दादासाहब फाल्के : भारतीय फिल्म जगत के पितामह

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सुरेश कुमार गोयल

हिंदी सिनेमा में दिलचस्पी रखने वाले लोगों में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने दादासाहब फाल्के का नाम नहीं सुना होगा। भारतीय हिंदी फिल्म उद्योग की नींव उन्होंने ही रखी थी। फिल्म इंडस्ट्री में इनका नाम बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है। धुंडिराज गोविन्द फाल्के यानि दादासाहब फाल्के को भारतीय फिल्म उद्योग का ‘पितामह’ कहा जाता है। सिनेमा को लेकर उनकी दीवानगी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने फिल्म बनाने के लिए पत्नी की गहने तक दांव पर लगा दिए थे। वह अपनी फिल्म की नायिका की तलाश में रेड लाइट एरिया तक भी पहुंच गए थे। दादासाहब, सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट से प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे। वह मंच के अनुभवी अभिनेता थे, शौकिया जादूगर थे। उन्होंने कला भवन बड़ौदा से फोटोग्राफी का एक पाठ्यक्रम भी किया था।

दादासाहब फाल्के का पूरा नाम धुंडीराज गोविन्द फाल्के है। इनका जन्म महाराष्ट्र के नासिक शहर (प्रसिद्ध तीर्थ) से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित बाबा भोलेनाथ की नगरी त्र्यंबकेश्वर (12 ज्योर्तिलिंग में से एक) में 30 अप्रैल 1870 को एक ब्राह्मण मराठी परिवार में हुआ था। इनके पिता गोविंद सदाशिव फाल्के संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे और मुम्बई के एलफिंस्टन कॉलेज में प्राध्यापक थे। इस कारण दादासाहब की शिक्षा-दीक्षा मुम्बई में ही हुई। 1902 में इनका विवाह सरस्वती बाई के साथ हुआ। बचपन से ही इन्हें कला में रुचि थी। 1885 में 15 वर्ष की आयु में बम्बई के कला के बड़े शिक्षा केंद्र जेजे स्कूल ऑफ़ आर्ट में दाखिला लिया। यहां से चित्रकला सीखने के बाद 1890 में बडौदा के प्रसिद्ध महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी के कला भवन में दाखिला लिया और चित्रकला के साथ साथ फोटोग्राफी और स्थापत्य कला का भी अध्ययन किया। पढाई पूरी करने के बाद छोटे शहर गोधरा में फोटोग्राफर का काम शुरू किया, लेकिन पत्नी और बच्चे की प्लेग में मौत के कारण ये काम बीच में ही छोड़ना पड़ा। सदमे से उबरे तो इनकी मुलाकात एक जर्मन जादूगर कार्ल हर्ट्ज़ हेर्ट्ज़ (Carl Hertz) से हुई। 1903 में फाल्के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में मानचित्रकार बन गये लेकिन 1905 के स्वदेशी आन्दोलन के चलते यह नौकरी छोड़ दी।

25 दिसम्बर 1891 में मुम्बई के ‘अमेरिका-इंडिया थिएटर’ में एक विदेशी मूक चलचित्र “लाइफ ऑफ क्राइस्ट” दिखाया जा रहा था और दादासाहब भी यह चलचित्र देख रहे थे। चलचित्र देखते समय दादासाहब को ईसामसीह के स्थान पर कृष्ण, राम, समर्थ गुरु रामदास, शिवाजी, संत तुकाराम इत्यादि महान विभूतियाँ दिखाई दे रही थीं। उन्होंने सोचा क्यों ना चलचित्र के माध्यम से भारतीय महान विभूतियों के चरित्र को चित्रित किया जाए। दादासाहब ने इस फिल्म को कई बार देखा और फिर इनके हृदय में चलचित्र-निर्माण का अंकुर फूट पड़ा। उस समय फिल्म बनाने के जरूरी उपकरण केवल इंग्लैंड में मिलते थे, जहां जाने के लिए उन्होंने अपनी जिंदगी की सारी जमा-पूंजी लगा दी थी। इंग्लैंड में एक सप्ताह तक सेसिल हेपवर्थ के अधीन काम सीखा। कैबाउर्न ने विलियमसन कैमरा, एक फिल्म परफोरेटर, प्रोसेसिंग और प्रिंटिंग मशीन जैसे यंत्रों तथा कच्चा माल का चुनाव करने में मदद की। पहली मूक फिल्म राजा हरीशचंद्र बनाने में उन्हें लगभग 6 महीने का समय लगा था और इसके निर्माण पर लगभग 15 हजार रुपये खर्च हुए। 3 मई, 1913 को मुंबई के कोरोनेशन थियेटर में इसे दर्शकों के लिए प्रदर्शित किया गया। दर्शक एक पौराणिक गाथा को चलते-फिरते देखकर वाह-वाह कर उठे।

दादासाहब फाल्के ने अपने 19 साल के लंबे करियर में कुल 95 फिल्में और 27 लघु फिल्में बनाईं। जिनमें 1913 में मोहिनी भस्मासुर, सत्यवान सावित्री (1914), लंका दहन (1917), श्री कृष्णा जन्म (1918) और कालिया मर्दन (1919) प्रसिद्ध फिल्में थीं, जबकि 1937 में बनी गंगावतरण इनके द्वारा निर्देशित पहली बोलती फिल्म है। मूक फिल्मों से बोलती फिल्मों की ओर ले जाने का श्रेय दादा साहब को ही जाता है | काम के प्रति लगन और 18-18 घंटे काम करने से इनकी एक आंख खराब हो गई। फिल्म निर्माण का असंभव कार्य करनेवाले वह पहले व्यक्ति बने। इस कार्य के लिए इनकी पत्नी सरस्वती बाई ने पूरा साथ दिया और अपने जेवर तक गिरवी रख दिये।

राजा हरिश्चंद्र की सफलता के बाद दादा साहब फाल्के ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। इसके बाद बिजनेसमैन के साथ मिलकर फाल्के ने फिल्म कंपनी बनाई। कंपनी का नाम था हिंदुस्तान फिल्म्स। वह देश की पहली फिल्म कंपनी थी। उन्होंने एक मॉडल स्टूडियो भी बनाया। वह अभिनेताओं के साथ-साथ टेक्नीशियन को भी ट्रेनिंग देने लगे, लेकिन जिंदगी के अच्छे दिन ज्यादा समय तक नहीं रहे। पार्टनर के साथ काफी समस्याएं होने लगीं। 1920 में उन्होंने हिंदुस्तान फिल्म्स से इस्तीफा दे दिया और सिनेमा जगत से भी रिटायरमेंट लेने की घोषणा कर दी।

16 फरवरी, 1944 को 74 वर्ष की आयु में पवित्र तीर्थस्थली नासिक में भारतीय फिल्म जगत का यह अनुपम सूर्य सदा के लिए अस्त हो गया। 1969 में इनकी याद में दादा साहब फाल्के अवॉर्ड की शुरुआत हुई। भारत सरकार प्रतिवर्ष फिल्म जगत के किसी विशिष्ट व्यक्ति को आजीवन योगदान के लिए ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ प्रदान करती है। इस पुरस्कार में भारत सरकार की ओर से दस लाख रुपये नकद, स्वर्ण कमल और शॉल प्रदान किया जाता है। देविका रानी को पहली बार इस अवॉर्ड से नवाजा गया था। 1971 में भारत सरकार ने इनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया था। ‘दादा साहब फाल्के अकेडमी’ के द्वारा भी दादा साहेब फाल्के के नाम पर तीन पुरस्कार भी दिए जाते हैं, जो हैं – फाल्के रत्न अवार्ड, फाल्के कल्पतरु अवार्ड और दादासाहब फाल्के अकेडमी अवार्ड्स।

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