आजकल चुनावी मौसम की गहमागहमी इतनी ज्यादा है कि मार्च से ही गर्मी के रिकॉर्ड टूटने शुरू हो गए थे। हों भी क्यों ना, चुनावी खबर तपल पल की चाहिए सभी को। टिकट वितरण से लेकर परिणाम तक सब कुछ जानने को उत्सुक हैं लोग। मोबाइल पर एक टच से आपके सामने हर खबर, हर आंकड़ा आ जाता है। एक जमाना वह भी था, जब संचार माध्यम न के बराबर थे। यातायात के साधन भी अधिकांशत: बैलगाड़ी, ऊंटगाड़ी और साइकिल थीं। गिने-चुने देखने को मिलते थे। गाड़ी, ट्रक नहीं थे। जाहिर है, उस जमाने में चुनाव प्रचार का तरीका भी अनोखा रहा होगा। बीते जमाने के उस चुनाव प्रचार को जानने के लिए हमने 1952 और 1957 के चुनाव देख चुके कुछ वयोवृद्ध लोगों से बातचीत की।
कुड़िया सिंह टोकस दिल्ली स्थित मुनीरका गांव में रहते हैं। 89 बरस की उम्र हो चुकी है। हमने उनसे 1952 में पहले लोकसभा चुनाव के बारे में बात की। वे बताते हैं, ‘कि मुझे उस समय वोट डालने का अधिकार तो नहीं था, लेकिन उस समय का चुनावी माहौल खूब अच्छे-से याद है। आजादी के बाद देश में अलग तरह का उत्साह था। उत्सव जैसा माहौल लग रहा था। उम्मीदवार साइकिल पर आते थे। गांव के चौराहे पर, हर मोहल्ले में, गली—गली, हर घर पार्टी के लोग जाते और अपने निशान और झंडे लेकर वोट मांगते थे। तब एक ही मुद्दा था कि कांग्रेस ने आजादी दिलाई है, इन्हें जिताना है। मुद्दे में सिर्फ यही बात थी कि गांधी जी ने अंग्रेजों को भगाया है। उस समय न नौकरी की बात थी, न ही विकास की। उस समय कांग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र का जिक्र भी मैंने नहीं सुना था और न ही देखा।
पार्टी प्रचार में कपड़े का बना हुआ झंडा होता था। उस पर हाथ से स्याही से पार्टी का निशान और नाम लिखा होता था। मजेदार बात होती थी कि चुनाव के बाद बैनर और झंडे के कपड़े को धोकर उसे घर के काम में ले लेते थे। बच्चों में भी लोहे के बने बिल्लों (बैज) के लिए होड़ मचती थी। अलग-अलग दलों के उम्मीदवारों में विचारों की लड़ाई थी लेकिन व्यक्तिगत रूप से मिलने पर एक दूसरे का हाल-चाल पूछा जाता था। उस दौरान मतभेद थे लेकिन मनभेद नहीं थे।’
1957 में जनसंघ भी चुनाव मैदान में आ गया। पहली बार चुनावों का माहौल बनने लगा था। आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हुआ, लेकिन सभ्य भाषा में। भाषा में कड़वाहट नहीं थी। हालांकि जल्दी ही फर्जी वोटों का प्रचलन शुरू हो गया था
‘किसी पार्टी के कार्यकर्ता से कोई चूक हो जाती थी तो पार्टी उम्मीदवार दूसरी पार्टी के उम्मीदवार को बोल देता था कि हमारे कार्यकर्ता से ये चूक हुई है। पोलिंग बूथ पर दोनों पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए खाना अलग-अलग बनता था पर बाहर आकर दोनों पार्टियों के लोग मिलकर खाना खाते थे। यह सिलसिला कई चुनावों तक चलता रहा। हां, यह बात अलग है कि चुनावी खर्चा तब बहुत कम था। बैलगाड़ी, साइकिल या पैदल रैलियां निकाली जाती थीं और हाथ से लिखे हुए पोस्टर होते थे। सीमित गाड़ियों की इजाजत मिलती थी। आज जैसे पानी की तरह पैसा बहाया जाता है वैसा नहीं होता था।’
आगरा के 83 वर्षीय डॉ. एपी शर्मा बताते हैं, ‘मुझे एक वाकया याद है जब मैंने जोनल मजिस्ट्रेट के नाते प्रदेश के एक बड़े विपक्षी नेता की गाड़ी को शाम पांच बजे तक कोतवाली में रोका, क्योंकि उनकी गाड़ी पर चुनाव आयोग का स्वीकृति पत्र नहीं लगा हुआ था। उस समय वह अत्यावश्यक हुआ करता था। उच्च स्तर पर इस कार्य की सराहना भी हुई और उन नेताजी ने भी इस कार्रवाई का कोई विरोध नहीं किया। व्यक्तिगत रूप से पार्टी उम्मीदवारों को टारगेट नहीं किया जाता था केवल पार्टी के विचारों और मुद्दों की बात होती थी।’
पहाड़गंज की 84 वर्षीया श्रीमती कुसुम जैन बताती हैं ‘तब वोट डालने की जिज्ञासा तो होती थी, लेकिन जागरूकता कम ही थी। आज जागरूकता है पर उत्साह गायब हो गया है। महिलाएं सज-धजकर गीत गाते हुए वोट डालने जाती थीं। पार्टी के कुछ लोगों से तो इतना जुड़ाव हो जाता था कि उनके नाम गीतों में लिए जाते थे।’
गुड़गांव के 85 वर्षीय इब्राहिम खान सेना से सेवानिवृत्त हैं। वह बताते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम में जिन सेनानियों ने हिस्सा लिया था उनमें एक अलग ही किस्म का जोश देखने को मिलता था। अगर वे शारीरिक रूप से अक्षम थे तो उनके परिवार के लोग या पार्टियों के कार्यकर्ता उन्हें गोद में उठाकर या पीठ पर बिठा कर भी ले जाते थे। पार्टियां साइकिल, साइकिल रिक्शा और तांगों में बिठा कर मतदाताओं को बूथ तक ले जाने की व्यवस्था करती थीं। इन सबकी फोटो अखबारों में छपा करती थीं। लोग खूब चाव से इन किस्से-कहानियों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते थे।
उत्तर प्रदेश के अत्रदा गांव के रहने वाले डॉ. पन्नालाल अब दिल्ली में रहते हैं।
84 वर्षीय डॉ. पन्नालाल सागर बताते हैं, ‘गांवों में मतदान केंद्र काफी दूर हुआ करते थे। वहां ले जाने की व्यवस्था बैलगाड़ियों में होती थी। बाद में विली और मार्शल की जीपें आने लगी थीं। वोट मतपेटियों में डाते जाते थे। उन पेटियों की रक्षा करने के लिए पार्टियों के कार्यकर्ताओं की टीम पारियों में मतगणना केंद्रों के बाहर पहरेदारी किया करती थीं। मुझे वह दृश्य आज भी याद है जब हमारे गांव के सरपंच और उनसे हारा उम्मीदवार एक ही मोटरसाइकिल पर बैठकर दो अलग पार्टियों की मतपेटियों की सुरक्षा करने के लिए जिला मुख्यालय गए थे।’
नरेला के 83 वर्षीय सत्य प्रकाश गुप्ता बताते हैं कि तब आपस में खूब झड़पें होती थीं पर बाद में सब ठीक हो जाता था। लोगों में आपसी भाईचारा था। चने-मुरमुरे और आलू-पूरी टोकरियों में भरकर आते थे। फिर सभी आपस में बांटकर खाते थे। कुछ समय बाद सत्तारूढ़ दल व विपक्षी दलों द्वारा कार्यकर्ताओं को दिए जाने वाले भोजन में अंतर दिखने लगा था। लेकिन आपसी सद्भाव वैसा ही बना रहा, क्योंकि आखिर में वे होते तो एक दूसरे के पड़ोसी थे।
कनॉट प्लेस से 90 वर्षीय पद्म चंद जैन जी (जिन्होंने 5 मतदान गणना में अधिकारी की भूमिका निभाई) बताते हैं कि बैलेट पेपर की गिनती में लंबा समय लगता था। दो-दो दिन तक गिनती चलती रहती थी। दोबारा मतगणना की मांग बहुत आम बात थी। इसलिए परिणाम आने में काफी समय लग जाया करता था। जिÞला मुख्यालय या तहसील कार्यालय पर बोर्ड पर अंकित किया जाता था किसे कितने वोट और सीटें मिलीं। इसे देखने वालों का हुजूम उमड़ा रहता था।’ यादों में उतरकर पद्म जी बताते हैं, ‘मुझे खूब याद है कि जब यह सब देखकर कोई गांव लौटता था तब सभी इसकी जानकारी लेने उनके घर पहुंच जाते थे। वहां चाय-पानी का दौर चलता था। जीत के बाद ढोल-नगाड़े की थाप पर बच्चों की मंडलियां सबसे ज्यादा जोश में नाचती थीं, उन्हें मालूम भी नहीं होता था कि कौन जीता, कौन हारा।
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