कौन सुनेगा उमरकोट के हिंदुओं का दर्द!

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राजेश गोगना

उमरकोट, जिसे ऐतिहासिक रूप से अमरकोट के नाम से भी जाना जाता है, पाकिस्तान के सिंध प्रांत में स्थित है। यह नगर अपनी विशेष जनसांख्यिकी और ऐतिहासिक महत्व के लिए जाना जाता है। उमरकोट मुगल शासक अकबर के जन्मस्थान के लिए प्रसिद्ध है। 1947 में ब्रिटिश भारत के विभाजन से पहले उमरकोट में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक दुर्लभ सांप्रदायिक सद्भाव था। एक सह-अस्तित्व, जिसे विभाजन द्वारा गंभीर रूप से परखा गया था, लेकिन पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ था।

राजेश गोगना
महामंत्री, ह्यूमन राइट्स डिफेंस इंटरनेशनल

1965 और 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए युद्धों तक उमरकोट का सामाजिक ताना-बाना काफी हद तक उखड़ना शुरू नहीं हुआ था। 1965 तक वहां हिंदुओं की आबादी लगभग 80 प्रतिशत थी, जो ज्यादातर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ सद्भाव से रहते थे। भूमि-स्वामी हिंदू ठाकुरों ने इस संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने न केवल रोजगार प्रदान किया, बल्कि मजहब की परवाह किए बिना हर समुदाय कोशिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जैसी आवश्यक सेवाएं भी प्रदान कीं।
भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 और 1971 के युद्धों ने उमरकोट के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित किया।

संघर्ष और उसके बाद के राजनीतिक तनावों के कारण हिंदू ठाकुरों का भारत में बड़ी संख्या में पलायन हुआ। यह पलायन न केवल आबादी का नुकसान था, बल्कि एक सांस्कृतिक और आर्थिक बदलाव भी था, क्योंकि जो लोग चले गए, वे अपने साथ उमरकोट के सार और समृद्धि का एक हिस्सा ले गए। जो हिंदू बचे थे, वे मुख्य रूप से निम्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से थे, जो पलायन करने में असमर्थ थे और बदलते परिदृश्य में नई चुनौतियों का सामना कर रहे थे। पाकिस्तान की स्थापना से पहले और पाकिस्तान की स्थापना के बाद भी ज्यादातर हिंदू आबादी गांव में खेती करती थी और शहरों में दुकान लगाती थी। इस तरह से उमरकोट का लगभग सारा व्यापार हिंदुओं के हाथ में ही रहा, जिस कारण से उनकी स्थिति स्वाभाविक तौर पर पाकिस्तान के बाकी हिंदुओं की अपेक्षा काफी अच्छी रही।

पिछले 25-30 साल से उमरकोट का मंडी बंदोबस्त मार्केट कमेटी के हाथ में चला गया और माली बिरादरी, जो कि हमेशा से सब्जी मंडी को नियंत्रित करती थी, के हाथ से यह कारोबार पूरी तरह से निकल गया। इस परिवर्तन का हिंदुओं की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति पर काफी गंभीर असर पड़ा। अभी हाल में हुई जनगणना के दौरान पाया गया कि उमरकोट की 10,70,000 आबादी में से अभी भी 52 प्रतिशत के करीब हिंदू हैं। सदियों से एक हिंदू बहुल क्षेत्र होने के कारण उमरकोट की मंडी पर कुछ हद तक हिंदू आज भी प्रभावी हैं, लेकिन जहां तक सरकारी नौकरियों का सवाल है, वहां पर यह स्थिति हिंदुओं के लिए बिल्कुल ही दयनीय हो जाती है। इस समय उमरकोट टाउन कमेटी में कुल मिलाकर 209 कर्मचारी काम करते हैं, उनमें से हिंदुओं की संख्या केवल 82 है, और अधिकतर हिंदू केवल नालियों को साफ करने का काम ही करते हैं। उमरकोट के बाकी सरकारी दफ्तरों में भी हिंदू कर्मचारी या तो हैं ही नहीं, और अगर हैं तो उनका प्रतिशत बहुत ही कम है।

हिंदुओं को सरकारी नौकरी न मिलने का मुख्य कारण शिक्षा में उनकी भागीदारी न होना है। पाकिस्तान में वैसे भी शिक्षा की व्यवस्था काफी दयनीय है, लेकिन उमरकोट जैसे शहर में वह बहुत ही खराब स्थिति में है और इसका ज्यादातर नुकसान आर्थिक और सामाजिक तौर पर हाशिए पर जी रही हिंदू बिरादरी को भुगतना पड़ रहा है। उमरकोट शहर के ज्यादातर हिंदू दलित बिरादरी से आते हैं और यह तबका शिक्षा पाने का या शिक्षा पाने के बाद सरकारी नौकरी करने का ख्वाब भी नहीं देख सकता। हिंदू बहुल क्षेत्र होने के बावजूद उमरकोट संसद की 1 तथा विधानसभा की 3 सीटों से एक भी हिंदू चुनकर नहीं आता। राजनीतिक सत्ता के हिंदुओं के हाथ में न होने के कारण से सरकारी नीतियों में भी हिंदुओं के हितों को उपेक्षित किया जाता रहा है। पिछले 20 वर्ष में एक हिंदू बहुल जिले में एक भी हिंदू प्रतिनिधि किसी भी राजनीतिक पद पर नहीं चुना गया।

नीलम वालजी उमरकोट की एक दलित नेता हैं। उन्होंने 2018 में पाकिस्तानी संसद और राज्य एसेंबली का चुनाव लड़ा, लेकिन बुरी तरह हार गईं। उमरकोट में 5,70,000 मतदाता थे, लेकिन हिंदू बिरादरी के 9 उम्मीदवारों को केवल 17,000 मत ही मिले। कल्पना कीजिए, जनसंख्या हिंदुओं की 52 प्रतिशत और हिंदू उम्मीदवारों को मत मिले केवल 3 प्रतिशत। विभिन्न दलित बिरादरी जैसे कोली, भील तथा मेघवाल का सरकार में प्रतिनिधित्व तो है, लेकिन सामान्य सीटों पर 52 प्रतिशत हिंदू आबादी में से कभी भी कोई भी हिंदू चुनकर नहीं आता।

पाकिस्तान पीपल्स पार्टी उमरकोट में हमेशा से जीतती आई है। पाकिस्तान पीपल्स पार्टी ने 52 प्रतिशत हिंदू आबादी के क्षेत्र में कभी भी पाकिस्तानी संसद या स्टेट एसेंबली में किसी भी हिंदू को टिकट नहीं दिया और यह हिंदू बहुल क्षेत्र हमेशा से ही एक मुस्लिम द्वारा प्रतिनिधित्व प्राप्त करता है। पाकिस्तान के एकमात्र हिंदू बहुल जिले में हिंदुओं के पास बेहतर जिंदगी बिताने का कोई रास्ता नहीं था और उनकी इस अभिशप्तता का फायदा पाकिस्तान के चर्च ने बहुत ही चालाकी से उठाया। पाकिस्तान एक इस्लामिक देश है। इस कारण से ईसाई मिशनरी द्वारा पाकिस्तान में मुस्लिमों को ईसाइयत में कन्वर्ट नहीं किया जा सकता। ज्यादातर हिंदू दलित बिरादरी से आते हैं, जिन्हें पाकिस्तान में आम तौर पर ‘नापाक’ माना जाता है और इस्लाम में कन्वर्ट नहीं किया जाता।

इसका फायदा ईसाई मिशनरीज हमेशा से उठाती आ रही हैं। 19वीं शताब्दी के दूसरे दशक में पाकिस्तान के पंजाब में सफाई कार्य करने वाली दलित बिरादरी लगभग शत-प्रतिशत ईसाई बन गई थी। पाकिस्तान में ईसाई जनसंख्या जो कि पाकिस्तान की कुल जनसंख्या का लगभग 1.3 प्रतिशत है, लगभग शत-प्रतिशत सिर्फ 100 वर्ष पहले कन्वर्ट हुए दलित हिंदू ही हैं। पाकिस्तान में ईसाइयों द्वारा हिंदुओं को कन्वर्ट करने का व्यापार आज भी जोरों से चल रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले लगभग 5 वर्ष में उमरकोट के लगभग तीन गांव पूरी तरह से ईसाई बन चुके हैं। वे लोग देखने में तो हिंदू जैसे लगते हैं, लेकिन अब वे चर्च जाते हैं और यीशु मसीह की पूजा करते हैं।

उमरकोट की धार्मिक स्थिति कुल मिलाकर बाकी पाकिस्तान से बिल्कुल अलग है। वहां बहुत बड़े-बड़े मंदिर, पूजा करते हुए सैकड़ों हिंदू आपको हर जगह दिख जाएंगे, लेकिन यह स्थिति अब वैसी की वैसी नहीं रहने वाली है। जब उमरकोट के तीन गांव पूरी तरह से ईसाई बन चुके हैं, तो इसकी भी पूरी संभावना है कि 1920-30 के बीच पंजाब में हुआ कन्वर्जन, जिसमें दलितों की लगभग सारी आबादी ईसाइयत में चली गई थी, उमरकोट में दोहराया जा सकता है। अगर ऐसा कुछ हुआ तो उमरकोट की 52 प्रतिशत हिंदू आबादी कम तो होगी, लेकिन इसे कम करने में मुल्लाओं से ज्यादा ईसाइयों का हाथ होगा। इसे विडंबना ही कहेंगे कि दुनिया भर में जहां हिंदुत्व अपने आप को बहुत ही प्रखरता से स्थापित कर रहा है, अखंड भारत के दूसरे हिस्से में रहने वाले हिंदू अपने धर्म को बचाने की लड़ाई हारने के लिए अभिशप्त हैं।

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