अमेरिका और चीन के संबंध इस वक्त अपने सबसे निचले स्तर पर हैं। राजनयिक और व्यापारिक स्तर पर अब इन दोनों देशों के संबंध चीन की चालाकियों और गलत मंशाओं के चलते पटरी से उतरे हुए हैं और ऐसा पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल से चला आ रहा है। संभवत: इसीलिए अमेरिकी अगुआई वाले ‘नाटो’ संगठन की टक्कर में अब चीन ‘वैश्विक सुरक्षा पहल’ नाम से अपनी तर्ज पर एक गठबंधन खड़ा करने में जुटा है। खबर है कि इस नए चीनी ‘नाटो’ में उसके रहम पर रोटी खा रहा पाकिस्तान शामिल होगा।
विशेषज्ञ इस ‘चीनी नाटो’ के बनने और उसमें पाकिस्तान के शामिल होने को लेकर पैदा होने वाली परिस्थितियों के बारे में चर्चा करने लगे हैं। उनका मानना है कि यदि पाकिस्तान ‘चीनी नाटो’ में शामिल होता है तो उसे चीन और कर्जे देगा और साथ ही अपने यहां बने आधुनिक हथियार भी मुहैया करा देगा। यह संभावना भारत के लिए थोड़ा चिंताजनक हो सकती है।
‘चीनी नाटो’ एक प्रकार से चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के दिमाग की उपज है। वे शायद बीआरआई के जरिए आधी दुनिया तक अपने माल की पहुंच बनाने के बाद ‘वैश्विक सुरक्षा पहल’ के नाम पर गरीब एशियाई और अफ्रीकी देशों को अपने झंडे तले जोड़कर दबदबा दिखाने की कोशिश में हैं। इसका घोषित मकसद है ‘एशियाई सुरक्षा ढांचा’ खड़ा करना। इस बारे में चीन के विदेश मंत्री ले युचांग ने गत सप्ताह प्रेस को इसकी जानकारी भी दी है।
बीजिंग को चिंता है कि नाटो संगठन एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपना असर बढ़ाने की कोशिश कर सकता है। उसकी ‘बेल्ट एंड रोड’ परियोजना के शिकंजे में पहले ही कई गरीब अफ्रीकी और एशियाई देश आ चुके हैं। लेकिन इसमें उसे कई भू-राजनीतिक चुनौतियां पेश आ रही हैं। कोरोना महामारी की वजह से वहां बेरोजगारी बढ़ गई है और कारोबार ठप पड़ रहे हैं। शायद दसियों साल बाद चीन की आर्थिक हालत पतली हुई है। इन परिस्थितयों में अपने लोगों का उस सब से ध्यान भटकाने के लिए सरकार ने ‘सुरक्षा पहल’ का नया जुमला उछाला है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि शी जिनपिंग वैश्विक सुरक्षा पहल के नाम पर अमेरिका की अगुआई वाले नाटो का चीनी जवाब मान रहे हैं। नाटो में इस वक्त 32 सदस्य देश हैं। इनमें से 30 सदस्य देश यूरोपीय हैं। जैसा कि नाटो का कायदा कहता है, अगर किसी भी सदस्य देश पर कोई बाहरी आक्रमण होता है कि यह बाकी सभी सदस्य देशों पर हमले की तरह देखा जाएगा।
इसमें संदेह नहीं है कि चीन अमेरिका के एशियाई देशों, विशेषकर भारत के साथ नजदीकी संबंध बनने से चिढ़ा हुआ है। उसे चिंता है कि अमेरिका विश्व के इस हिस्से में अपनी धमक बढ़ा रहा है। शायद इसी चिंता में से राष्ट्रपति शी ने ‘नाटो’ की तर्ज पर ‘वैश्विक सुरक्षा पहल’ का शिगूफा खड़ा किया है। संभवत: इससे माध्यम से वह अमेरिका पर एक प्रकार का दबाव बनाना चाहता है।
बीजिंग को चिंता है कि नाटो संगठन एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपना असर बढ़ाने की कोशिश कर सकता है। उसकी ‘बेल्ट एंड रोड’ परियोजना के शिकंजे में पहले ही कई गरीब अफ्रीकी और एशियाई देश आ चुके हैं। लेकिन इसमें उसे कई भू-राजनीतिक चुनौतियां पेश आ रही हैं। चीन की अर्थव्यवस्था भी इस वक्त आईसीयू में पड़े मरीज की सी हो गई है। कोरोना महामारी की वजह से वहां बेरोजगारी बढ़ गई है और कारोबार ठप पड़ रहे हैं। शायद दसियों साल बाद चीन की आर्थिक हालत पतली हुई है। इन परिस्थितयों में अपने लोगों का उस सब से ध्यान भटकाने के लिए सरकार ने ‘सुरक्षा पहल’ का नया जुमला उछाला है।
भारत के साथ चीन पूर्वी लद्दाख में विवाद खड़े कर रहा है। उसकी कोशिश है कि वहां रणनीतिक स्थितियां अपने पक्ष में कर ले। वहां चीन के नए सैन्य ढांचे और निर्माण उसी तरफ इशारा करते हैं। गलवान में साल 2020 में शुरू हुआ तनाव दूर करने के लिए चीन भारत से बातचीत का सिर्फ दिखावा जैसा कर रहा है क्यों कि 20 से ज्यादा दौर की सीमा वार्ता के बाद भी चीन किसी ठोस नतीजे के लिए उत्सुक नहीं दिखता।
जैसा पहले बताया, ‘वैश्विक सुरक्षा पहल’ के नाम से चीन की कोशिश है एशिया के गरीब देशों को ‘सुरक्षा’ के झंडे तले जमाना और फिर उनके बूते भी अमेरिका को आंख दिखाना। चीन को यह भी चिंता है कि अमेरिका ‘आकुस’ गुट के माध्यम से प्रशांत क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
चीन की इस नई सुरक्षा पहल और उसमें पाकिस्तान के शामिल होने से भारत को हो सकने वाली चिंता की बात करें तो पाकिस्तान सीमा पार आतंकवाद के जरिए भारत को आहत करने की कोशिश में जुआ ही हुआ है, हालांकि इधर दस साल से उसकी चालें नाकाम ही होती रही हैं। लेकिन चीन और पाकिस्तान के ‘सुरक्षा’ के नाम पर और नजदीक आने से पाकिस्तान को चीन के आधुनिक हथियार भी मिल सकते हैं जिन्हें वह भारत के विरुद्ध ही प्रयोग करने की मंशा पाल सकता है।
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