आपने अभी कांग्रेस नेता राहुल गांधी का डर देखा होगा. कैसे चुपके से अंतिम क्षणों में अपनी माता कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा खाली की गई सीट रायबरेली से पर्चा दाखिल किया है. यह डर है. डर, ये कि अंतिम समय पर पर्चा दाखिल करो, कहीं भाजपा कोई दमदार प्रत्याशी न उतार दे. वह अपनी हारी हुई सीट अमेठी नहीं गए, यह भी डर ही है. राहुल गांधी को उत्तर प्रदेश में इतना डर क्यों लग रहा है. उस उत्तर प्रदेश में जहां, कभी उनकी पार्टी सभी 80 लोकसभा सीट जीतती थी. जहां विधानसभा में कुल 430 सीट में से 380 विधायक कांग्रेस के निर्वाचित होते थे. जहां से जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, संजय गांधी लगभग निर्विरोध निर्वाचित होते थे. असल में आज कांग्रेस के सामने उत्तर प्रदेश में संख्या बल में जीरो हो जाने का संकट है. दो फीसद वोट तक सिमट चुकी कांग्रेस आत्ममुग्ध नेतृत्व, पैराशूट सलाहकारों और दक्षिण लॉबी के दबाव जैसे त्रिकोण में फंसी है.
आखिरी सांसें गिनती कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में जमीनी हकीकत ये है कि उसके दो विधायक हैं. पिछली लोकसभा में इकलौती सांसद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी थी. 80 सीट से 1 सीट तक कांग्रेस कैसे आई, इसमें कोई बहुत बड़ा राज नहीं है. जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश में राजनीतिक चेतना जाग्रत होती गई, संचार माध्यम गति पकड़ते गए, कांग्रेस खत्म होती गई. अब कोई पूछ सकता है कि राजनीतिक चेतना की जाग्रति या संचार माध्यमों का कांग्रेस के वेंटिलेटर पर आ जाने से क्या संबंध है. इस पर विस्तार से चर्चा करते हैं.
उत्तर प्रदेश में आप कांग्रेस के इतिहास को दो हिस्सों में देख सकते हैं. एक हिंदू पुनर्जागरण काल से पहले और दूसरा इसके बाद. हिंदू पुनर्जागरण काल असल में राम मंदिर आंदोलन का काल है. क्या यह सिर्फ संयोगभर है कि राम मंदिर आंदोलन के गति पकड़ने के बाद से कांग्रेस कभी उत्तर प्रदेश में सरकार नहीं बना पाई. कांग्रेस के पराभव का राम मंदिर आंदोलन से इतना सीधा संबंध कैसे है, ये जानने के लिए इतिहास के पन्ने पलटने होंगे. इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद राजीव गांधी के अनुभवहीन हाथों में केंद्र सरकार थी. इसी काल में दो बड़ी घटनाएं घटित हुई. शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए राजीव गांधी सरकार अध्यादेश लाई. और दूसरा, राम जन्मभूमि स्थल का ताला खुला.
1978 में एक मुसलिम महिला शाहबानो ने अपने पति मोहम्मद अहमद खान से गुजारा भत्ते की मांग करते हुए अदालत में मुकदमा किया. यह मुकदमा तमाम मुकामों से गुजरता हुआ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया. देश के तमाम कट्टरपंथी मुसलमानों में इस फैसले को लेकर तीखी प्रतिक्रिया हुई. कांग्रेस के मुंह लगे तमाम कट्टरपंथी मौलाना इसे पर्सनल लॉ (पढ़ें- शरियत) में दखल बताने लगे. राजीव गांधी सरकार दबाव में आ गई. वही राजीव गांधी, जिन्हें कांग्रेस के नेता महिला हितों का हितैषी साबित करने पर तुले रहते हैं, मुसलिम महिलाओं को बराबरी का हक देने की जगह मौलानाओं के चरणों में लेट गए. राजीव गांधी सरकार मुसलिम महिलाओं के हक पर डाका मारते हुए एक कानून लेकर आई और मुसलिम महिलाओं का गुजारा भत्ते का धर्म निरपेक्ष अधिकार छीन लिया.
यह वह दौर था, जब टेलीविजन ड्राइंग रूम में पहुंचने लगा था और क्षेत्रीय मीडिया (पहले अखबारों का प्रकाशन सिर्फ दिल्ली जैसे बड़े शहरों से होता था) पांव पसार रहा था. भाषाई अखबार घरों तक पहुंच रहे थे और साथ ही राजीव गांधी सरकार की कारस्तानी भी. हिंदुओं में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई. कांग्रेस आजादी के पहले और आजादी के बाद लगातार इस्लामिक कट्टरपंथी तत्वों के सामने घुटने टेकती रही, लेकिन यह मामला तो साफ-साफ धर्म निरपेक्ष संविधान की शपथ लेने वाली सरकार की मुस्लिम परस्ती का था.
इसी सबके बीच में 31 दिसंबर 1986 का दिन आया. यह वह दिन है, जिसने आजाद भारत की राजनीति को बदल डाला. फैजाबाद के वकील उमेश चंद्र ने राम जन्मभूमि का ताला खुलवाने के लिए जिला अदालत में याचिका दायर की हुई थी. अदालत ने जन्मभूमि का ताला खोलने का आदेश दिया. उस समय केंद्र और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की ही सरकार थी. 37 साल पहले कांग्रेस सरकार ने राम जन्मभूमि पर जो ताला लगवाया था, वह 1 फरवरी 1987 को खुल गया. बड़ी संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचे. शाहबानो मामले के कारण हिंदुओं के बीच हुई किरकिरी को दूर करने के लिए तत्कालीन गृह राज्य मंत्री अरुण नेहरू ने इसका श्रेय राजीव गांधी को देने की कोशिश की. हालांकि प्रधानमंत्री कार्यालय के तत्कालीन सचिव वजाहत हबीबुल्लाह ने सफाई दी कि राजीव गांधी को अदालत के फैसले की जानकारी तक नहीं थी. लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.
मुसलमान ताला खुलने से नाराज थे और हिंदू जनमानस में राम मंदिर की मांग जोर पकड़ रही थी. बोफोर्स मे दलाली के आरोपों में घिरे राजीव गांधी की सरकार 1989 में जाती रही. और इसी के साथ कांग्रेस उत्तर प्रदेश से विदा हो गई और फिर कभी सत्ता में वापसी न कर सकी. हिंदू जनमानस समझ चुका था कि कांग्रेस ने आजादी के बाद से उसे धोखा ही दिया है. उधर, मुसलमान वोटर को मुलायम सिंह यादव के रूप में नया मसीहा मिल गया था. 1991 में अयोध्या में जब मुलायम सिंह यादव ने कार सेवकों पर गोली चलवाई और राम भक्तों का कत्ल-ए-आम हुआ, तो मुसलमानों के दिल में पूरी तरह से समाजवादी पार्टी बस गई. 1992 में बाबरी ढांचे के अवशेषों को कार सेवकों के सैलाब ने ध्वस्त कर डाला. उत्तर प्रदेश की राजनीति हिंदू-मुसलिम के बीच जातीय ध्रुवों में भी बंटने लगी. बहुजन समाज पार्टी के उभार ने कांग्रेस का दलित वोट बैंक छीन लिया.
अब जरा चुनाव परिणामों के नजरिये से समझिए कि राम मंदिर आंदोलन ने किस तरह से कांग्रेस का जनाधार उत्तर प्रदेश में लगभग शून्य पर ला दिया. 1952 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में 388 विधानसभा सीटों पर प्रचंड जीत मिली थी. 1967 और 1969 के चुनावों में सत्ता कांग्रेस और विपक्ष के बीच झूलती रही. 1985 के चुनाव में कांग्रेस को 269 सीटों के साथ उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत मिला था. लेकिन 1989 में कांग्रेस की सीटें 94 रह गई. 1991 में 46 और 1993 के चुनाव में 28 सीटों पर संतोष करना पड़ा. 2022 के चुनाव में कांग्रेस को महज 2 सीट मिली और उसका वोट प्रतिशत गिरकर 2.4 फीसद पर आ गया.
इसी तरह लोकसभा चुनाव में 1984 में कांग्रेस ने यूपी की 85 में से 83 सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन 1989 में उसकी सीटें घटकर 15 रह गई. 1998 में तो कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में खाता तक नहीं खुला. 2009 के चुनाव में काग्रेस ने 21 सीटें जीती. लेकिन 2014 में मोदी लहर में कांग्रेस की सीटें घटकर दो रह गई. उस चुनाव में राहुल गांधी अमेठी और सोनिया गांधी रायबरेली से जीती थीं. लेकिन 2019 के चुनाव में राहुल गांधी अमेठी भी गंवा बैठे और बस सोनिया गांधी ही रायबरेली की सीट बचा पाई.
कांग्रेस की इस हालत का जिम्मेदार एक और तथ्य है. 1974 के बाद से कांग्रेस के नेतृत्व ने ईमानदार, रीढ़ रखने वाले और जनाधार वाले नेताओं को किनारे करना शुरू कर दिया. दिल्ली में इंदिरा गांधी और उनके मुख्य सलाहकार संजय गांधी ने उत्तर प्रदेश समेत तमाम राज्यों में ये सुनिश्चित किया कि उनकी कठपुतली ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे. कांग्रेस के अंतिम मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह तक आते-आते कांग्रेस पूरे सूबे में पकड़ रखने वाले नेताओं से खाली हो चुकी थी. कुछ समय के लिए कांग्रेस का नेतृत्व नेहरू गांधी परिवार के हाथ से बाहर निकला. पी.वी. नरसिंह राव हो या सीताराम केसरी, इनके सिर पर नेहरू-गांधी परिवार के वफादारों की तलवार लटकती रही. आज हालत ये है कि नेहरू के समय से कांग्रेस से जुड़े रहे तमाम राजनीतिक रूप से प्रतिष्ठित परिवार व उनके मौजूदा नेता कांग्रेस छोड़ चुके हैं. ऐसे में कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी रायबरेली चुनाव लड़ने पहुंचे हैं, तो समझा जा सकता है कि उनके दिल में क्या डर है. यही संकट कांग्रेस के सामने है. वह उत्तर प्रदेश में शून्य होने के संकट से दो-चार है.
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में वापसी की कोशिश नही की. यूपी में अपना जनाधार बढ़ाने के लिए कांग्रेस ने ही मुलायम सिंह यादव को आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति मामले में फंसाया. आज जिस समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर कांग्रेस चुनाव लड़ रही है, उसके साथ सत्ता में रहते उसने वो किया, जो कभी धुर विरोधी भारतीय जनता पार्टी ने नहीं किया था. कांग्रेस नेता और वकील विश्वनाथ चतुर्वेदी ने 2005 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल करके आरोप लगाया कि मुलायम सिंह यादव और उनके परिवार ने साल 1999 से 2005 के बीच सौ करोड़ से अधिक की गैर कानूनी व बेनामी संपत्ति बनाई है. जाहिर है, ये याचिका प्रायोजित थी. केंद्र में कांग्रेस की सरकार के रहते ही 2007 में इस मामले में सीबीआई जांच के आदेश हुए. सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में ये तक हलफनामा दिया कि मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव और उनके परिवार की तकरीबन सवा दो करोड़ की संपत्ति के आय के स्रोतों का पता नहीं चल रहा है. मुलायम परिवार पर आपराधिक मामला दर्ज करने की तैयारी थी, लेकिन केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार अमेरिका के साथ नाभिकीय समझौते पर संकट में आ गई. 2008 में सीबीआई सुप्रीम कोर्ट में प्रार्थनापत्र दाखिल करती है कि केंद्र सरकार की सलाह पर वह ये मामला वापस लेना चाहती है. 2009 में सीबीआई फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच जाती है कि वह मुलायम सिंह यादव पर केस दर्ज करना चाहती है. असल में 2009 के चुनाव में सपा और कांग्रेस में सीटों के समझौते पर बात नहीं बनती. इसके बाद सीबीआई का रुख बदलता है. यह वही कांग्रेस है, जो आज भ्रष्टाचारियों के पकड़े जाने पर केंद्र की मोदी सरकार पर सीबीआई के बेजा इस्तेमाल का आरोप लगाती है. 2007 में ऐसी ही कोशिश सीबीआई के जरिये बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती के साथ की गई. उनके खिलाफ भी आय के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति के मामले को हथियार बनाया गया. कांग्रेस की मंशा ये थी कि मुलायम सिंह यादव और मायावती को वो अगर कमजोर करने में कामयाब हो गए, तो कांग्रेस जिंदा हो सकती है. 2009 के चुनाव में इसका असर नजर भी आया. लेकिन 2014 की मोदी लहर ने कांग्रेस के इन षडयंत्रों को विफल कर दिया. इसके बाद कभी राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जोड़ी यूपी के लड़कों के नाम पर बनाई गई. कभी प्रियंका गांधी वढेरा को लड़की हूं, लड़ सकती हूं के नारों के साथ भेजा गया. इतना ही नहीं, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का असंभव समझा जाने वाला गठबंधन भी हकीकत बना. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ की जोड़ी ने यूपी में सबको विफल कर डाला.
टिप्पणियाँ