लोकसभा चुनाव 2024 के लिए उत्तराखंड में उम्मीद से काफी कम 57.22 प्रतिशत मतदान ही दर्ज हो पाया। यह मतदान प्रतिशत पिछले दो लोकसभा चुनावों के मुकाबले कम है। इस लोकसभा चुनावों में भी मतदान के रुझान को लेकर मैदान-पहाड़ के बीच फिर से परंपरागत अंतर देखने को मिला। इस विषय पर एसडीसी फाउंडेशन ने देहरादून में समाज से जुड़े तमाम विशेषज्ञों से राय शुमारी की।
उल्लेखनीय है कि हरिद्वार और नैनीताल जैसी मैदानी सीटों पर इस बार भी अपेक्षाकृत अधिक मतदान हुआ तो अल्मोड़ा, गढ़वाल और टिहरी सीट के पहाड़ी क्षेत्रों में मतदान को लेकर अमूमन बेरुखी नजर आई। उत्तराखंड में अन्य राज्यों की तुलना में बेहद कम वोटिंग और आम जनमानस की वोटिंग की बेरुखी को लेकर सामाजिक संस्था एसडीसी फाउंडेशन ने “मतदान में मात क्यों खा रहा है उत्तराखंड”? विषय पर राउंड टेबल डायलॉग आयोजित किया। वक्ताओं में शिक्षाविद, सामाजिक कार्यकर्ता, मीडिया, युवा वर्ग के लोगों ने प्रतिभाग किया।
इस विषय पर संवाद में अलग-अलग क्षेत्र के वक्ताओं ने कम मतदान के लिए पलायन, एकतरफा जीत का पॉलिटिकल नैरेटिव और कुछ हद तक मिसिंग वोटर जैसी वजहों को मुख्य तौर पर जिम्मेदार माना। वक्ताओं ने इस स्थिति में सुधार के लिए प्रवासी मतदाताओं को मतदान के लिए फ्री राइड जैसे प्रोत्साहन देने, घर पर वोट देने की सुविधा का विस्तार, रिमोट वोटिंग ओर वन स्टेट वन वोटर लिस्ट की जोरदार पैरवी की। नोटा की समझ की कमी पर युवाओं ने अपनी बात सामने रखी ।
डायलॉग शुरू करते हुए अनूप नौटियाल ने कहा कि पहले दौर में 21 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में उत्तराखंड 19वें स्थान पर रहा। 70 विधान सभा में से 18 पहाड़ों में हैं, वहीँ 50% से अधिक लोगों ने वोट नहीं डाला । यह राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से एक सीमावर्ती राज्य के लिए चिंताजनक है। वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत ने कहा कि इस बार मतदान के आस-पास शादियों की तिथियां होना भी कम मतदान का एक कारण रहा। साथ ही प्रशासन बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी बातों को लेकर मतदान बहिष्कार करने वाले लोगों की शिकायतें समय से दूर नहीं कर सका। जय सिंह रावत के मुताबिक, राज्य में स्थापित राजनैतिक दलों और नेताओं के प्रति मोहभंग होना भी कम मतदान की वजह हो सकती है।
एडीआर के राज्य समन्वयक मनोज ध्यानी ने कहा कि कम मतदान प्रतिशत के लिए पलायन मुख्य तौर पर जिम्मेदार है, इसके साथ ही ऐसे प्रवासी मतदाता भी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने बीते कुछ वर्षों में चलें मेरा गांव मेरा वोट अभियान की भावुक अपील के तहत अपना वोट तो गांव में बनवा लिया है, लेकिन वो वोट देने अपने मूल गांव नहीं आ पाए। मनोज ध्यानी के मुताबिक, चुनाव से पहले व्यापक स्तर पर हुए दलबदल से भी मतदाताओं का राजनैतिक प्रक्रिया के प्रति भरोसा डिगा है। इस कारण भी लोग वोट देने नहीं गए।
वरिष्ठ पत्रकार वर्षा सिंह ने कहा कि वोटर लिस्ट में गड़बड़ी, मतदाताओं में रोजमर्रा की समस्याओं को लेकर नाराजगी कम मतदान की वजह हो सकती है। विकल्पों की कमी की बात करते हुए उन्होंने प्रौद्योगिकी उन्नति की आवश्यकता पर अपने विचार रखे। दून यूनिवर्सिटी के डॉ. ममगाईं ने कहा कि राजनीति में करीब 50 से 60 प्रतिशत मतदाता किसी भी व्यक्ति या दल के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होते हैं, इन्हें फ्लोटिंग वोटर कहा जाता है, इस बार इस फ्लोटिंग वोटर के पास मतदान की कोई वजह नजर नहीं आई है। ऐसा लगता है कि यह वर्ग अपने हालात से संतुष्ट हो चुका है, इस वर्ग को लग रहा है कि वोट करने या न करने से उसे कोई असर नहीं पड़ेगा।
प्रो. हर्ष डोभाल ने कहा कि दुर्गम क्षेत्रों में कम मतदान वहां विकास की हालत बयां करती है। चुनाव में स्थानीय मुद्दे अनदेखे रहे। कम मतदान को समझने के लिए और अधिक अध्ययन और अनुसंधान की आवश्यकता है।
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पीएम मोदी के चेहरे पर रहा अधिक जोर
रणवीर सिंह चौधरी ने कहा कि इस बार 400 पार और प्रधानमंत्री के चेहरे पर अत्यधिक जोर दिए जाने से पैदा किए गए नैरेटिव से चुनाव का उत्साह फीका पड़ा, इस नैरेटिव से भाजपा कैडर मतदान के पहले ही बेफिक्र हो गया, वहीं विपक्ष कैडर का मनोबल पहले ही टूट गया। इस कारण चुनाव अभियान बेहद फीका रहा। उन्होंने कहा कि वोटर लिस्ट की गड़बड़ी भी सामने आई।
उप निदेशक सूचना रवि बिजारनिया ने कहा कि निर्वाचन आयोग ने मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए इस बार भरसक प्रयास किए, लेकिन उत्तराखंड का लक्ष्य फिर भी पीछे छूट गया, हालांकि इस बार प्रथम दो चरण में पूरे देश में यही रुझान देखने को मिला है। उन्हेांने कहा कि लोग निकाय या पंचायत चुनाव की वोटर लिस्ट में नाम होने के आधार पर लोकसभा विधानसभा की वोटर लिस्ट में भी नाम होने का आंकलन कर देते हैं, जबकि दोनों वोटर लिस्ट अलग-अलग संस्थाओं द्वारा अलग-अलग तरीके से बनाई जाती है।
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धाद की पदाधिकारी अर्चना ग्वाड़ी ने कहा कि युवा आमतौर पर मतदान को लेकर जागरुक नहीं नजर आए। मतदाताओं को नोटा एक उपयोगी विकल्प नजर नहीं आता है।
रिसर्च स्कॉलर रोली पांडेय के मुताबिक, उत्तराखंड में कम मतदान के लिए पलायन ही मुख्य कारण है। उत्तराखंड के युवा बड़ी संख्या में उत्तराखंड और आस पास के होटल रिजॉर्ट में काम करते हैं। इस बार मतदान शुक्रवार होने के कारण तीन दिन का वीकएंड होने से होटल, रिजॉर्ट पहले ही बुक हो गए थे, इस कारण उन युवाओं को मतदान के लिए छुट्टी मिलनी संभव नहीं थी।
दून यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट इरिस चहान ने कहा कि इस बार उत्तराखंड का चुनाव एक 26 साल के युवा के इर्द गिर्द सिमटा रहा, इस युवा का उभार बताता है कि प्रमुख राजनैतिक दल और राजनेता ज्यादातर लोगों के लिए अप्रसांगिक हो रहे हैं, इस तरह प्रेरणा देने वाले नेतृत्व का न होना भी कम मतदान का एक कारण हो सकता है। उन्होंने कहा कि नोटा को लेकर अब भी स्वीकार्यता का अभाव है।
अनिल सती ने कहा कि महिलाओं की उत्तराखंड में हमेशा अहम भूमिका रही है, लेकिन इस बार महिलाओं में भी मतदान को लेकर खास उत्साह नजर नहीं आया। वरिष्ठ पत्रकार संजीव कंडवाल ने डायलॉग का निचोड़ रखते कहा कहा कि मतदान प्रतिशत बढ़ाने के लिए निर्वाचन आयोग केा मतदाताओं को फ्री राइड देने चाहिए, रक्षा बंधन के मौके पर आमतौर पर इस तरह का लाभ महिलाओं को मिलता है। इसी तरह भारत निर्वाचन आयोग को अब रिमोट वोटिंग पर और पुख्ता तरीके से विचार करना चाहिए। साथ ही मतदान के लिए सिर्फ एक दिन तक तय करने के बजाय इसके लिए वैकल्पिक दिन भी दिए जाएं। एक सुधार घर पर वोटिंग का दायरा बढ़ाने के रूप में भी हो सकता है। साथ ही मतदाताओं को भ्रम से बचाने के लिए, वन स्टेट, वन वोटर लिस्ट तैयार की जाए।
अनूप नौटियाल ने कहा कि मतदान में मात क्यों खा रहा है उत्तराखंड विषय पर आयोजित राउंड टेबल डायलाग की रिपोर्ट निर्वाचन आयोग के साथ साझा की जाएगी। उन्होंने कहा कि प्रदेश के राजनैतिक दलों और निर्वाचन आयोग को उत्तराखंड के कम वोटिंग ट्रेंड और जनता की बेरुखी और हताशा पर गंभीरता से काम करने की जरूरत है।
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