‘साहब ईमानदार से कामदार होने के बाद नामदार हो गए। संकटमोचक की जगह संकटकारक बन गए।’ यहां चर्चा हो रही है बिहार कैडर के 1990 बैच के आईएएस अधिकारी और शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव (एसीएस) केके पाठक की, जो अपने अड़ियल और अलोकतांत्रिक रुख, गैर-जरूरी हस्तक्षेप और तुगलकी फरमानों की वजह से पिछले दस महीनों से सुर्खियों में हैं। पाठक की कार्यशैली और उनके खिलाफ कार्रवाई का मामला मुख्यमंत्री सचिवालय, राजभवन, विधानमंडल के बाद अब केंद्र सरकार के कैबिनेट सचिव तक पहुंच गया है। बीते दिनों स्कूलों की समय सारिणी को लेकर पाठक की जिद के चलते सदन में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी फजीहत झेलनी पड़ी थी।
सूबे की बदहाल शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त कर पटरी पर लाने के उद्देश्य से केके पाठक को अपर मुख्य सचिव के पद पर नियुक्त किया गया था। पिछले वर्ष जून में उनके पदभार संभालने के बाद उम्मीद की किरण भी जगी, लेकिन कुछ दिनों के बाद ही उनके काम करने के तौर-तरीकों से लगने लगा कि शिक्षा में सुधार की जगह शिक्षा का बंटाधार हो रहा है।
आलम यह है कि कड़ाके की सर्दी में स्कूलों को बंद रखने का जिलाधिकारी का आदेश मानने से इनकार करने वाले पाठक आज शिक्षक-छात्र से लेकर जन प्रतिनिधियों तक की आंखों की किरकिरी बन चुके हैं। एक ओर राजभवन और शिक्षा विभाग के बीच अधिकार क्षेत्र को लेकर जारी टकराव थमने का नाम नहीं ले रहा है, तो दूसरी ओर शिक्षा विभाग के आदेश से सरकारी शिक्षण संस्थानों का वित्तीय संकट गहराता जा रहा है। पाठक की अजीबोगरीब कार्यशैली से विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की स्थिति पूरी तरह से चरमरा गई है।
नाक के नीचे भ्रष्टाचार
ताजा मामला बिहार के विश्वविद्यालयों के बैंक खाते फ्रीज किए जाने का है। इसके चलते तीन महीने से 3,500 प्राध्यापक, 2,800 शिक्षकेत्तर कर्मचारी, 3,000 से अधिक सेवानिवृत्त प्राध्यापक, 1,400 अतिथि प्राध्यापक और 2,500 संविदा कर्मचारियों का वेतन और पेंशन बंद है। उनके दैनिक कार्यों पर भी गंभीर संकट खड़ा हो गया है। इसका सीधा असर छात्रों के पठन-पाठन पर पड़ा है।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री याज्ञवल्क्य शुक्ल के अनुसार, पाठक का अड़ियल रवैया 26 लाख विद्यार्थियों का भविष्य बिगाड़ रहा है। विश्वविद्यालयों के निर्णयों में उनकी अनावश्यक दखलंदाजी से अकादमिक और प्रशासनिक संकट पैदा हो गया है। बैंक खातों पर रोक से उत्पन्न वित्तीय संकट के कारण पहले से तय परीक्षाएं स्थगित हो गई हैं। विश्वविद्यालयों और उससे संबद्ध महाविद्यालयों की शैक्षणिक गतिविधियों, शैक्षणिक सत्रों, परीक्षा कार्यों एवं प्रशासनिक कार्यों पर प्रतिकूल असर दिख रहा है।
शिक्षा विभाग के मातहत आने वाले जिला शिक्षा कार्यालय भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुके हैं। केंद्र सरकार समग्र शिक्षा अभियान के तहत हर साल सरकारी स्कूलों को विकास के लिए अनुदान देती है। इस राशि से स्कूलों की रंगाई-पुताई, बेंच-डेस्क की मरम्मत और पंखे-स्टेशनरी की खरीदारी की जाती है। स्कूल के खाते में पैसा आने के बाद जिला शिक्षा कार्यालय के अधिकारी कमीशनखोरी के लिए हेडमास्टर पर अपने चहेते ठेकेदार (वेंडर) से ही विकास का काम कराने का दबाव डालते हैं।
मधुबनी के मधेपुर स्थित एक विद्यालय के हेडमास्टर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि कमीशनखोरी की वजह से काम की गुणवत्ता प्रभावित होती है। भविष्य में कोई विवाद न हो, इसके चलते पिछले साल उन्होंने सिर्फ 12 प्रतिशत राशि खर्च की। 88 प्रतिशत राशि केंद्र सरकार के खाते में लौट गई। हेडमास्टर ने बताया कि केके पाठक जितना ध्यान शिक्षकों और स्कूलों पर दे रहे हैं, उसका एक तिहाई भी जिला शिक्षा कार्यालय पर दे दें तो पूरे बिहार की शिक्षा व्यवस्था सुधर जाएगी। इस दिशा में वे अब तक नाकाम साबित हुए हैं।
पाठक का एक और फैसला संदेह के घेरे में है। उन्होंने चार एजेंसियों को हर जिले में आउटसोर्सिंग के जरिये अतिथि शिक्षकों और अस्थायी कर्मचारियों की बहाली का ठेका दे दिया। इसमें पारदर्शिता और आरक्षण के रोस्टर का पालन तक नहीं किया गया। भाकपा (माले) के विधायक संदीप सौरभ ने सरकार को पत्र लिखकर आरोप लगाया कि बहाली में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और अनियमितता की जा रही है। कुछ शिक्षकों ने भी दबी जुबान से माना कि आउटसोर्सिंग के जरिये पैसे लेकर क्षेत्र विशेष के लोगों को नौकरी दी गई। यह सब पाठक की नाक के नीचे हुआ।
पाठक की अनावश्यक दखलंदाजी की एक और बानगी देखिए।
लोकसभा चुनाव के मद्देनजर जब राज्य निर्वाचन आयोग ने शिक्षा विभाग के अस्थायी कर्मियों को चुनावी ड्यूटी में लगाने का आदेश दिया, तो पाठक आयोग से ही भिड़ गए। उन्होंने आनन-फानन में राज्य के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी को चिट्ठी लिखी और आयोग के आदेश को अनुचित करार दिया। उधर, शिक्षक संघ के नेता एक साथ चुनावी ड्यूटी और शिक्षण प्रशिक्षण को लेकर निर्वाचन आयोग से गुहार लगाने पहुंच गए। पाठक पर हिंदू आस्था से खिलवाड़ का भी आरोप लगा है। सूबे के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब शिक्षकों को प्रमुख त्योहार होली के दिन भी प्रशिक्षण के लिए जाना पड़ा।
कल्याण विभाग के सचिव की मनमानी
राज्य के अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग के सचिव दिवेश सेहरा तो पाठक से भी दो कदम आगे हैं। वे भी अपनी मनमानी चला रहे हैं। दोनों अधिकारियों के तुगलकी फरमान के बीच शिक्षक झूल रहे हैं। शिक्षा विभाग से सबद्ध स्कूलों में चुनाव के कारण गर्मी की छुट्टी पहले ही कर दी गई, लेकिन शिक्षकों को प्रतिदिन दो घंटे के लिए स्कूल आना अनिवार्य कर दिया गया है, क्योंकि उन्हें बच्चों को अलग से दो घंटे पढ़ाने का आदेश है। शिक्षकों के मन में पाठक का खौफ बना रहे, इसके लिए बाकायदा फोटाग्राफी कराई जा रही है। उधर, अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति कल्याण विभाग के मातहत प्रदेश भर में 92 स्कूल आते हैं, जिनमें पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग के बच्चों के स्कूल भी आते हैं। दिवेश सेहरा घोर हिंदू विरोधी हैं।
वह खुलेआम शिक्षकों को धमकाते हैं कि किसी ने हिंदू देवी-देवता या रामायण-महाभारत आदि ग्रंथों का नाम भी लिया तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी। इसके अलावा, उन्होंने स्कूलों का टाइमटेबल भी अजीब कर दिया है। प्रात:कालीन स्कूल का समय सुबह 7:30 बजे से 3:30 बजे तक है, जबकि पहले यह 12:30 बजे तक होता था। दूसरी ओर, उन्होंने कल्याण विभाग के स्कूलों के सभी स्टाफ का एकसाथ दूसरी जगहों पर तबादले कर दिए।
इससे स्कूलों की व्यवस्था बिगड़ गई है। पढ़ाई तो पहले भी नहीं होती थी, अब तो और चौपट हो चुकी है। लेकिन शिक्षकों से कहा जाता है कि वे बच्चों को अतिरिक्त समय देकर उसकी जिज्ञासा को शांत करें। प्रश्न है कि जब पढ़ाई होती नहीं, तो बच्चे पढ़ेंगे कैसे? बच्चे जब पढ़ेंगे नहीं, तो सवाल कैसे पूछेंगे? जब सवाल पूछेंगे नहीं, तो आकाशवाणी तो होगी नहीं कि उसे सुनकर शिक्षक बच्चों को उसका उत्तर दे देंगे।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि स्कूलों की स्थिति अराजक हो गई है। शिक्षक छात्राओं का यौन उत्पीड़न कर रहे हैं। अभी हाल ही में एक शिक्षक पर पॉक्सो के तहत मामला दर्ज किया गया है। इससे पहले पटना के बीएन कॉलेजिएट स्कूल के एक शिक्षक को भी यौन उत्पीड़न के आरोप में पॉक्सो के तहत मामला दर्ज कर जेल भेजा गया था। अभी वह जमानत पर है। यही नहीं, शिक्षकों को सीएल यानी कैजुअल लीव तक नहीं दिया जा रहा है। पहले हेडमास्टर से शिक्षकों की छुट्टी मंजूर करते थे, लेकिन अब उनसे अधिकार छीन कर निदेशालय को सौंप दिया गया है। आलम यह है कि एक शिक्षक की मां कैंसर से पीड़ित हैं। उन्होंने मां के इलाज के लिए निदेशालय से आकस्मिक छुट्टी मांगी तो उसे नामंजूर कर शिक्षक को बैरंग लौटा दिया गया।
टिप्पणियाँ