संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के मंच से यह बताए हुए कि भारत में मुसलमानों का उत्पीड़न हो रहा है, अभी बहुत समय नहीं बीता है, इससे पहले यूएन के मानवाधिकार प्रमुख ने भारत को चेतावनी दी थी कि मोदी राज में भारत की “विभाजनकारी नीतियां” आर्थिक विकास को कमजोर कर सकती हैं। जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में अपनी वार्षिक रिपोर्ट में मिशेल बाचेलेट ने यहां तक कह दिया था, ”हमें ऐसी रिपोर्टें मिल रही हैं जो अल्पसंख्यकों – विशेष रूप से मुसलमानों…के उत्पीड़न और लक्ष्यीकरण में वृद्धि का संकेत देती हैं।”
अब यूएन के मुलसमानों को लेकर भारत को विशेष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को घेरने की बात हो या इसी तरह से अनेक रिपोर्टों के माध्यम से वाशिंगटन स्थित शोध समूह इंडिया हेट लैब, ह्यूमन राइट्स वॉच, एमनेस्टी इंटरनेशनल और इंटरनेशनल फेडरेशन फॉर ह्यूमन राइट्स सहित कई मानवाधिकार संगठनों की वे रिपोर्ट्स । वस्तुत: जो आज भारत को लक्षित करके तैयार की गई हैं और समान्यत: सभी में घुमा फिरा कर एक ही बात का जिक्र हुआ है और झूठे आंकड़ों के साथ यह बताने की कोशिश की गई है कि कैसे भारत में मुस्लिम प्रताड़ित हैं और यहां इस्लामवादियों के साथ निरंतर कितना अधिक भेदभाव किया जा रहा है ।
हिन्दू उत्थान रोकने के लिए वैश्विक स्तर पर इस्लाम-ईसाईयत का गठजोड़
वास्तव में इन सभी रिपोर्ट्स का गहराई से अध्ययन करने पर एक बात साफ नजर आती है कि विश्व में एक संगठित इस्लामिक गठजोड़ है, जिसे उच्च स्तर पर ईसाईयत का साथ मिला हुआ है और जो नहीं चाहती है कि दुनिया में हिन्दू सनातन शक्ति का भी अभ्युदय हो, हे न आश्चर्य की बात! वैसे दुनिया के सामने इस्लाम और ईसाईयत आपस में लड़ती हुई नजर आती है, किंतु हिन्दू उत्थान के मामले में दोनों ही एक मत हैं कि इसे किसी भी हाल में रोकना है! तभी तो ईसाई बहुल दुनिया का शक्तिशाली मीडिया ‘द वाशिंगटन पोस्ट’, ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’, सीएनएन, टाइम मैगजीन, ‘द गार्जियन’, बीबीसी, ले मोंड, ऑस्ट्रेलियन फाइनेंशियल रिव्यू समेत अन्य कई को आप देख-पढ़ सकते हैं जो लगातार मुलसमानों का मुद्दा उठाकर भारत को घेरने के काम में लगे हुए हैं और इन सभी के टार्गेट में हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ(आरएसएस)।
भारत में मुसलमानों ने बहुसंख्यक समाज को भी छोड़ दिया पीछे
दूसरी ओर इसकी हकीकत यह है कि भारत में स्वाधीनता के बाद से मुलसमानों की न सिर्फ आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ है बल्कि हिन्दुओं की तुलना में सतत बढ़ते क्रम में इनकी जनसंख्या में भी तेजी के साथ इजाफा हुआ है। यह आज सभी के लिए सोचनेवाली स्वभाविक बात होनी चाहिए कि यदि भारत की दूसरी सबसे बड़ी आबादी मुसलमानों के साथ अत्याचार हुए होते तो न इनका सामाजिक-आर्थिक विकास होता और न ही इनकी जनसंख्या में बहुत अधिक वृद्धि ही दर्ज होना संभव होता।
यह एक तथ्य है कि इसी अवधि में अखण्ड भारत के टूटने पर (14 अगस्त1947) के बाद अलग हुए पाकिस्तान और बाद में बने बांग्लादेश में हिन्दुओं की जनसंख्या में बहुत बड़ी गिरावट दर्ज की गई है और इसी अनुपात में भारत की संपूर्ण व्यवस्था में श्रम एवं पूंजी के स्तर पर मुस्लिमों की हिस्सेदारी लगातार बढ़ते क्रम में दर्ज की जा रही है। उस तुलना में हिंदुओं का हिस्सा संपूर्ण क्षेत्र न सिर्फ जनसंख्या के स्तर पर बल्कि संपत्ति के स्तर पर भी घटा है।
श्रम और पूंजी हिन्दू की और लाभ मुसलमान को
भारत में वर्तमान की स्थिति यह है कि श्रम एवं पूंजी बनाने के मामले में हिन्दू समाज जितनी मेहनत करता है, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा मुसलमानों को बिना कुछ किए मिल जाता है। वह भी पिछड़े होने एवं कमजोर आय वर्ग के नाम पर तमाम सरकारी योजनाओं के माध्यम से, जिसमें कि कुछ राज्यों ने तो पिछड़े वर्ग में से इनके लिए आरक्षण निकालकर देना भी आरंभ किया है। जिसे कि धर्म के आधार पर दिया जाना कहीं से भी संविधान सम्मत नहीं माना जाता है। फिर भी गरीबी और पिछड़ेपन का आधार लेकर इन्हें ये आरक्षण दिया जा रहा है।
आर्थिक कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के तहत इन्हें आरक्षण का लाभ अलग मिल रहा है। यानी ये आरक्षण का भी अधिकतम लाभ लेंगे और योजनाओं के लाभ लेने में भी सबसे आगे रहेंगे। जिसमें कि ये सभी देश के आर्थिक विकास में खासकर आयकर देकर इन्फ्रास्ट्रक्चर में अपना योगदान देने के मामले में सबसे पीछे की पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं। ऐसा नहीं है कि गरीब हिन्दुओं को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलता या वह सरकार से नहीं लेते, वह भी लेते हैं लेकिन ये सभी अन्य हिन्दुओं से प्राप्त आयकर के हिस्से में से ही अपने लिए आर्थिक लाभ लेते हुए सांख्यिकी में दिखाई देते हैं। जबकि मुसलमानों के साथ ऐसा बिल्कुल नहीं है।
भारत में बढ़ गई मुसलमानों की 43.15 फीसद आबादी
बहुसंख्यक हिन्दुओं पर देश के मुसलमानों का कितना दबाव है, इसका अंदाजा आप इन आंकड़ों से लगा सकते हैं। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने अपनी ताजा रिपोर्ट में खुलासा किया है कि भारत में 1950 से लेकर 2015 के बीच जनसांख्यिकी में आए बदलाव भयंकर हैं । इसमें किए गए अध्ययन के निष्कर्ष बताते हैं कि 1950 से लेकर 2015 के बीच, भारत में बहुसंख्यक आबादी में 7.82 प्रतिशत की उलेखनीय गिरावट आई है। पहले हिंदू 84.68 फीसदी थे और अब सिर्फ 78.06 प्रतिशत रह गए हैं। जबकि इसी अवधि के दौरान अल्पसंख्यकों की हिस्सेदारी में वृद्धि दर्ज की गई है।
रिपोर्ट बताती है कि 1950 में मुस्लिम आबादी का हिस्सा 9.84 प्रतिशत था और 2015 में बढ़कर 14.09 प्रतिशत हो गया। यानी भारत में 1950 से 2015 के बीच हिंदुओं की आबादी 7.82 फीसद घट गई। वहीं इसी बीच मुसलमानों की आबादी में 43.15 फीसद बढ़ोतरी दर्ज की गई, इसके बाद बीते नौ सालों में इनकी संख्या इसीअनुपात से लगातार बढ़ रही है । साथ ही पिछले 65 साल में हिंदू किसी के लिए खतरा नहीं बने, उलटा देश की जनसंख्या बढ़ने के बावजूद उनका प्रतिशत पहले के मुकाबले कम होता जा रहा है।
रिपोर्ट के अनुसार, इसी तरह ईसाई समुदाय भी 2.24 प्रतिशत से 2.36 प्रतिशत (5.38 प्रतिशत) तक पहुँचा है। सिखों की जनसंख्या में हिस्सेदारी भी 1.24 प्रतिशत से बढ़कर 1.85 प्रतिशत (6.58) हुई है। बौद्ध समुदाय भी 0.05 प्रतिशत से 0.81 प्रतिशत तक पहुँचा है। वहीं पारसी और जैनों में हिंदुओं की तरह आँकड़े में गिरते देखे गए हैं। जैनों की पहले जो संख्या 0.45 प्रतिशत थी वो अब 0.36 हो गई है और पारसियों की 0.03 प्रतिशत से गिरकर 0.004 तक आ गई। यानी इस अवधी में जितने अधिक बच्चे मुसलमानों ने पैदा किए वह किसी अन्य धर्म, मत, पंथ को माननेवालों ने नहीं पैदा किए। कुल मिलाकर संपूर्ण अध्ययन यही बता रहा कि जनसंख्या के मामले में यदि कोई मत, मजहब, रिलिजन फायदे में है तो वह है इस्लाम।
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हिन्दू अपने हिस्से के गरीबों के साथ ही मुसलमानों का भी भार उठा रहे
अब आप सहज ही विचार कर सकते हैं कि यदि मुसलमानों पर भारत में अत्याचार हो रहा होता तो क्या यह स्थिति बनती? यह भी एक तथ्य है कि हिन्दुओं की जनसंख्या बढ़ने की अपेक्षा अनुपात में कम होने के बाद भी हिन्दुओं का अपने देश भारत के लिए समर्पण देखते ही बनता है। देश के आर्थिक विकास में उनका योगदान उनके अनुपात के मुकाबले ज्यादा ही दिखाई देता है। वे अपने वर्ग के गरीबों का भार तो उठाते ही हैं, देश की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या मुसलमानों का भी भार उठाकर घूम रहे हैं। क्योंकि देश का सबसे बड़ा टैक्सपेयर इसी हिन्दू वर्ग से आता है। जिसके श्रम और पूंजी के बलबूते भारत इस 21वीं सदी में विकास की गाथा लिख रहा है।
सच पूछिए तो मुसलमानों ने अपनी आबादी बढ़ाई लेकिन उस अनुपात में अपनी योग्यता नहीं बढ़ाई, अब इसके लिए दोष दूसरे के ऊपर मढ़ देना चाहते हैं। अभी तक इनके उत्थान के नाम पर जितनी भी समितियां देश में बनी, उन्होंने इनके बीच शिक्षा की कमी का जिक्र बढ़-चढ़ कर किया है, किंतु कोई इनसे पूछे; क्या इनकी आधुनिक शिक्षा में देश का बहुसंख्यक हिन्दू समाज या सरकार कहीं बाधा बनी है? या ये स्वयं ही इस दिशा में बहुतायत में मदरसा शिक्षा से बाहर निकल कर पहल करना नहीं चाहते? यदि नहीं चाहते तो इसके लिए दूसरे कैसे जिम्मेदार हो सकते है?
हकीकत यही है कि आधुनिक भारत के विकास के लिए जिस ज्ञान और कौशल की आवश्यकता है, यदि उसमें यह पारंगत नहीं होते हो स्वभाविक है भारत के विकास का जिम्मा अन्य दूसरे नागरिकों पर आता है। ऐसे में वे देश को आगे ले जाने का तो कार्य करते ही हैं साथ ही वे एक देश के नागरिक के रूप में अपने अन्य उन नागरिकों का भार भी वहन करने के लिए मजबूर हो जाते हैं, जो अपना विकास किन्हीं भी कारणों से सही, किंतु जितना करना चाहिए, वह उतना नहीं कर पाए या करना नहीं चाहते हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसा एक परिवार में भाई कमाने लगे तो वह दूसरों की जिम्मेदारी स्वयं से लेता है और उसे आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सक्षम बनाने का प्रयास करता है, लेकिन जब कोई दूसरा भाई अपने ऐसे भाई की कद्र ही न करें या वह स्वयं से कुछ बनना ही नहीं चाहेगा तो एक समय के बाद वह भी उसे उसके हाल पर छोड़ देता है। फिर एक समय के बाद प्रत्येक व्यक्ति को अपनी और अपने परिवार की चिंता तो खुद से करनी ही होती है। देश भी तो एक परिवार है। हम यह क्यों नहीं सोचते?
भारतीय मुसलमानों के पास कितनी संपत्ति है? इसे लेकर अभी फिलहाल में कोई अध्ययन नहीं हुआ है, किंतु चार वर्ष पूर्व देश में विभिन्न मत, पंथ, धर्म को माननेवालों के पास कितनी संपत्ति है, इस पर कुछ डेटा आईसीएसएसआर से मान्यता प्राप्त अनुसंधान संस्थान, भारतीय दलित अध्ययन संस्थान (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ दलित स्टडीज-आईआईडीएस) द्वारा तैयार किया गया था। यह रिपोर्ट कितनी सही है अथवा नहीं यह एक विषय अलग से हो सकता है, लेकिन जो भी इस रिपोर्ट के निष्कर्ष अभी कुछ दिन पहले ही मीडिया में आए हैं, उसको भी गहराई से समझना होगा। रिपोर्ट के बताया गया हैं कि हिंदू उच्च जातियों के पास देश की कुल संपत्ति का लगभग 41 प्रतिशत हिस्सा मौजूद है, इसके बाद हिंदू ओबीसी (31 प्रतिशत) का स्थान है। मुसलमान, हिन्दू एससी और भारत के जनजाति समाज के पास क्रमशः 8 प्रतिशत, 7.3 प्रतिशत और 3.7 प्रतिशत संपत्ति है। शेष अन्य के पास है। अब आप इस आंकड़े का गहराई से अध्ययन कीजिए और इसे गहराई से समझने की कोशिश कीजिए, स्थिति बिल्कुल साफ हो जाएगी।
अरबों की संपत्ति के साथ सरकारी योजनाओं का भरपूर लाभ उठा रहे मुसलमान
ध्यान रहे, इस संपत्ति में उच्च जातियों के पास परंपरा से मिली संपत्ति बड़ी मात्रा में है और स्वयं से इस जन्म में अर्जित धन एवं संपदा भी शामिल है। इसमें देश के अधिकांश सभी बड़े उद्योगपति भी समाहित हैं । स्वभाविक है कि सबसे ज्यादा आयकर भी देश में यही बड़ी जातियां जमा करती हैं और इनके बीच से पैदा हुए बड़े उद्योगपति एवं इनकी तमाम कंपनियां राजस्व देकर भारत को आर्थिक शक्ति प्रदान करने का काम करती हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि मुसलमानों के पास अनुमानत: 28,707 अरब रुपये की संपत्ति है। हालांकि इस रिपोर्ट के तैयार होने और इसके मीडिया में आने के बीच के पांच सालों में मुसलमानों की संपत्ति के आंकड़े में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे शासन काल के दौरान एक बड़ा इजाफा होते देखा गया है, उस आंकड़े का जिक्र यहां नहीं है, फिर भी लगातार भारत की इस दूसरी सबसे बड़ी आबादी से प्रेम करनेवाले यही सिद्ध करने में लगे हुए हैं कि भारत में मुसलमान प्रताड़ित है! कमजोर है! उसे भारत का बहुसंख्यक हिन्दू समाज परेशान कर रहा है!
अभी भारत सरकार का जो बजट इस साल के लिए निर्धारित किया गया है वह व्यय 47 लाख 65 हजार 768 करोड़ रुपए का है। केंद्र सरकार की तरह ही प्रत्येक राज्य का अपना बजट है जोकि कई-कई लाख का है। उसकी योजनाएं अपने-अपने राज्य के हिसाब से संचाहित हो रही हैं। वहीं केंद्र से तमाम अपनी योजनाएं चल रही हैं। आज यह बड़ा प्रश्न है कि जिस अनुपात में विकास की योजनाएं देश में केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही हैं, क्या उस तरह से टैक्स कलेक्शन हो रहा है? कहने को रिटर्न फाइल करनेवालों की संख्या में लगातार वृद्धि दर्ज होते हुए देखी जा रही है। लेकिन वास्तविकता में सरकार के खाते में राशि जमा करनेवाले लोगों की संख्या कितनी है, यदि आप यह गुणा-भाग करते हैं तो यह संख्या भारत में दो प्रतिशत तक अधिकतम जाती है।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कुछ महीने पहले लोकसभा में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में यह डेटा प्रस्तुत कर बताया था, ‘‘लगभग 1-2 प्रतिशत भारतीय वास्तव में आयकर देते हैं और भारत के कुल कर संग्रह में 27 प्रतिशत का योगदान करते हैं’’। इसके साथ ही यह तथ्य भी ध्यान में लाया गया कि दुनिया के कुछ देशों के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो देश के विकास में आर्थिक रूप से आयकर देने में भारत के लोग कहां खड़े हुए हैं, साफ पता चल जाता है । संसद में निर्मला सीतारमण ने यह भी बताया था कि भारत की तुलना में चीन के लोग 10 प्रतिशत और उच्च आय वाले लोगों को 45 फीसदी इनकम टैक्स के तौर पर चुकाने होते हैं। अमेरिकन 43 प्रतिशत, ब्रिटेनवासी 59.7 प्रतिशत, जर्मनवासी 61.3 प्रतिशत और फ्रांस के नागरिक 78.3 प्रतिशत टैक्स देकर अपने देश के विकास में योगदान देते हैं । इतना ही नहीं, एशियाई देश जापान भले ही क्षेत्रफल के मामले में दुनिया के कई आर्थिक शक्तियों के मुकाबले छोटा नजर आता हो, लेकिन इस देश में जिस रफ्तार से विकास होता है, उसने कई मुल्कों के आगे उदाहरण पेश करने का काम किया है। जापान में लोगों को 55.95 फीसदी तक टैक्स के तौर पर चुकाने होते हैं। कहना होगा कि भारत की एक बड़ी आबादी मोटी कमाई करने के बावजूद कोई टैक्स नहीं चुका रही है । अब यह टैक्स नहीं चुकानेवाली जनसंख्या कौन सी है, यह विचारणीय है!
वक्फ बोर्ड के नाम पर संपत्तियों पर कब्जा कर इस्लामवादी उठा रहे बड़ा लाभ
इसमें एक बात जोड़ना भी जरूरी है कि देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वक्फ बोर्ड के नाम पर संपत्तियों पर कब्जा करते हुए भी मजे कर रही है, जो कि कई लाख करोड़ की कुल सम्पत्ति है। कहीं भी अपना वोर्ड लगाकर वक्फ बोर्ड अपनी संपत्ति होने का दावा ठोक देता है, अब सामनेवाला होता रहे परेशान । इन मुसलमानों की वक्फ संपत्तियों से मजे करने का अनुमान आप इससे लगा सकते हैं। दरअसल, सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता हरिशंकर जैन ने एक डेटा के साथ अपनी बात साझा की है । उनकी कही बात बहुत गौर करने लायक है। उन्होंने ध्यान दिलाया है, ‘‘वक्फ कानून 1995 की धारा-5 में कहा गया है कि सर्वेक्षण कर सारी वक्फ संपत्ति की पहचान कर ली गई है। इसके बावजूद दिनोंदिन वक्फ संपत्ति बढ़ रही है। 2009 में वक्फ बोर्ड के पास 4,00,000 एकड़ संपत्ति थी और 2020 में यह बढ़कर 8,00,000 एकड़ हो गई। देश में जमीन उतनी ही है, जितनी पहले थी। फिर वक्फ बोर्ड की जमीन कैसे बढ़ क रही है ?” फिर वे यह भी बताते हैं कि कैसे भारत की इस दूसरी सबसे बड़ी आबादी से जुड़े वक्फ बोर्ड ने ‘‘देश में जहां भी कब्रिस्तानों की चारदीवारी की गई, उसके आसपास की जमीन को उसमें शामिल कर लिया। इसी तरह अवैध मजारों और मस्जिदों को वैध करके वक्फ बोर्ड ने अपनी संपत्ति बढ़ा ली है।’’ कई सरकारी जमीनों पर वक्फ ने अपनी होने का दावा ठोक रखा है।
वक्फ के नाम पर मुस्लिम दे रहे धोखा
इतिहास में जाएं तो यह एक एतिहासिक सत्य है कि 1945 में ही बहुत लोगों को लगने लगा था कि अब पाकिस्तान बन कर रहेगा। जिसमें ‘मुस्लिम लीग’ पूरी तरह से आश्वस्त थी कि चाहे जो भी हो, वह मजहब के आधार पर भारत का विभाजन कराकर रहेगी और अपने लिए इस्लामिक आधार पर एक अलग देश लेकर भारत का विभाजन करा देने मे सफल हो जाएगी । इसलिए उस समय के अधिकतर मुस्लिम नवाबों और जमींदारों ने जो पाकिस्तान के पक्ष में थे, अपनी संपत्ति को सुरक्षित रखने के लिए एक चाल चली। इसके तहत हर जमींदार और नवाब ने अपनी संपत्ति का वक्फ बना दिया और भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गए। लेकिन किसे पता था कि भारत में उसके बाद भी बहुसंख्यक आबादी हिन्दुओं के साथ खेल हो जाएगा। जिन लोगों ने पाकिस्तान बनाने में जिन्ना और अली बन्धुओं जैसे तमाम लोगों का साथ दिया, होना तो यह चाहिए था कि उनकी इस पूरी संपत्ति को शत्रु संपत्ति घोषित किया जाता, लेकिन तत्कालीन तत्कालीन कांग्रेस की नेहरु सरकार ने ऐसा बिल्कुल नहीं किया बल्कि सरकार ने अपने पास न लेकर इस प्रकार की सभी संपत्तियों को वक्फ में मान्य करते हुए मुसलमानों को ही सौंप दिया!
बड़े पैमाने पर चल रहा भारत में योजनाबद्ध लैण्ड जिहाद
यह सभी जानते हैं कि बाद में लम्बे समय तक कांग्रेस की सरकार देश में रही और उसकी तुष्टीकरण की राजनीति के कारण इस तरह की सारी संपत्ति वक्फ बोर्ड के पास चली गईं। एक अनुमान के अनुसार 6-8 लाख वर्ग किलोमीटर जमीन वक्फ बोर्ड के पास गई थी । जबकि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत विभाजन के समय पाकिस्तान को 10,32,000 वर्ग किलोमीटर भूमि दी गई थी। यानी मुसलमानों ने पाकिस्तान देश के नाम पर भी जमीन ली और वक्फ के नाम पर भी लाखों वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया। यही नहीं, बाद में सरकारी और गैर-सरकारी जमीन पर भी मजार, मस्जिद और मदरसे बनाकर वक्फ की संपत्ति बढ़ाना इसने अब तक जारी रखा हुआ है। इसे कोई सामान्य षड्यंत्र नहीं बल्कि योजनाबद्ध लैण्ड जिहाद की संज्ञा दी जाएगी।
अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, ‘परनाना ने वक्फ ऐक्ट बनाया, दादी ने वक्फ ऐक्ट को मजबूत किया। पिता ने वक्फ ऐक्ट को और मजबूत किया। 1995 में पुराना कानून वापस और नया कानून। 2013 में वक्फ बोर्ड को असीमित शक्ति दी गईं। कांग्रेस ने भारत को बर्बाद करने के लिए 50 घटिया कानून बनाए हैं, जिनकी समाप्ति में ही देश हित है ।’ अपनी बात में उपाध्याय यह भी जोड़ते हैं कि धार्मिक संपत्तियों के विवादों का निर्धारण केवल देश के सिविल कोर्ट के जरिये करने के लिए दिशानिर्देश जारी करना चाहिए न कि वक्फ ट्रिब्यूनल के जरिये। लॉ कमीशन को सभी ट्रस्टों और चैरिटेबल संस्थाओं के लिए एक समान संहिता बनाने का दिशानिर्देश जारी करना चाहिए। वास्तव में यह मामला इतना महत्व का है कि केंद्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट को बताया है कि वक्फ अधिनियम, 1995 के प्रावधानों को चुनौती देने वाली लगभग 120 याचिकाएं देश भर की विभिन्न अदालतों के समक्ष लंबित हैं। अधिकांश में भारत के विधि आयोग को अनुच्छेद 14 और 15 की भावना में ‘ट्रस्ट-ट्रस्टी और चैरिटी-चैरिटेबल संस्थानों के लिए एक समान कानून’ का मसौदा तैयार करने के लिए कहा गया है।
2013 में सोनिया-मनमोहन सरकार ने वक्फ बोर्ड को अपार शक्तियां दीं
वक्फ कानून-1995 के कारण वक्फ बोर्ड बहुत ताकतवर बना है। कोई मुसलमान कहीं भी अवैध मजार या मस्जिद बना लेता है और एक अर्जी वक्फ बोर्ड में लगा देता है। बाकी काम वक्फ बोर्ड करता है। यही कारण है कि पूरे भारत में अवैध मस्जिदों और मजारों का निर्माण बेरोकटोक हो रहा है। वक्फ बोर्ड की मनमानी को कई अदालतों में चुनौती देने वाले सामाजिक कार्यकर्ता दिग्विजयनाथ तिवारी कहते हैं, ‘‘वक्फ बोर्ड का काम केवल जमीन पर कब्जा करने का रह गया है। यह बहुत ही खतरनाक है। वक्फ बोर्ड को मिले अधिकारों में कटौती करने की जरूरत है, नहीं तो इसका दुष्परिणाम गैर-मुसलमानों को भुगतना पड़ेगा।’’
दिग्विजयनाथ बताते हैं कि वक्फ बोर्ड द्वारा जमीन कब्जाने का षड्यंत्र 2013 के बाद तो और तेज हो गया है। 2013 में सोनिया-मनमोहन सरकार ने वक्फ बोर्ड को अपार शक्तियां दे दी थीं। सोनिया-मनमोहन सरकार ने वक्फ कानून-1995 में संशोधन कर उसे इतना घातक बना दिया कि वह किसी भी संपत्ति पर दावा करने लगा है। भारत में सशस्त्र बल और रेलवे के बाद वक्फ बोर्ड तीसरा सबसे बड़ा जमींदार है। वक्फ मैनेजमेंट सिस्टम ऑफ इंडिया के डेटा के अनुसार देश में वक्फ बोर्ड के पास फिलहाल 8 लाख 54 हजार 509 संपत्तियां हैं, जो कुल मिलाकर 8 लाख एकड़ से ज्यादा है।
पिछले साल सांसद हरनाथ सिंह ने वक्फ बोर्ड अधिनियम 1995 को खत्म करने के लिए एक निजी विधेयक संसद में पेश किया था । वे बताते हैं कि कैसे इस अधिनियम में असमानता फैली हुई है और इसकी आड़ में बड़े स्तर पर धर्मांतरण का खेल चल रहा है। हरनाथ सिंह ये दावा भी करते हैं कि उनके पास ऐसे कई केस आए हैं जिसमें वक्फ ने लोगों की संपत्तियों पर कब्जा कर लिया है। दो घटनाओं का जिक्र करते हुए वो बताते हैं कि तमिलनाडु प्रदेश के त्रिचि जिले के गांव में डेढ़ हजार आबादी है, उसमें कुल और मात्र सात-आठ घर मुस्लिमों के हैं और पड़ोस में ही एक भगवान शंकर जी का मंदिर है जो डेढ़ हजार साल पुराना है।
वक्फ बोर्ड ने उस गांव की पूरी संपत्ति पर अपना दावा ठोक दिया और सबको खाली करने का नोटिस कलेक्टर के यहां से पहुंचा दिया गया। कागजात से भी संपत्ति खारिज हो गई। इस गांव की अधिकतर आबादी गरीब है, ऐसे में जब इस गांव के हिन्दू लोग थक हार गए तो उन्हें एक ऑप्शन देते हुए मुस्लिम धर्म स्वीकार करने के लिए कहा गया। इस्लामवादियों ने सुझाव दिया गया कि अगर वो ऐसा कर लेंगे तब उनकी जमीन बच जायेगी।
वक्फ से पहले संपत्ति हड़पो फिर बनाओ धर्मांतरण का दबाव
इसी के साथ सांसद हरनाथ सिंह एक दूसरा उदाहरण भी देते हैं, जोकि महाराष्ट्र के सोलापुर जिले से जुड़ी है, जहां एक बस्ती में 250 के करीब हिन्दू अनुसूचित जाति वर्ग के लोग निवासरत हैं, उनके पास एक नोटिस उनकी जमीन को खाली करने का आया कि वो जहां रह रहे हैं वो वक्फ बोर्ड की जमीन है। वो दर-दर भटकते रहे, लेकिन कहीं उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही थी, तब उनको भी इस्लाम अपनाकर मुसलमान बन जाने का ऑफर दिया गया। अब आप समझ जाइए कि ये विषय जमीन हड़पने के साथ-साथ बड़े स्केल पर धर्मांतरण का भी है।
एक मामला अभी मध्यप्रदेश के भोपाल में सामने आया है। कहने को यह राजधानी केंद्र है लेकिन यहां खुले तौर पर इन इस्लामवादियों की दादागिरी हो रही है। वक्फ बोर्ड द्वारा बीच शहर में सरकारी एवं निजी सम्पत्ति पर जबरन कब्जा, नव बहार सब्जी मंडी की बिल्डिंग के पास कर लिया है। बोर्ड भी चस्पा कर दिया है। हद तो यह है कि यहां बने हिंदू अनाथालय की भूमि पर कब्जा करने की तैयारी की जा रही है। कुछ लोगों को प्रलोभन दिया जा रहा है और कुछ को डर दिखाया जा रहा है। वक्फ के नाम पर वसूली भी चालू कर दी गई है। ऐसे ही यहां मनोहर डेरी के सामने ईसराणी मार्केट से लगी हुई नगर निगम/ सरकारी 27000 स्कारफिट जमीन का प्रकरण भी सामने आया है। पुराने शहर के बीचों बीच अरबों रुपए की सरकारी जमीनों पर वक्फ बोर्ड जबरदस्ती कब्जा कर रहा है और शासन-प्रशासन फिलहाल तक चुप है। अब यदि संपूर्ण भारत में इस तरह के मामले आज आप निकालने बैठेंगे तो यह संख्या सैंकड़ों में और हजारों में जाएगी। तब आप समझ सकते हैं ये वक्फ भारत में कितना नुकसान पहुंचा रहा है और कैसे लैण्ड जिहाद को बढ़ा रहा है।
वक्फ बोर्डों को बेलगाम शक्तियां प्रदान करने पर रोक लगे
वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय का साफ कहना है कि वक्फ कानून देश का सबसे खतरनाक कानून है…..भारत सिर्फ कहने को सेक्युलर है। 1991 में स्पेशल पूजा स्थल अधिनियम बना। इसके तहत हिंदू, बौद्ध, सिख, जैन को कोर्ट जाने से रोक दिया गया। 1992 में माइनॉरिटी कमिशन एक्ट बना। इसके तहत हिंदुओं को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में बांट दिया गया। हिंदू बहुसंख्यक और जैन, बौद्ध, सिखों को अल्पसंख्यक बना दिया गया। 1995 में वक्फ एक्ट बनाया गया।
अश्विनी उपाध्याय कहते हैं कि हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों, सिखों और अन्य समुदायों के लिए वक्फ बोर्डों द्वारा जारी वक्फ की सूची में शामिल होने से उनकी संपत्तियों को बचाने के लिए कोई सुरक्षा नहीं है। इसलिए उनके साथ भेदभाव किया जाता है। यह संविधान के अनुच्छेद 14-15 का उल्लंघन करता है। उपाध्याय इसके अधिनियम एस 4, 5, 6, 7, 8, 9, 14 के अधिकार को चुनौती देते हुए बताते हैं कि इसके प्रावधान वक्फ संपत्तियों को ट्रस्ट, मठों, अखाड़ों, समितियों को समान दर्जा देने से वंचित करने के लिए विशेष दर्जा प्रदान करते हैं। साथ ही किसी भी संपत्ति को वक्फ संपत्ति के रूप में रजिस्टर्ड करने के लिए वक्फ बोर्डों को बेलगाम शक्तियां प्रदान करते हैं। जिसे हर हाल में रोका जाना जरूरी है। क्योंकि यही न्याय की मांग है।
विधि विशेषज्ञों का मानना है वक्फ कानून गलत
वक्फ कानून-1995 के अनुसार वक्फ बोर्ड किसी भी संपत्ति को वक्फ संपत्ति घोषित कर सकता है, चाहे वह अवैध ही क्यों न हो। भले ही इस कानून को संसद ने बनाया हो, पर विधि विशेषज्ञ इसे गलत मानते हैं। अब सर्वोच्च न्यायालय से इसे लेकर जब निर्णय आएगा तब आएगा लेकिन अभी तो वक्फ के नाम पर मुसलमान मजे कर ही रहे हैं। अब आप इस पर भी सोच सकते हैं कि ये जो जमीनों पर कब्जा करते जा रहे हैं और जहां चाहे वहां वक्फ का बोर्ड लगा दे रहे है, इस संपत्ति का आखिर उपयोग कौन करता है ? तो इसका स्वभाविक उत्तर है मुसलमान ही इस संपूर्ण वक्फ बोर्ड की संपत्तियों का उपयोग करते हैं । वहीं इससे आर्थिक लाभ लेकर मुसलमान समृद्ध हो रहा है, उस पर फिर वह किसी प्रकार का टैक्स भी सरकार को नहीं देता है ।
अंत में कहना यही है कि आप किसी भी साल का राज्य एवं केंद्र के लाभार्थियों की संख्या एवं उनके समुदाय की भागीदारी का आंकड़ा उठाकर देख लीजिए। उसमें आपको साफ पता चल जाता है कि सामान्य, पिछड़ा, अजा, अजजा, अन्य और मुसलमान में जनसंख्यात्मक अनुपात में सबसे अधिक लाभ यदि कोई उठा रहा है तो वे देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी मुसलमान (इस्लामवादी) हैं, जोकि अन्य लाभ तो छोड़िए कई राज्यों में बहुसंख्यक होने के बाद भी अल्पसंख्यक होने का भी पूरा फायदा उठा रहे हैं। उसके बाद भी देश भर में इसमें से कई लोग आपको चिल्लाते मिल जाएंगे कि भारत में इस्लाम खतरे में है।
आज यह गहराई से सोचनेवाली बात है, जनसंख्या बढ़ाए ये। भारत में जितना आतंकवाद है, उसमें अधिकतम भागीदारी इस समुदाय के लोगों की ही बार-बार सामने आए । गजबा-ए-हिंद ये बनाना चाहें। भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने के लिए जिहाद का रास्ता इनके बीच के लोग चुने। किसी का भी गला या उसे मौत के घाट यह कहकर उतार दें कि गुस्ताख ए रसूल की एक ही सजा, सर तन से जुदा, सर तन से जुदा। फिर भी यूएन से लेकर कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं और भारत में औवेसी जैसे लोग कहें कि ‘आज के भारत में मुसलमानों की स्थिति वैसी ही है जैसी स्थिति 1930 के दशक में हिटलर के दौर में यहूदियों ने देखी या अनुभव की थी। गैस चैंबर आखिरी पड़ाव था’ फिलहाल तो इन सब बातों के बीच यही पता चलता है कि बहुसंख्यक हिन्दू समाज के बीच मौज करते मुसलमानों का इस्लाम खतरे में है, ऐसा कहने से बड़ा कोई मजाक नहीं हो सकता है! उनकी बढ़ती जनसंख्या साफ बता रही है कि भारत के मुसलमान कई अन्य इस्लामिक देशों के मुकाबले बहुत अधिक लाभ में हैं। फिर भी यहां ये अपने को कमजोर, पीड़ित और दुखी इसलिए बताते हैं क्योंकि ये नैरेटिव उन्हें लाभ पहुंचाता है। हकीकत में चिंता तो बहुसंख्यक हिन्दुओं को अपने लिए करने की है। भविष्य में उनके लिए अपार चुनौतियां खड़ी हैं।
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