कि मुसलमानों का अप्रवासन ब्रिटेन का इस्लामीकरण करने की गुप्त योजना का एक हिस्सा है। यहां इस्लामिक अप्रवासन से एक बहुत बड़ा वर्ग चिंतित है। वह इसे ईसाईयत के लिए ही नहीं बल्कि जो बहुलतावाद में विश्वास करते हैं और जो नास्तिक हैं उन सब के लिए भी खतरे के रूप में देखता है।
निगेल पॉल फराज रिफॉर्म यूके के मानद अध्यक्ष और जीबी न्यूज के प्रस्तुतकर्ता हैं । इनकी भूमिका यूनाइटेड किंगडम के यूरोपीय संघ से बाहर निकलने तक में महत्वपूर्ण रही है और इन्होंने दक्षिण पूर्व इंग्लैंड के लिए यूरोपीय संसद (एमईपी) के सदस्य के रूप में कार्य किया है, ये कहते हैं कि ‘‘इस्लामवाद के बारे में चिंता यह है कि जो लोग ब्रिटेन में इस्लाम को मानते हैं, वे ब्रिटेन की संस्कृति को स्वीकार नहीं करते हैं, ब्रिटेन के कानून को स्वीकार नहीं करते हैं। वे मेजबान देश पर अपनी विश्व दृष्टि थोपना चाहते हैं। यह हमें विनाश की ओर ले जाएगा। यह नहीं चलेगा। मैं बहुत स्पष्ट हूं कि मैं मजहब के खिलाफ नहीं हूं, मैं इस्लाम के खिलाफ नहीं हूं। …यहां आए कुछ लोगों के साथ एक विशेष समस्या है। जो मुस्लिम मजहब के हैं, जो हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं बनना चाहते हैं। हमारे इतिहास में ब्रिटेन में आने वाले किसी प्रवासी समूह का ऐसा कोई पिछला अनुभव नहीं है, जो मूल रूप से यह बदलना चाहता हो कि हम कौन हैं और हम क्या हैं।’’
इस्लामी परंपराएं यूरोपीय संस्कृति के अनुरूप नहीं – जॉर्जिया मेलोनी
जॉर्जिया मेलोनी इस वक्त इटली की प्रधानमंत्री हैं, वे कई बार इस्लाम की सच्चाइयों को उजागर कर चुकी हैं। मेलोनी का मानना है कि इस्लामी परंपराएं यूरोपीय संस्कृति के अनुरूप नहीं है। वे साफ तौर पर कहती हैं, ‘मेरा मानना है कि इस्लामिक संस्कृति और हमारी सभ्यता के मूल्यों और अधिकारों के बीच अनुकूलता की समस्या है। हमारी सभ्यता अलग है।’ वह साफ़-गोई से कह जाती हैं, कोई कुछ भी कर ले वो इटली में शरिया कानून लागू होने नहीं दे सकती हैं। इसके साथ ही मेलोनी एक वीडियो में ये कहती हुई नजर आती हैं, ‘ये मेरे दिमाग से निकल ही नहीं रहा है कि इटली में ज्यादातर इस्लामिक कल्चर सेंटर को सऊदी अरब से फंडिंग मिलती है।’
वस्तुत: मुसलमानों को इतालवी में समाहित कर सकने में कठिनाई के कारण इटली में एक दक्षिणपंथी गठबंधन तेजी से उभर रहा है, जो कट्टरवाद से निपटने के लिए सख्त कदम उठाने का आह्वान कर रहा है। कारण फिर वही है- मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका से बिना दस्तावेज वाले प्रवासी भूमध्य सागर पार करके इटली और यूरोप के अन्य हिस्सों में प्रवेश कर रहे हैं। जोकि यहां के मूल निवासियों पर अपने लिए किसी खतरे से कम नहीं लगता है।
पत्रकार एमी मेक लिखती हैं, ‘‘इस दुनिया में, यूरोप में, इस्लामी प्रवासी बच्चों की एक पूरी पीढ़ी ऐसी है, जिसके लिए डॉक्टर, पायलट या इंजीनियर बनने का सपना दूर की कौड़ी लगता है। इसके बजाय उनका पालन-पोषण उन लोगों का महिमामंडन करते हुए किया गया है जो पश्चिम से घृणा करते हैं, जो हरेक गैर-इस्लामिक चीज को जीतने और नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं।’’
इस तरह से आप पूरे युरोप की वर्तमान स्थिति देख सकते हैं । सच्चाई यही है कि स्वीडन, फ्रांस, बेल्जियम, स्पेन जर्मनी, इटली, यहां तक कि ब्रिटेन तक में इस्लाम का दुष्प्रभाव साफ तौर पर देखा जा सकता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि जर्मनी, बेल्जियम समेत कई देशों ने खुले दिल से शरणार्थियों के लिए दरवाजे खोले और आज गलती का अहसास कर रहे हैं। यूरोप में मुस्लिम शरणार्थी अपना कुनबा तेजी से बढ़ा रहे हैं, जिसमें कि अधिकांश अपने ही तौर तरीकों के साथ अलग कालोनी बनाकर रहते हैं। यूरोप में ऐसी मुस्लिम कालोनियों की संख्या बहुत बढ़ी है। इन मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में शरिया कानून थोपा जाता है। यह समुदाय कथित तौर पर लोगों, खासकर महिलाओं के पहनावे और तौर तरीकों पर नियंत्रण करने के लिए बेजा दबाव बनाता है। यहां तक कि संगीत और नृत्य को भी हराम बताकर रोकने की बात होती है। पुलिस ने इस क्षेत्र को अति संवेदनशील, कानून व्यवस्था के लिए खतरा व समानांतर समाज बनाने की साजिश माना है।
युरोप में यह अनेक बार और बार-बार देखने में आ रहा है कि इस्लामिक पहचान बनाए रखने के लिए यहां मुस्लिम जनसंख्या कानून और मानवाधिकारों का सहारा लेकर किसी भी हद तक जाने को तैयार रहती है। कई बार कोर्ट में जाकर अपने हिसाब से मनमाना निर्णय आए इसके लिए भी प्रयास किए जाते हैं। किंतु न्यायालय तो न्यायालय है, वह साक्ष्यों और उस देश के संविधान के आधार पर निर्णय देता है लेकिन ये हैं कि छोटी से छोटी बात पर भी न्यायालय जाने से नहीं चूकते, ताकि स्थानीय प्रशासन, सरकार और उस देश की राजनीतिक पार्टियों पर प्रभाव जमाया जा सके ।
आप देखिए; कैसे एक मामूला सा मामला था, जिसे इस्लामवादियों ने तूल दिया, दरअसल, जब बेल्जियम की एक कंपनी ने मुस्लिम महिला को हिजाब पहनकर आने से मना कर दिया तो इसके खिलाफ महिला कोर्ट पहुंच गई। तब कोर्ट ने फैसला दिया था कि अगर ये नियम सभी कर्मचारियों पर लागू है, तो इससे कोई भेदभाव पैदा नहीं होता। यूरोपियन यूनियन की कोर्ट ऑफ जस्टिस ने फैसला दिया था कि यूरोपियन कंपनियां चाहें तो रिलिजियस सिम्बल पर बैन लगा सकतीं हैं, जिसमें हिजाब भी शामिल था। फिर भी इस्लामवादी इसे एक बड़ा मुद्दा बनाने से नहीं चूके।
युरोप के आतंकवादी हमले डरा रहे हैं
यहां डर पैदा करने और हिंसा के आंकड़े भी डरा रहे हैं । 2013 के बाद यूरोप में आतंकी घटनाओं में वृद्धि होती हुई दिखाई देती है। इसके पहले के हमलों में आइएस और अलकायदा शामिल रहे लेकिन बाद में वहां लोन वोल्फ हमले यानी अकेले एक व्यक्ति द्वारा गोलीबारी, चाकूबाजी या गाड़ी चढ़ाने के मामले बढ़ गए हैं। बेल्जियम में यहूदी संग्रहालय पर हुआ हमला सीरिया से लौटे जिहादी करता है , फिर पेरिस हमले में 130 लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाता है। इसके बाद फ्रांस के नाइस शहर में ट्रक से हुए हमले में 86 लोगों को मार दिया जाता है । इस्लामिक स्टेट ने हत्या की जिम्मेदारी ली।अतातुर्क एयरपोर्ट हमले में 45 की मौत हुई। ब्रसेल्स में बम धमाकों में 32 लोग मारे जाते हैं । मैनचेस्टर एरीना में बम विस्फोट कर आतंकवादी 22 लोगों को मौत की नींद सुला देते हैं ।
अभिव्यक्ति की आजादी के तहत कक्षा में मुहम्मद का कार्टून दिखाने पर पेरिस में इतिहास के शिक्षक सैमुअल पैटी का सिर काटा। हमलावर 18 वर्षीय चेचेन शरणार्थी अब्दुल्लाह एंजोरोव था। पेरिस में पत्रिका शार्ली एब्दो के पुराने मुख्यालय के बाहर एक पाकिस्तानी ने दो लोगों को चाकू मारा। आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के एक आतंकी ने पेरिस के चैंप्स-एलिसीज पर एक पुलिस अधिकारी की गोली मारकर हत्या कर दी। दक्षिणी फ्रांस में फ्रांसीसी-मोरक्कन मूल के हमलावर ने गोलीबारी की। लोगों को बंधक बनाकर सुपरमार्केट में ले गया। अल्जीरियाई मूल के नागरिक ने नॉट्रे डैम कैथेड्रल के सामने गश्त कर रहे पुलिसकर्मी पर हथौड़े से हमला किया। हमलावर ने इस्लामिक स्टेट के प्रति निष्ठा जताई। एक इस्लामी कट्टरपंथी ने एयर गन से एक पुलिस अधिकारी को घायल किया, पेरिस के ओर्ली हवाईअड्डे पर सैनिकों पर हमला किया। फिर अल्लाह के नाम कुर्बान होने की बात कही। मिस्र के एक मुस्लिम ने अल्लाह-हू-अकबर के नारे लगाते हुए पेरिस के लूव्र संग्रहालय की सुरक्षा में तैनात फ्रांसीसी सैनिकों पर चाकू से हमला किया।
26 वर्षीय दो इस्लामी कट्टरपंथियों ने चर्च में प्रार्थना कर रहे 85 वर्षीय पादरी जैक्स हामेल की गला रेत कर हत्या कर दी। प्रोफेट मोहम्मद का कार्टून छापने पर शार्ली एब्दो के पेरिस कार्यालयों पर हुए हमलों में 17 लोग मारे गए। शार्ली एब्दो द्वारा पत्रिका के आवरण पर मुहम्मद का कार्टून छापने पर पेरिस स्थित के उसके कार्यालयों में आगजनी की गई। दक्षिणी फ्रांस के तालोसे शहर में अल-कायदा के आतंकी ने तीन यहूदी बच्चों, एक रबाई और तीन पैराट्रूपर्स की हत्या कर दी।
2021 में फ्रांस को पांच आतंकवादी हमलों का सामना करना पड़ा, जो यूरोपीय संघ के किसी भी देश में सबसे अधिक है। इस वर्ष के दौरान जर्मनी में दूसरे स्थान पर सबसे अधिक तीन हमले हुए, जबकि स्वीडन में दो आतंकवादी हमले हुए। इस्लामिक स्टेट (आईएस) ने इस साल के 22 मार्च को मॉस्को के बाहर क्रोकस सिटी कॉन्सर्ट हॉल पर हमले के नए वीडियो जारी किए, जिसमें 137 लोग मारे गए थे। ऐसे छोटे-बड़े कई आतंकी हमले अब तक पूरे युरोप में हो चुके हैं और इन सब के पीछे इस्लामिक आतंकवाद दोषी है। पिछले कुछ महीनों में, फ़्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड और स्वीडन के अधिकारियों ने इस्लामी आतंक के खतरे का हवाला देते हुए अपने अलर्ट स्तर को बढ़ा दिया है।
मुस्लिम जनसंख्या का इससे बड़ा प्रभाव क्या होगा? तुर्की के राष्ट्रपति ने एक बेजांटाइनकालीन चर्च को भी मस्जिद में बदल दिया
अभी हाल ही में तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैयप एर्दोगान ने एक बेजांटाइनकालीन प्राचीन सेंट सेवियर चर्च को मस्जिद में बदल दिया है। सोचिए; ये घटना 21वीं सदी के 2024 में घट रही है। यह चर्च इस्तांबुल में है। तुर्की के राष्ट्रपति के इस फैसले का पड़ोसी ग्रीस और ईसाई देशों ने कड़ी आलोचना भी की और साथ ही उन्होंने अपील भी की कि एर्दोगान सरकार बेजांटाइन कालीन स्मारकों का संरक्षण करे। इससे पहले तुर्की ने दुनियाभर में चर्चित हागिया सोफिया चर्च को मस्जिद में बदल दिया था। ये दोनों ही चर्च संयुक्त राष्ट्र के विश्व विरासत स्थलों में शामिल हैं। लेकिन इस आलोचना से होगा क्या, उनकी (मुसलमानों की) संख्या अधिक है वह जो चाहे कर सकते हैं, ये हैं जनसंख्या बढ़ने के खतरे ।
वैसे मानवाधिकार और मुसलमान खतरे में हैं की गैर इस्लामिक देश के विरुद्ध आवाज बुलंद करनेवाले इस्लामिक देशों के संगठन ओआईसी की इस मामले में बेशर्मी देखिए कि भारत में हिन्दू समाज द्वारा अपने आराध्य का अयोध्या में राम मंदिर बनाने पर हायतौबा मचाने वाला यह संगठन तुर्की की दूसरे रिलिजन के साथ ज्यादती करने पर यह अब तक चुप्पी मारकर बैठा हुआ है । इसी तरह की अनेक घटनाएं पाकिस्तान और बांग्लादेश में सामने आई हैं, जहां प्राचीन सांस्कृतिक महत्व के मंदिरों को तोड़ दिया गया और कहीं शॉपिंग सेंटर तो कहीं अन्य कुछ निर्माण कर दिया गया है। कुछ को मस्जिदों में बदलकर रख दिया है।
इस्लामिक आतंक फैलानेवाले संगठनों की एक लम्बी सूची है
संयुक्त राष्ट्र ने अभी कुछ दिन पूर्व ही इस्लामिक आतंकवाद पर चिंता जताते हुए कहा भी है कि इस्लामिक स्टेट समूह मिडिल ईस्ट में ही नहीं, अब मिडिल ईस्ट के करीब में अफ्रीका महाद्वीप पर भी अपना प्रभाव जमाने की कोशिश में लगा हुआ है। यही कारण है कि अफ्रीका में इस्लामिक स्टेट समूह का खतरा बढ़ रहा है। व्लादिमीर वोरोन्कोव ने संयुक्त राष्ट्र के निष्कर्षों को दोहराया कि खतरे का मुकाबला करने में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों द्वारा महत्वपूर्ण प्रगति के बावजूद आईएस खासकर संघर्षरत क्षेत्रों में, अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा बना हुआ है। समूह ने इराक और सीरिया के साथ-साथ दक्षिण पूर्व एशिया में अपने पूर्व गढ़ों में भी अभियान तेज कर दिया है। सिर्फ जिहाद के नाम पर दूसरे मत, पंथ, धर्म, रिलिजन को समाप्त करने पर तुला ये संगठन आज अकेला नहीं है।
अल कायदा, तालिबान, बोको हराम, हिज्बुल्ला, हमास, लश्कर-ए-तोइबा, जमात-उद-दावा, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, जैश-ए-मुहम्मद, हरकत उल मुजाहिदीन, हरकत उल अंसार, हरकत उल जेहाद-ए-इस्लामी, अल शबाब, हिजबुल मुजाहिदीन, अल उमर मुजाहिदीन, जम्मू-कश्मीर इस्लामिक फ्रंट, स्टूडेंटस इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी), दीनदार अंजुमन, अल बदर, जमात उल मुजाहिदीन, दुख्तरान-ए-मिल्लत और इंडियन मुजाहिदीन और भी न जाने कितने नए-नए इस्लामिक चरमपंथी और आतंकी संगठन आज दुनिया में हिंसा, षड्यंत्र एवं माइण्डवॉश करके पूरी दुनिया को इस्लामिक बनाने के लिए कार्य करते हुए देखे जा सकते हैं ।
जहां भी बढ़ी मुस्लिम जनसंख्या वहां अंत में क्या हुआ, ये देश हैं इसके सबसे बड़े उदाहरण
प्यू रिसर्च सेंटर का शोध कहता है कि 2060 तक पूरी दुनिया में मुसलमानों की कुल आबादी 2015 की तुलना में 70 प्रतिशत अधिक होगी। सर्वाधिक मुस्लिम जनसंख्या वाले देशों में इंडोनेशिया पहले नंबर पर है, उसके बाद पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश का नंबर आता है। जो आज भारत में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि को हल्के में ले रहे हैं, उन्हें समझना होगा कि यदि 1947 के पूर्व मुसलमानों की संख्या भारत में नहीं बढ़ी होती तो कभी पाकिस्तान अस्तित्व में ही नहीं आता। यह न सिर्फ एक एतिहासिक तथ्य है बल्कि सामाजिक सच भी है।
बारहवीं शताब्दी तक मालदीव पर हिंदू राजाओं का शासन रहा लेकिन आज यह एक मुस्लिम देश में बदल चुका है। कोई गैर मुस्लिम मालदीव का नागरिक तक नहीं बन सकता। सभी को पता है कि अभी यह मालदीव भारत को ही आंख दिखाने का प्रयास कर रहा था। इंडोनेशिया में दुनिया के किसी भी देश की तुलना में मुसलमानों की बड़ी आबादी वाला देश है। पहले ये भी हिंदू धर्म को माननेवाला देश था। इंडोनेशिया में मुस्लिमों की संख्या 24 करोड़ से ज्यादा है। आप सोच सकते हैं कि जनसंख्या बढ़ने का प्रभाव अंतत: क्या पड़ता है।
पाकिस्तान और बांग्लादेश को भी देख सकते हैं, हिन्दू सनातन संस्कृति को माननेवाले आज मुसलमान हो चुके हैं। बात सिर्फ मुसलमान होने तक सीमित नहीं है, इन्होंने अपनी परंपरा और बुजुर्गों तक को बदल दिया। अपने इतिहास के अध्ययन में ये कभी नहीं बताते कि वे कल क्या थे और उनकी कितनी अधिक प्राचीन संमृद्ध हिन्दू सनातन धर्म से जुड़ी ज्ञान परंपरा रही है। बल्कि यहां के अधिकांश मुस्लिम हिन्दुओं को अपने शत्रु के रूप में देखते हैं । अरब से आए लुटेरों के साथ अपने एतिहासिक संबंध बताते हैं, उन्हें इतिहास में महानायक सिद्ध करने की कोशिश करते हैं।
भारत में जहां भी मुसलमानों की संख्या बढ़ी, वहीं शरिया लागू करने की कोशिशें शुरू, टकराव भी वहीं ज्यादा
भारत में जिन राज्यों में मुसलमानों की जनसंख्या अच्छी खासी है, वहां हिन्दुओं या अन्य मत, पंथ, धर्मावलम्बी के साथ उतने ही अधिक टकराव आपको देखने को मिलते हैं। भारत के जिस भी राज्य में डेमोग्राफी में बदलाव हुआ है, वहां भयंकर परिणाम आज सामने आ चुके हैं। भारत में कई ऐसी घटनाएँ सामने आ रही हैं, जहाँ किसी इलाके में मुस्लिमों की जनसंख्या अधिक है, वहां सारे नियम-कानून उनके ही मुताबिक चलाए जाने का प्रयास होने लगता है। इन स्थानों पर आप जाएंगे तो आपको यही अनुभव में आएगा कि भारत के इस हिस्से में शरिया लागू है । पश्चिम बंगाल के सीमावर्ती जिले, झारखण्ड, बिहार, उत्तरप्रदेश का कैराना, कश्मीर, तमिलनाड़, मध्यप्रदेश में श्योपुर का कुछ हिस्सा जहां मदरसों में अवकाश शुक्रवार का रखा जा रहा है। महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, केरल, तेलंगाना या अन्य राज्य ही नहीं बल्कि देश की राजधानी दिल्ली में मुस्लिम इलाकों की स्थिति का आप अवलोकन कर लें, यही नजारा दिखाई देगा।
वस्तुत: इस संबंध में वरिष्ठ पत्रकार रजत शर्मा की बातों को गहराई से समझने की आवश्यकता है । भारत जैसे विविधताओं वाले देश में जहां हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी और दूसरे समुदाय मिल जुलकर रहते हैं, मिली-जुली आबादी है, वहां जनसंख्या का असंतुलन होने से बहुत सारी समस्याएं पैदा होती हैं। समाज का ताना-बाना टूटता है। संसाधनों पर कब्जे की लड़ाई शुरू होती है और इस तरह की समस्याएं उन इलाकों में ज्यादा देखी गई हैं जहां आबादी का अनुपात बिगड़ गया है । असम और केरल इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। पश्चिम बंगाल के कुछ इलाके, पूर्वी उत्तर प्रदेश , बिहार में सीमांचल, राजस्थान में भरतपुर और हरियाणा में नूंह का क्षेत्र, जहां जहां आबादी में असंतुलन हुआ, वहां से अक्सर लड़ाई, दंगे और सांप्रदायिक तनाव की खबरें आती हैं।
वे साफ कहते हैं कि ये कोई सिर्फ भारत की बात नहीं है, दुनिया में ऐसे कई देश हैं, जो इस समस्या से जूझ रहे हैं । इसलिए हमें भी सावधान रहने की ज़रूरत है। आज जिस रिपोर्ट का जिक्र हमारे देश में हो रहा है, उसी तरह की रिपोर्ट दुनिया के कुछ समाजशास्त्रियों ने जारी की है जिसमें कहा गया है कि अगर इसी रफ्तार से मुसलमानों की आबादी बढ़ती रही तो 2060 तक दुनिया में मुसलमानों की आबादी ईसाइयों से ज्यादा हो जाएगी। अगर इसी रफ्तार से मुसलमानों की आबादी बढ़ती रही, तो 2070 तक भारत दुनिया में सबसे ज्यादा मुसलमानों की आबादी वाला देश बन जाएगा।
अंत में यही कि सवाल मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ने का नहीं है? सवाल इस्लाम से डरने का भी नहीं है? किंतु आज चिंता यह है कि मजहबीकरण के कारण से जिस तेजी के साथ दुनिया से मानवीय विविधता का सौंदर्य नष्ट या विलुप्त होता जा रहा है। संस्कृतियां समाप्त हो रही हैं। कलाएं नष्ट हो रही हैं । परम्पराएं विनाश की ओर जा रही हैं। यदि इसी प्रकार चलता रहा तो दुनिया में कुछ ही नाम मात्र से धर्म, मजहब, पंथ रह जाएंगे। चिंता इस बात की है कि इसके कारण से अनेक ज्ञान की शाखाएं हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएंगी, जिनको गढ़ने में मानव सभ्यताओं को वर्षों तक श्रम करना पड़ा था। इस्लाम को लेकर अभी तक अध्ययन इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इसके पहुंचने के बाद अंतत: यही रह जाता है बाकी सब नष्ट हो जाता है या नष्ट होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है । बस, डर इसी बात का है कि मानव सभ्यता के लिए जैसे इस्लामिक मान्यताओं की अपनी कुछ विशेषताएं हो सकती हैं, वैसे ही अन्यों का भी अपना-अपना महत्व है, उनकी अपनी सादगी और खास उपयोगिता है, इसलिए उनका भी मानव सभ्यता और उसके विकास के लिए बना रहना जरूरी है। इन सभी की खूबसूरती और प्रकृति ही हमारी पृथ्वी को विशेष बनाती है और सच्चे अर्थों में मानव धर्म को व्याख्यायित करती हैं।
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