पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक आचार्य महाप्रभु श्री वल्लाभाचार्य का प्राकट्य भारत के धार्मिक व सांस्कृतिक इतिहास की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना है। मध्यकालीन भारत में जब यवनों के आक्रमणों से सनातन हिन्दू धर्म व वैदिक संस्कृति को चोट पहुंच रही थी, ऐसे संक्रमण काल में भारत की आम जनता में भगवत्-भक्ति की नव-चेतना जागृत करने के उद्देश्य से पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में (संवत १५३५ में वैशाख कृष्ण एकादशी की तिथि को) महाप्रभु वल्लाभाचार्य का प्रादुर्भाव हुआ था। भागवत भक्ति के प्रखर प्रवक्ता तथा वैष्णव धर्म की कृष्णभक्ति धारा को गहन विशिष्टता प्रदान करने वाले महान आचार्य वल्लभ ने अपनी अप्रतिम विद्वता, दार्शनिक चिंतन और साधना-प्रणाली से धर्म परायण भारतीय जनमानस को बहुत गहराई से प्रभावित किया है। बद्रीनाथ से रामेश्वरम् और द्वारका से जगन्नाथपुरी तक तीन बार समूचे भारत की पदयात्रा कर हजारों व्यक्तियों के जीवन में स्वधर्म का स्वाभिमान और आत्मबल जगाया।
दिव्य शिशु का अद्भुत जन्म
आन्ध्रप्रदेश के काँकरवाड़ स्थान के रहने वाले आचार्य वल्लभ के पूर्वज विष्णुस्वामी संप्रदाय के अनुयायी और गोपाल कृष्ण के उपासक थे। गोपाल मंत्र उनका दीक्षामंत्र था। उस परम धार्मिक परिवार में कई पीढ़ियों से वैदिक सोमयज्ञ की परम्परा चली आ रही थी। कहा जाता है कि आचार्य वल्लभ के पूर्वज यज्ञ नारायण भट्ट को स्वप्न में भगवान् का यह वरदान मिला था कि सौ सोम यज्ञ पूर्ण होने पर वे उनके परिवार में अवतरित होंगे। इस स्वप्न के फलस्वरूप उस परिवार में पाँच पीढ़ियों तक सोमयज्ञों की परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रही। पाँचवीं पीढ़ी में जन्मे लक्ष्मण भट्ट भी अपने पूर्वजों के समान उद्भट विद्वान् बने। उनका विवाह विजयनगर के राज पुरोहित सुधर्मा की पुत्री इल्लम्मागारू के साथ हुआ। आचार्य वल्लभ के जन्म से पूर्व इस दम्पती के रामकृष्ण नामक पुत्र और सरस्वती तथा सुभद्रा नाम की दो पुत्रियाँ हुईं। तब तक लक्ष्मणभट्ट के पांच सोमयज्ञों के पूर्ण होने के साथ वंश का सौ सोमयज्ञ का संकल्प पूरा हो चुका था। श्री लक्ष्मणभट्ट शत सोमयज्ञ संपन्न कर बृहद ब्रह्मभोज का संकल्प ले दक्षिण से उत्तर में काशी आये। लक्ष्मणभट्ट व उनकी विदुषी पत्नी का इस बात से अत्यधिक आह्लादित था कि अब उनके परिवार में भगवान् का प्राकट्य होगा। इसी आस में लक्ष्मणभट्ट गर्भवती पत्नी के साथ काशी में हनुमान घाट पर एक किराये के मकान में रहकर अध्ययन-अध्यापन और शास्त्र चर्चा में समय व्यतीत करने लगे। उसी दौरान बाह्य आक्रांताओं के आक्रमण के कारण लोग जान बचाकर काशी छोड़कर भागने लगे। लक्ष्मण भट्ट भी पत्नी इल्लम्मागारू के साथ अपने मूल स्थान आन्ध्र की और वापस चल दिये। उस समय इल्लम्मागारू को सात मास का गर्भ था। उनकी स्थिति प्रवास के लायक नहीं थी किन्तु काशी छोड़ना जरूरी था, इसलिए वे पति के साथ लम्बे प्रवास पर निकल पड़ीं।
उस लम्बी और अत्यंत कष्टप्रद यात्रा के दौरान मध्यप्रदेश के (वर्तमान छत्तीसगढ़) रायपुर के पास चम्पारण्य नामक स्थान पर संवत 1535 वैशाख कृष्ण की वरूथिनी एकादशी के दिन रात्रि में इल्लम्मागारू को समय से पूर्व प्रसव हो गया। वह नवजात शिशु न ही रोया और न उसमें किसी प्रकार की चेष्टा दिखी, इसलिए लक्ष्मण भट्ट उस बालक को मृत मानकर वस्त्र में लपेटकर एक शमी वृक्ष के कोटर में रखकर पत्नी के साथ वहां से आगे बढ़ गये। सौ सोमयज्ञ का फल मृत शिशु! अत्यन्त दुःखी पति-पत्नी उस जंगल से बाहर आकर निकट के गांव में जाकर विश्राम करने लगे। लक्ष्मण भट्ट को अचानक झपकी लग गयी। स्वप्न में भगवान् कह रहे थे-‘जिस नवजात शिशु को आप मृत जानकर छोड कर आये हैं उसके रूप में मै स्वयं ही तुम्हारे घर पधारा हूँ। लक्ष्मण भट्ट तत्काल चौंक कर जग गये और प्रभात होते होते पति पत्नी उसी वृक्ष के पास पहुँचे। वृक्ष के चारों ओर एक घेरे में अग्नि प्रज्वलित थी और वृक्ष के कोटर में शिशु मुस्कुरा रहा था। पुत्र को सकुशल देख माता पिता के नेत्रों में हर्ष के आँसू छलक आये। लक्ष्मण भट्ट और इल्लम्मागारू ने नामकरण संस्कार के बाद अपने इस दिव्य शिशु का नाम वल्लभ रखा।
भारतीय दर्शन को समन्यव्यात्मक दृष्टि प्रदान करने वाले मनीषी
तीक्ष्ण बुद्धि के मेधावी बालक वल्लभ ने मात्र तीन वर्ष की अल्पायु में व्याकरण, साहित्य, न्याय, वेद-वेदांत, पूर्वमीमांसा, योग, सांख्य, आगम-शास्त्र, गीता, भागवत, पंचरात्र, शंकर-रामानुज-मध्व-निम्बार्क आदि आचार्यों के मतों समेत विभिन्न दर्शनों समेत जैन-बौद्ध आदि के सिद्धांतों का भी पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया था। यद्यपि आचार्य वल्लभ के पिता लक्ष्मण भट्ट स्वयं उच्चकोटि के विद्वान् थे किन्तु उन्होंने आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार के बाद उन्हें काशी के आचार्य विष्णुचित्त के पास विद्यार्जन के लिए भेजा। देखते ही देखते उनके पांडित्य की कीर्ति चारों दिशाओं में फैल गयी। इसी बीच दुर्योग से पिता के देहांत के बाद काशी छोड़ श्रीवल्लभ माँ के साथ दक्षिण भारत (पैतृक गृह) की यात्रा पर निकल पड़े; क्यूंकि उस समय उत्तर भारत में अधिकतर राज्यों में मुस्लिम शासकों का शासन था। दूसरे श्रीवल्लभ की प्रबल इच्छा दक्षिण भारत के शंकर, रामानुज, भास्कर, निम्बार्क, मध्व आदि महान आचार्यों की महत्त्वपूर्ण पीठों पर जाकर भारतीय दर्शन के विभिन्न मतों के विद्वानों से शास्त्रार्थ कर भारतीय दार्शनिक चिंतन को एक समन्यव्यात्मक दृष्टि प्रदान करने की थी।
दो दुर्लभ प्रसंग; जिन्होंने आचार्य को महाप्रभु वल्लभाचार्य बनाया
आचार्य वल्लभ के जीवन के दो प्रसंग विशेष उल्लेखनीय हैं जिनके कारण सम्पूर्ण भारत में उनकी कीर्ति महाप्रभु वल्लभाचार्य के रूप में फैल गयी। एक प्रसंग जगन्नाथपुरी का है। जब श्री वल्लभ भगवान जगन्नाथ के दर्शनों के लिये जगन्नाथपुरी गये तो वहाँ एक विशाल धर्मसभा जुड़ी हुई थी, जिसमें विभिन्न दार्शनिक-धार्मिक सम्प्रदायों के विद्वान् सम्मिलित थे। वहाँ के राजा की उपस्थिति में उस धर्मसभा की चर्चा चार प्रश्नों पर केन्द्रित थी- 1. मुख्य शास्त्र कौन-सा है? 2. मुख्य देव कौन है? 3. मुख्य मंत्र क्या है? और 4. मुख्य कर्म क्या है? उपस्थित विद्वान् अपने-अपने मत प्रस्तुत कर रहे थे किन्तु कोई सर्वमान्य समाधान प्रस्तुत नहीं हो पा रहा था। अनिर्णय की स्थिति में उस धर्मसभा को विसर्जित होता देख आचार्य वल्लभ ने राजा की अनुमति से उस सभा के समक्ष उक्त चारो प्रश्नों पर अपने विचार प्रस्तुत करते हुए -1. भगवान् श्रीकृष्ण की श्रीमद्भगवद्गीता मुख्य शास्त्र है। 2. श्रीकृष्ण मुख्य देव हैं। 3. श्रीकृष्ण नाम ही मुख्य मंत्र है। 4. श्री कृष्णसेवा ही मुख्यकर्म है। अधिकांश विद्वान उनके निष्कर्ष से सहमत हो गये किन्तु कुछ अंहकारी महापंडित इस निष्कर्ष के प्रमाण मांगने लगे। कहते हैं कि प्रमाण के लिए कागज-कलम व दवात जगन्नाथ स्वामी के सामने रखकर मंदिर के द्वार बन्द कर दिये गये। थोड़ी देर के बाद जब पट खोले गये तो कागज पर अंकित श्लोक ने आचार्य वल्लभ के निष्कर्ष को प्रमाणित कर दिया। उस कागज पर यह श्लोक अंकित था –
एकं शास्त्रं देवकी पुत्रगीतम, एको देवो देवकीपुत्र एव।
मंत्रोप्येकस्तस्य नामनि यानि, कर्माप्येक तस्य देवस्य सेवा॥
श्री वल्लभाचार्य ने इस श्लोक को अपने ‘शास्त्रार्थ प्रकरण’ नामक ग्रन्थ में भी उद्धृत किया है। आपने भी लिखा है कि भगवान् श्रीहरि ने सन्देह की निवृत्ति के लिए स्वयं ही ये उद्गार व्यक्त किये हैं।
दूसरा प्रसंग उस समय के सुप्रसिद्ध हिन्दू साम्राज्य विजयनगर का है। श्रीवल्लभ जब विजयनगर पहुँचे तो राजा कृष्णदेवराय के दरबार में दक्षिण भारत के अनेक दिग्गज विद्वानों की धर्मसभा चल रही थी। विषय था कि सभी शास्त्रों, मुख्यतः प्रस्थानत्रयी-वेद, व्यासकृत ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवतद्गीता के प्रतिपाद्य सिद्धान्त तथा ब्रह्म और जगत का क्या संबंध है? शास्त्रार्थ में दो पक्ष थे- एक ओर द्वैतवादी मध्वाचार्य के अनुयायी तथा अन्य वैष्णव समप्रदाय थे तथा दूसरी ओर अद्वैतवादी शंकराचार्य के अनुयायी थे। अध्यक्ष एवं निर्णायक थे विद्वान आचार्य विद्यातीर्थ। उस सभा में द्वैतमतावलम्बी हार रहे थे और अद्वैतवादियों का पलड़ा भारी होता जा रहा था। यह देख राजाज्ञा से शास्त्रार्थ में प्रवेश लेकर श्री वल्लभ ने वेद, ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भवतद्गीता के आधार पर सभी प्रतिपक्षी विद्वानों को अपने अकाट्य तर्कों से निरुत्तर कर दिया। विजयनगर के राजा श्री वल्लभ के इस अगाध पांडित्य से अति प्रभावित हुए और उनका ‘कनक अभिषेक’ कर उनको ‘महाप्रभु श्रीमद् आचार्य’ की उपाधि से विभूषित किया।
‘श्रीकृष्ण शरणम मम’ महामंत्र के प्रदाता
‘श्रीकृष्ण शरणम मम’ महामंत्र के प्रदाता आचार्य वल्लभ ने कृष्णभक्ति को दिग्-दिगन्त में प्रसारित करने के लिए श्री वल्लभाचार्य ने बदरीकाश्रम से जगन्नाथपुरी, उत्तर दक्षित, पूर्व-पश्चिम तक पूरे भारत की यात्रा की और चौरासी पीठ स्थापित किए। कई स्थलों पर विद्वानों को शास्त्रार्थ में परास्त कर चारों दिशाओं में अपने पांडित्य को स्थापित किया। उनकी इस धर्म दिग्विजय-यात्रा ने भक्ति का एक नये मार्ग ‘पुष्टिमार्ग’ का प्रतिपादित किया। श्रीवल्लभाचार्य को ब्रजक्षेत्र बहुत प्रिय था। उनके साथ उनके सैकड़ों वैष्णव अनुयायी भी ब्रजयात्रा के लिए लालायित रहते थे, किन्तु उस मुगल दिनों शासनकाल में हिन्दू श्रद्धालुओं को तीर्थयात्रा की सहज अनुमति नहीं थी। उस समय प्रतिबन्धों के कारण हिन्दू शवदाह के संदर्भ में न तो यमुनातट पर शवदाह के पूर्व क्षौरकर्म करवा सकते थे और शवदाह के उपरान्त में सामूहिक रूप से यमुना -स्नान ही कर सकते थे। इतना ही नहीं मथुरा के स्थानीय अधिकारी छल-बल से धर्म-परिवर्तन भी करवाते थे। श्रीवल्लभाचार्य ने इस अन्याय के विरुद्ध प्रखर आवाज उठाकर ब्रज यात्रा से अनावश्यक प्रतिबंध हटवाये। इससे हिन्दू जनता में आत्मबल का संचार हुआ और धर्मजागरण और भागवत-क्रान्ति का अभूतपूर्व वातावरण बना।
देवाज्ञा से दांपत्य सूत्र में बंधे
अपना सम्पूर्ण जीवन धर्म-संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए समर्पित करने का संकल्प लेने वाले आचार्य वल्लभ की माँ का लगातार आग्रह रहता था कि वे विवाह कर ले किन्तु विवाह को अपने जीवन लक्ष्य की पूर्ति में बाधक समझ कर वे इससे बचते रहते थे। इसी बीच तीर्थयात्रा करते हुए वे पंढरपुर पहुंचे। वहाँ विठोबा-रुकमाई के साथ दर्शन किये। उसी रात्रि स्वप्न में श्री विठोबा ने उन्हें दर्शन देकर कहा- आप एक महान धर्माचार्य बनेंगे किन्तु संन्यासी होने की बजाय आप गृहस्थ बनकर धर्म-प्रचार करें। इसे भगवान् का आदेश मानकर श्रीवल्लभ ने द्वितीय भारत भ्रमण से काशी लौटने पर देवन भट्ट की पुत्री महालक्ष्मी से विवाह कर लिया। इनके दो पुत्र गोपीनाथ व विल्वनाथ हुए जिन्होंने पिता द्वारा प्रणीत पुष्टिमार्ग में दीक्षित होकर भागवत धर्म का प्रचार किया।
टिप्पणियाँ