रामनवमी के दिन अयोध्या में रामलला का भव्य-दिव्य सूर्य तिलक हुआ। इस पर कुछ तथाकथित विज्ञानियों ने लिखा कि आखिर धर्म विज्ञान की शरण में आ ही गया, विज्ञान के बिना धर्म नहीं रह सकता। इनकी अल्प बुद्धि में यह बात नहीं आ सकती कि आधुनिक विज्ञान का आधार भारतीय संस्कृति में ही है। वैसे भी धर्म और विज्ञान में कोई अंतर नहीं होता, क्योंकि दोनों का उद्देश्य सत्य की स्थापना करना होता है। भारतीय संस्कृति में धर्म चिरकाल से सत्य की स्थापना करता आ रहा है, चाहे वह भौतिक सत्य हो या आध्यात्मिक या कोई अन्य।
यदि हम भारत में बने प्राचीन मंदिरों का अवलोकन करें, तो पाएंगे कि आधुनिक भवन निर्माण प्रौद्योगिकी के आरंभ से हजारों वर्ष पूर्व हमारे मंदिर प्राचीन वास्तुशास्त्र के आधार पर बनाए गए थे। उनमें सूर्य तिलक की परंपरा देखी जा सकती है। देश में 7वीं से 13वीं शताब्दी के बीच निर्मित ऐसे अनेक मंदिर हैं, जहां वर्ष के विभिन्न दिनों में विविध मूर्तियों पर सूर्य अपनी किरणों से अभिषेक करते हैं। भारत से बाहर भी सूर्य द्वारा विग्रहों के अभिषेक की परंपरा अभी तक देखी जा सकती है, जो प्राचीन भारतीय संस्कृति के वैश्विक प्रसार का प्रमाण है। अयोध्या के राम मंदिर में प्रकाश के परावर्तन द्वारा सूर्य किरणों को गर्भ गृह में पहुंचाया गया। यह परंपरा और प्रकाश के परावर्तन का सिद्धांत वेदों से आरंभ होता है।
हिंदू संस्कृति में सूर्य
वैदिक संहिताओं में सूर्य के अनेक वैज्ञानिक गुणों के विवरण मिलते हैं, जैसे- सूर्य हृदय रोग और रक्त अल्पता के नाशक, आंखों के रक्षक, पाप को नष्ट करने वाले, वर्षा लेने के लिए उत्तरदायी, फसलों को पकाने वाले हैं और अपनी शक्तियों से समस्त सौरमंडल को बांधे रखते हैं। वही काल और ऋतुओं का निर्धारण करते हैं। इन सभी गुणों के कारण सूर्य को स्थावर और जंगम जगत की आत्मा कहा गया है।
चित्रं देवानामुद्गादनीकम् चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्ने:।
आप्रा द्यावा पृथिवी अंतरिक्षं सूर्यआत्माजगतस्तस्थुषश्च।। (ऋग्वेद 1.115.1)
अर्थात् प्रकाशमान रश्मियों का समूह या राशि देवगण, सूर्य मंडल के रूप में उदित हो रहे हैं। यह मित्र, वरुण, अग्नि और संपूर्ण विश्व के प्रकाशक ज्योतिर्मय नेत्र हैं। इन्होंने उदित होकर द्युलोक, पृथ्वी व अंतरिक्ष को अपने दैदीप्यमान तेज से सर्वत्र परिपूर्ण कर दिया है। इस मंडल में जो सूर्य हैं, वे अंतर्यामी होने के कारण सबके प्रेरक परमात्मा, जंगल एवं स्थावर सृष्टि की आत्मा हैं। सूर्य के अनेक नाम प्रचलित थे। उनकी पूजा के अनेक विधान भी मिलते हैं। भारत के अनेक भागों में ही नहीं, अपितु दूसरे देशों में भी सूर्य मंदिर की स्थापना और उपासना की पद्धतियां विकसित हुईं।
तरणिविश्वदर्शवो ज्योतिष्कृदसि सूर्य।
विश्वमा भासि रोचनम्।। (ऋग्वेद-1.50.4)
सायणाचार्य ने इस मंत्र पर टीका करते हुए सूर्य के प्रकाश की गति की गणना की है। उन्होंने लिखा कि ‘तथा च स्मर्यत योजनानां सहस्रम् द्वे द्वे शते द्वे च योजने। एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तु ते।’ अर्थात् सूर्य का प्रकाश आधी निमिष में 2202 योजन चलता है। विष्णु पुराण के अनुसार, आधी निमिष का मान 16/150 सेकंड होता है, जबकि एक योजन 9 मील के बराबर होता है। अत: सूर्य की किरणें एक सेकंड में 1,85,794 मील दूरी तय करती हैं, जो वर्तमान वैज्ञानिक मान 1,86,287 मील प्रति सेकंड के अति निकट है। सायण 14वीं सदी के विद्वान थे, जबकि प्रकाश की गति बताने वाले ओले रोमर 17वीं सदी के थे। यजुर्वेद के तैतरीय ब्राह्मण के टीकाकार भट्ट भास्कर, जिनका काल सायण से बहुत पहले का है, ने भी प्रकाश के वेग का मान यही निकाला था।
प्रकाश का परावर्तन
अत्राह॒ गोर॑मन्वत॒ नाम॒ त्वष्टु॑रपी॒च्य॑म्।
इ॒त्था च॒न्द्रम॑सो गृहे॥ (ऋग्वेद-1.84.15)
हमारे ऋषियों को यह मालूम था कि चंद्रमा का अपना प्रकाश नहीं होता है, वह सूर्य से प्रकाश लेता है और उसे परावर्तित करता है, जिससे वह चमकता हुआ दिखाई देता है। निरुक्त 2.6 में बताया गया है कि सूर्य की सुषुम्ना नामक किरण चंद्रमा को प्रकाशित करती है। अथर्ववेद 20.41.3 तथा सामवेद 1.147में भी ऐसा ही उल्लेख है । यजुर्वेद 18.40 के अनुसार, ‘सु॒षु॒म्ण: सूर्य॑रश्मिश्च॒न्द्रमा॑: गन्धर्व:।’ इसका स्वामी दयानंद सरस्वती ने भाष्य किया कि ‘‘हे मनुष्यो! जो (सूर्य्यरश्मि:) सूर्य की किरणों वाला (सुषुम्ण:) जिससे उत्तम सुख होता और (गन्धर्व:) जो सूर्य की किरणों को धारण किए है, वह (चन्द्र्रमा:) सब को आनंदयुक्त करने वाला चंद्रलोक है।
वैशेषिक दर्शन में महर्षि कणाद ने भी परावर्तन का विवरण दिया है। उनका एक सूत्र है- वक्रविलोमता परमाणुतया परिष्कृततया च प्रतिबिम्बतया विद्यमाना: तेजस: परावृत्तय:॥ अर्थात् जब प्रकाश की किरणें चिकने समतल तल पर पड़ती हैं, तो परावर्तित हो जाती हैं। जिस तल पर प्रकाश पड़ता है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। इसके अतिरिक्त, वराहमिहिर तथा वात्स्यायन ने भी प्रकाश के गुणों का विवरण दिया है।
मिस्र में आधुनिक 12 राशियों का उल्लेख तथा आकाश का विभाजन की जानकारी 600 ई.पू. से पहले नहीं मिलते हैं। बेबीलोन में भी नक्षत्रों की संख्या कुछ स्थानों पर 33 और कुछ स्थानों पर 36 दिखाई गई है। यानी उन्हें भी आकाश के विभाजन का ज्ञान 300 ईस्वी पूर्व तक नहीं था। चीनी सभ्यता में नक्षत्रों की संख्या 23 थी और 160 ई.पू. में वहां 28 की सूची मिलती है। सूर्य मार्ग को विभाजित करने की प्रवृत्ति 700 ई.पू. तक चीन में नहीं मिलती है। खगोलीय अध्ययन के क्षेत्र में यूनान का प्रवेश 7वीं सदी में हुआ। निकोलस कोपरनिकस ने 300 ई. और टॉल्मी ने 150 ई. पूर्व इसमें योगदान दिया।
अरबों ने ज्योतिष से संबंधित ज्ञान भारतीय, यूनानी और ईरानी स्रोतों से ग्रहण किया। उन्होंने छठी शताब्दी से इसमें रुचि लेना आरंभ किया। भारत में सूर्यपथ का विभाजन ऋग्वेद से ही ज्ञात है। इसमें अधिकमास संबंधित अवधारणा भी स्पष्ट रूप में मिलती है। वैदिक ज्योतिष में वैज्ञानिक आधार पर विकसित पंचांग पद्धति, चंद्रापथ का विभाजन (नक्षत्र पद्धति ) रवि पथ का विभाजन, अयन का ज्ञान, क्रांति वृत्त संबंधित ज्ञान, विषुवों (विषुव यानी ऐसा समय बिंदु जब दिन-रात लगभग समान होते हैं) का उल्लेख, ग्रहण और ग्रहों से संबंधित उल्लेखों आदि को देखते हुए स्पष्ट होता है कि वैदिक काल से ही ज्योतिष संबंधी भारतीय ज्ञान विकसित था। इनकी इतनी सटीक गणना उस समय कैसे की गई, यह कोई नही जानता।
मंदिर वास्तु का निर्माण
प्रकाश के गुणों तथा सूर्य की गति के आधार पर भारत में मंदिर वास्तु का निर्माण किया गया है। भारत में प्राचीन काल में मंदिरों के निर्माण में सूर्य की गति तथा स्थान के परिदृश्य (लैंड स्केप) का विशेष ध्यान रखा गया। प्रत्येक स्थान के अक्षांश और देशांतर के अध्ययन के बाद ही विशेष मंदिरों का निर्माण किया गया। वर्ष में 21 मार्च और 23 सितंबर को दिन-रात समान होते हैं, इस समय सूर्य की सीधी किरणें भूमध्य रेखा पर पड़ती हैं, जिसे विषुव कहते हैं। इसी तरह, 22 दिसंबर (दिन की तुलना में रात लंबी) और 21 जून (रात के मुकाबले दिन लंबा) को सूर्य के क्रमश: मकर तथा कर्क राशि में प्रवेश के विशेष दिनों को भी ध्यान में रखा जाता था।
इन दिनों में सूर्य क्रमश: उत्तरायण तथा दक्षिणायन होता है। यह गणना खगोल शास्त्र के पूर्ण ज्ञान के बिना संभव नहीं था। इससे स्पष्ट है कि हमारे पूर्वजों को खगोल शास्त्र का पूर्ण ज्ञान था। भारत में अनेक विशेष मंदिर इसी ज्ञान पर आधारित हैं, जहां वर्ष के विशेष दिनों में सूर्य की किरणें मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश करती हैं। भारत में कोणार्क (ओडिशा), गुजरात मोढेरा, कोबा जैन मंदिर, महाराष्ट्र का महालक्ष्मी मंदिर (कोल्हापुर), उन्नांव बालाजी सूर्य मंदिर (मध्य प्रदेश), कर्नाटक स्थित गंधेश्वर मंदिर आदि में सूर्य तिलक के सिद्धांत पर संरचनाएं निर्मित की गई हैं। भारत में वैदिक काल से लगातार इस विज्ञान का भरपूर प्रयोग हुआ।
अरसावल्ली सूर्य मंदिर : यह आंध्र प्रदेश में श्रीकाकुलम के पास अरसावल्ली गांव में स्थित है। इसका निर्माण 7वीं शताब्दी में कलिंग के पूर्वी गंग वंश के राजा देवेंद्र वर्मा ने करवाया था। इसमें भगवान सूर्य के साथ उनकी पत्नियां उषा और छाया की प्रतिमाएं भी हैं। साथ ही, पंच देवों की मूर्तियां भी स्थापित हैं। 21 मार्च और 23 सितंबर को प्रात: सूर्य की किरणें पांच द्वारों से होकर गुजरती हैं और भगवान सूर्य की प्रतिमा के चरणों को स्पर्श करती हैं।
श्री सूर्यनार कोविल मंदिर : यह सूर्य मंदिर तमिलनाडु के तंजावुर जिले में स्थित है। इसमें सूर्य विमान जैसे रथ पर विराजमान हैं और उनके बाईं ओर उषा तथा दाईं ओर छाया देवी हैं। मंदिर का शिखर 15.5 मीटर ऊंचा है और एक पहिए वाला रथ सात घोड़े खींच रहे हैं। यहां कुलोत्तुंग चोल के 1075 से 1120 के अभिलेख हैं यानी इस मंदिर को 11वीं सदी में बनाया गया था। यहां जनवरी-फरवरी में रथ उत्सव मनाया जाता है। इस समय तमिल मास थाई सूर्य के उत्तरायण होने का उत्सव होता है। रथ सप्तमी (माघ शुक्ल) के दिन सूर्य की किरणें सूर्य की मूर्ति के पांव पर गिरती हैं।
वेद नारायण स्वामी मंदिर : आंध्र प्रदेश के नागलपुरम स्थित इस मंदिर में भगवान विष्णु मत्स्य अवतार के रूप में विराजमान हैं। यहां 5 दिन सूर्य उत्सव मनाया जाता है। तीन दिन सूर्य की विशेष स्थिति होती है। पहले दिन सूर्य की करणें विग्रह के चरणों पर, दूसरे दिन नाभि तथा तीसरे दिन मुकुट पर पड़ती हैं। फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में यह उत्सव होता है। सूर्य की किरणें शाम के समय गोपुरम से गर्भ गृह में आती हैं। यह मंदिर प्राचीन भारतीय विज्ञान का अद्भुत उदाहरण है।
विद्या शंकर मंदिर : कर्नाटक के शृंगेरी में स्थित इस मंदिर का निर्माण 1338 में विद्यारण्य ने करवाया था। इन्हीं के प्रयास से विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई थी। मंदिर में 6 दरवाजे और 12 स्तंभ हैं। इसकी रचना इस प्रकार की गई है कि हर माह एक स्तंभ पर सूर्य की किरणें पड़ती हैं और अगले माह दूसरे स्तंभ पर। महत्वपूर्ण बात यह है कि सूर्य जिस राशि में होता है, उस राशि के स्तंभ पर ही किरणें पड़ती हैं। मंदिर के मुख्य देवता शिव हैं और शिवलिंग पर दोनों विषुव दिनों यानी 21 मार्च और 23 सितंबर को सूर्य की किरणें पड़ती हैं। यह सूर्य रथ आकार का मंदिर है।
अंकोरवाट का विष्णु मंदिर : कालांतर में भारतीय ज्योतिष एवं वास्तु ज्ञान विश्व के अनेक स्थानों तक पहुंचा। इसने विशेषकर दक्षिण-पूर्व एशिया को प्रभावित किया। वहां अनेक हिंदू मंदिरों का निर्माण हुआ, जिनका आधार विशुद्ध भारतीय वास्तु शास्त्र है। इन मंदिरों में भी सूर्य तिलक सिद्धांत को अपनाया गया, जिसका विशेष उदाहरण अंकोरवाट का मंदिर है। यह इस ढंग से बनाया गया है कि 21 मार्च तथा 23 सितंबर को मंदिर के तीन शिखरों में से मध्य शिखर के ठीक ऊपर सूर्य दिखाई देता है। यह मंदिर सूर्य वर्मन द्वितीय द्वारा 1113 से 1150 के बीच बनवाया गया था। बाद में इसे बौध मंदिर कहा जाने लगा।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय मंदिरों में सूर्य किरणों द्वारा मूर्तियों के अभिषेक की परंपरा अति प्राचीन है, जो वैदिक तथा उत्तर वैदिक काल के वैज्ञानिक ग्रंथों पर आधारित है। इस परंपरा में सूर्य ही नहीं, बल्कि विष्णु, लक्ष्मी और शिव आदि का भी किरणाभिषेक किया जाता रहा है। यह वैज्ञानिक परंपरा भारत तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि निकट के देशों में भी इसका अनुपालन किया गया और इस आधार पर मंदिरों का निर्माण किया गया।
(लेखक भारतीय इतिहास संकलन समिति, हरियाणा से संबद्ध हैं)
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