भारत की आध्यात्मिक धरा पर प्रत्येक युग में कुरीति निवारण तथा लोकमंगल की स्थापना के लिए ईश्वरीय चेतनाओं तथा संतों- मनीषियों का प्राकट्य हुआ है। भारत माता की गोद में जन्मी ऐसी ही एक दिव्य विभूति थे जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी। समूची दुनिया को ‘जियो और जीने दो’ का अनूठा सिद्धांत देने वाले जैन धर्म के प्रवर्त्तक इस महामनीषी के जीवनमंत्र वर्तमान परिस्थितियों में पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हैं, न केवल मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में, वरन सार्वजनिक क्षेत्र में भी।
महावीर स्वामी का प्रतिपादन है कि यह संपूर्ण दृश्य व अदृश्य जगत आत्मा का ही खेल है। संसार के प्रत्येक जीव एक ही आत्मा निवास करती है; इसलिए हमें दूसरों के प्रति हिंसा करने का कोई अधिकार नहीं है। वे कहते हैं कि हर मनुष्य को दूसरों के साथ वही व्यवहार रखना चाहिए जो वह खुद के प्रति दूसरे से चाहता है। वर्तमान के भोगवादी मशीनी युग में उनका यह जीवन मंत्र अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनके इन जीवन मन्त्रों में विश्व की सभी समस्याओं का निराकरण करने की अनूठी क्षमता है। उनका ‘अहिंसा’ का दिव्य सूत्र मनुष्य की स्वार्थी प्रवृति एवं संकीर्ण मनोवृति पर विराम लगाकर आज की सर्वाधिक ज्वलंत समस्या भयावह पर्यावरण संकट पर विराम लगा सकता है।
गौरतलब है कि इंसानी लालच और स्वार्थ के कारण जीव जंतुओं की हजारों प्रजातियां आज लुप्त हो चुकी हैं और अनेक पर संकट गहरा रहा है। यदि मानव इसी तरह जीव-जंतुओं और वृक्ष-वनस्पतियों का विनाश करता रहेगा तो एक दिन न दुनिया बचेगी और न मानव समाज। मांसाहारी तर्क देते हैं कि यदि मांस नहीं खाएंगे तो धरती पर दूसरे प्राणियों की संख्या इतनी बढ़ जाएगी कि वे मानव के लिए ही खतरा बन जाएंगे। लेकिन, क्या उन्होंने कभी यह सोचा है कि मानव के कारण आज कितनी प्रजातियां लुप्त हो गयी हैं! धरती पर सबसे बड़ा खतरा तो मानव ही है; जो शेर, सियार, बाज, चील जैसे सभी विशुद्ध मांसाहारी जीवों के हिस्से का मांस खा जाता है जबकि उसके लिए तो भोजन के और भी साधन हैं जबकि इसी कारण जंगल के जानवर भूखे मर रहे हैं। महावीर स्वामी की मान्यता है कि संसार के प्रत्येक जीव को अपना जीवन अति प्रिय है जो उसको नष्ट करने को उसको क्षति पहुंचाने को उद्यत रहता वह हिंसक है, दानव है। इसके विपरीत जो इसकी रक्षा करता है वह अहिंसक है और वही मानव है।
जिस तरह आज समूची दुनिया में पर्यावरण प्रदूषण का खतरा गहराता जा रहा है, उसके मूल में है प्राकृतिक ताने-बाने का विनाश। यदि जल्द ही न चेते तो वह दिन दूर नहीं जब मानव को कंक्रीट के जंगलों का विस्तार में और रेगिस्तान की चिलचिलाती धूप में प्यासा मरना होगा। जंगलों से हमारा मौसम नियंत्रित और संचालित होता है। जंगल की ठंडी आबोहवा नहीं होगी तो सोचो धरती किस तरह आग की तरह जलने लगेगी? इस समस्या का सबसे प्रभावी समाधान इस अप्रतिम पर्यावरण पुरुष की वाणी में निहित है। महावीर स्वामी के इस कथन कि ‘वृक्षों में भी गहन संवेदना तथा सोच-विचार की अद्भुत क्षमता होती है’ की पुष्टि अब जीव विज्ञानियों की शोधों से हो चुकी है।
महावीर स्वामी कहते थे कि हमें प्राणवायु प्रदान करने वाले वृक्ष हमें असीम शांति और मानसिक स्वास्थ्य भी प्रदान करते हैं। इसी कारण जैन धर्म में वृक्षों को काटना महापाप माना जाता है। बताते चलें कि जैन धर्म में वट, पीपल, अशोक, नीम, तुलसी आदि की बहुआयामी पर्यावरणीय उपयोगिता के मद्देनजर इन वृक्ष-वनस्पतियों के आस-पास चबूतरा बनाकर उन्हें सुरक्षित करने की परम्परा डाली थी। पर्यावरण विज्ञान आज जो यह बात कहता है कि घने छायादार वृक्ष भरपूर ऑक्सीजन देकर व्यक्ति की चेतना को जाग्रत बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं; इस तथ्य का प्रतिपादन महावीर स्वामी सैकड़ों वर्ष पूर्व ही कर चुके थे, इसी कारण उन्होंने प्रत्येक शुभ मौके पर पौधे रोपने का संदेश दिया था।
भगवान महावीर का दूसरा प्रमुख संदेश प्राणी मात्र के कल्याण के लिए बराबरी व भाईचारा। उन्होंने मनुष्य-मनुष्य के बीच भेदभाव की सभी दीवारों को ध्वस्त कर जन्मना वर्ण व्यवस्था का विरोध किया। उनकी मान्यता थी कि इस विश्व में न कोई प्राणी बड़ा है और न कोई छोटा। उन्होंने गुण-कर्म के आधार पर मनुष्य के महत्व का प्रतिपादन किया। भगवान महवीर कहते थे कि ऊँच-नीच, उन्नति-अवनति, छोटे-बड़े सभी अपने कर्मों से बनते हैं, सभी समान हैं न कोई छोटा, न कोई बड़ा। उनकी दृष्टि समभाव की थी। वे सम्पूर्ण विश्व को समभाव से देखने वाले तथा समतामूलक समाज के स्वप्नदृष्टा थे। इसी तरह महावीर के ‘अचौर्य’ के सिद्धान्त के अनुकरण से विश्व में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है।
उनका ‘सत्य’ के आचरण का सिद्धांत घोटालों में लिप्त राजनेताओं एवं नौकरशाहों को राष्ट्रहित की प्रेरणा दे सकता है। उनका ‘अपरिगृह’ का संदेश कालाबाजारी को रोककर सामाजिक विषमता को कम कर सकता है। आज जिस तरह समाज में हिंसा, अत्याचार, चोरी, लूटपाट जैसे अपराधों की बाढ़ सी आती जा रही है। लालच व क्रोध के दानव ने सामाजिक ताने-बाने को तार-तार कर दिया है। खून के रिश्ते तक स्याह हो गये हैं। मानवता व आत्मीयता व संवेदना जैसे मनोभाव विरले ही दिखते हैं। ऐसे अशांत, भ्रष्ट व हिंसक समाज में महावीर का जीवन पथ ही मानव मन को सच्ची शांति प्रदान कर सकता है।
काबिलेगौर हो कि महावीर स्वामी के सत्य और अहिंसा के सशक्त जीवनसूत्रों के बल पर भारत को विदेशी दासता मुक्त कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का जीवन जैन धर्म के संस्कारों से गहराई प्रभावित था। अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ के पृष्ठ 32 पर उन्होंने लिखा है, ‘जब उन्होंने अपनी माता पुतलीबाई से विदेश जाने की अनुमति माँगी थी तब उनकी माँ ने अनुमति प्रदान नहीं की, क्योंकि माँ को शंका थी कि विदेश जाकर कहीं वे माँस आदि का भक्षण करने न लग जाएं। उस समय एक जैन मुनि बेचरजी स्वामी के समक्ष उनके द्वारा तीन प्रतिज्ञाएं (माँस, मदिरा व परस्त्री सेवन का त्याग) लेने पर ही माँ ने उनको विदेश जाने की अनुमति दी थी।’
मानव समाज को अन्धकार से प्रकाश की ओर लाने वाले इस महामानव का जन्म आज से करीब ढ़ाई हजार साल पहले (599 ई.पूर्व ) चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को बिहार के लिच्छिवी वंश में महाराज सिद्धार्थ और महारानी त्रिशिला के पुत्र रूप में हुआ था। राजभवन के राजसी वैभव में पलने के बावजूद राजकुमार वर्धमान के हृदय में मानवीयता, सहृदयता व सम्वेदना के अंकुर बाल्यावस्था से फूटने लगे थे। होश संभालते ही उन्होंने खुद को विषम परिस्थितियों से घिरा पाया।
उनके युग में धर्म का मानवीय स्वरूप अत्यंत विद्रूप था। यह देख कर राजपुत्र वर्धमान का भावनाशील मन कराह उठा। मगर जीवन लक्ष्य की साधना का सुअवसर उन्हें पिता की मृत्यु के उपरान्त 30 वर्ष की आयु में मिल सका। गृह त्यागकर बारह वर्षों तक कठोर तप साधना के बाद कैवल्य (परम ज्ञान) की प्राप्ति के बाद राजकुमार वर्धमान जैन धर्म के 24 वें तीर्थकर महावीर स्वामी के रूप में प्रतिष्ठित हुए। उनका सम्पूर्ण जीवन त्याग, तपस्या व अहिंसा का अनुपम उदाहरण है। उन्होंने एक लंगोटी तक का परिग्रह नहीं किया।
पूरी दुनिया में पंचशील (सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अत्सेय व क्षमा) के सिद्धांत देने वाले स्वामी महावीर ने न सिर्फ मानव अपितु सम्पूर्ण प्राणी समुदाय के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। महावीर स्वामी का जीवन दर्शन है कि प्रत्येक प्राणी की चेतना में परम चेतना समाहित है, इस कारण प्रत्येक आत्मा अपने पुरुषार्थ से परमात्मा बन सकती है। मनुष्य अपने सत्कर्म से उन्नत होता है। भगवान महावीर ने प्रत्येक व्यक्ति को मुक्त होने का अधिकार प्रदान किया। उनके अनुसार मुक्ति ईश्वरीय दया का दान नहीं वरन प्रत्येक व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है। जो आत्मा बंधन का कर्ता है, वही आत्मा बंधन से मुक्ति प्रदाता भी है। एक बार एक मनुष्य यह जिज्ञासा लेकर महावीर के पास गया कि जो आत्मा आंखों से नहीं दिखाई देती तो क्या इस आधार पर उसके अस्तित्व पर शंका नहीं की जा सकती? भगवान ने बहुत सुंदर उत्तर दिया, “भवन के सब दरवाजे एवं खिड़कियां बन्द करने के बाद भी जब भवन के अन्दर संगीत की मधुर ध्वनि होती है तब आप उसे भवन के बाहर निकलते हुए नहीं देख पाते। किन्तु आंखों से दिखाई न पड़ने के बावजूद संगीत की वह मधुर ध्वनि बाहर खड़े श्रोताओं को सुनायी पड़ती है। इसी तरह आंखें भले ही आत्मा को नहीं देख सकतीं, पर उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता।”
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