एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर, जिनकी दो रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान बनीं। भारत का राष्ट्र-गान ‘जन गण मन’ और बाँग्लादेश का राष्ट्र गान ‘आमार सोनार बांङ्ला‘। रवींद्रनाथ टैगोर गुरुदेव के नाम से प्रसिद्ध थे। उन्होंने साहित्य कला के माध्यम से भारत की संस्कृति और सभ्यता को पश्चिमी देशों मे फैलाया। बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगदृष्टा वे ही थे।
महान विभूति रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर और माता शारदा देवी की तेरहवीं संतान के रूप में हुआ था। देवेंद्रनाथ टैगोर ब्रह्म समाज के नेता थे, जबकि दादा द्वारकानाथ टैगोर जमींदार और समाज सुधारक थे। छोटी आयु में ही माँ का निधन हो गया था। आठ वर्ष की उम्र में उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी, सोलह साल की उम्र में उन्होंने कहानियां और नाटक लिखना प्रारंभ कर दिया था।
1873 में उन्होंने अपने पिता के साथ कई महीने तक देश का भ्रमण किया। इस दौरान उन्होंने कई विषयों पर ज्ञान अर्जित किया। इनकी आरम्भिक शिक्षा प्रतिष्ठित सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उन्होंने बैरिस्टर बनने की इच्छा में 1878 में इंग्लैंड के ब्रिजटोन में पब्लिक स्कूल में नाम लिखवाया फिर लन्दन विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन किया। वहाँ शेक्सपियर के कई नाटकों का अध्ययन तथा अंग्रेजी, आयरिश और स्कॉटिश साहित्य और संगीत के मूल सिद्धांतों का अध्ययन करने के बाद 1880 में बिना डिग्री प्राप्त किए ही स्वदेश लौट आए। 22 वर्ष की आयु मे 9 दिसंबर, 1883 को मृणालिनी देवी से विवाह हुआ।
गुरुदेव ने अपने जीवन में एक हजार कविताएं, आठ उपन्यास, आठ कहानी संग्रह और विभिन्न विषयों पर अनेक लेख लिखे। इतना ही नहीं अपने जीवन में 2000 से अधिक गीतों की रचना भी की। इनके लिखे दो गीत तो भारत और बांग्लादेश के राष्ट्रगान हैं। टैगोर ने इतिहास, भाषाविज्ञान और आध्यात्मिकता से जुड़ी पुस्तकें भी लिखी थीं। टैगोर के यात्रावृन्त, निबंध, और व्याख्यान कई खंडों में संकलित किए गए थे, जिनमें यूरोप के जटरिर पत्रों (यूरोप से पत्र) और ‘मनुशर धर्म’ (मनुष्य का धर्म) शामिल थे। अल्बर्ट आइंस्टीन के साथ उनकी संक्षिप्त बातचीत, “वास्तविकता की प्रकृति पर नोट”, बाद के उत्तरार्धों के एक परिशिष्ट के रूप में सम्मिलित किया गया है। उनकी कुछ सबसे प्रसिद्ध लघु कथाएँ हैं – काबुलीवाला, खुदिता पासन, अटृटुजू, हेमंती और मुसलमानिर गोलपो।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1905 में बंगाल विभाजन के बाद बंगाल की जनता को एकजुट करने के लिए बांग्लार माटी बांग्लार जोल गीत लिखा था। उन्होंने जातिवाद के खिलाफ राखी उत्सव का प्रारंभ किया, उनसे प्रेरित होकर हिंदू और मुस्लिम समुदायों के लोगों ने एक-दूसरे की कलाई पर रंग-बिरंगे धागे बांधे।1910 में इनकी पारंपरिक बंगाली भाषा में सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रसिद्ध कविता गीतांजलि प्रकाशित हुई। इसमें प्रकृति, आध्यात्मिकता और जटिल मानवीय भावनाओं पर आधारित 157 कविताएँ शामिल थीं।
जीवन के 51 वर्षों तक उनकी सारी उपलब्धियां और सफलताएं केवल कोलकाता और उसके आसपास के क्षेत्र तक ही सीमित रही। 51 वर्ष की उम्र में वे अपने बेटे के साथ समुद्री मार्ग से इंग्लैंड जा रहे थे। समय काटने के लिए उन्होंने अपने कविता संग्रह गीतांजलि का नोटबुक में अपने हाथ से अंग्रेजी अनुवाद करना प्रारंभ किया। लंदन में जहाज से उतरते समय उनका पुत्र नोटबुक वाला सूटकेस वहीं भूल गया। इस ऐतिहासिक कृति की नियति में किसी बंद सूटकेस में लुप्त होना नहीं लिखा था। वह सूटकेस जिस व्यक्ति को मिला उसने स्वयं उस सूटकेस को रवींद्रनाथ टैगोर तक अगले ही दिन पहुंचा दिया। लंदन में टैगोर के अंग्रेज मित्र चित्रकार रोथेंस्टिन को जब यह पता चला कि गीतांजलि को स्वयं रवींद्रनाथ टैगोर ने अनुवादित किया है तो उन्होंने उसे पढ़ने की इच्छा जाहिर की।
गीतांजलि पढ़ते ही रोथेंस्टिन उस पर मुग्ध हो गए। उन्होंने अपने मित्र डब्ल्यू.बी. यीट्स को गीतांजलि के बारे में बताया और वहीं नोटबुक उन्हें भी पढ़ने के लिए दी। इसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। यीट्स ने स्वयं गीतांजलि के अंग्रेजी के मूल संस्करण की प्रस्तावना लिखी। सितंबर 1912 में गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद की कुछ सीमित प्रतियां इंडिया सोसायटी के सहयोग से प्रकाशित की गईं।
लंदन के साहित्यिक गलियारों में इस किताब की खूब सराहना हुई। जल्द ही गीतांजलि के शब्द माधुर्य ने संपूर्ण विश्व को सम्मोहित कर लिया। जिसके लिए 14 नवंबर, 1913 को इन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला। नोबेल पुरस्कार पाने वाले वे पहले एशियाई व्यक्ति बने। उन्हें प्यार से गुरुदेव, कविगुरु और विश्वकाबी उपनाम से संबोधित किया जाता है। इनके गीतों को रवींद्रसंगीत के नाम से जाना जाता है। 3 जून 1915 को इन्हें जॉर्ज पंचम ने नाइटहुड की पदवी से सम्मानित किया था जिसे 1919 में जलियाँवाला बाग हत्याकांड के विरोध में इन्होंने लौटा दिया।
1901 में टैगोर शांतिनिकेतन आश्रम चले गए, वहां उन्होंने उपनिषदों से पारंपरिक गुरु-शिष्य शिक्षण विधियों पर आधारित एक प्रायोगिक स्कूल की स्थापना की। उनका प्रकृति के साथ विशेष लगाव था इसलिए शान्तिनिकेतन में उन्होंने प्राकृतिक माहौल बनाया और सघन पेड़-पौधों के बीच पुस्तकालय का निर्माण कराया। 1921 में विश्वभारती विश्वविद्यालय की स्थापना की।
इनके जीवन के अंतिम चार साल कष्टदायी रहे। लंबे समय तक बीमारी से पीड़ित रहने के बाद 7 अगस्त 1941 को कोलकाता में उनका निधन हो गया।
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